Tuesday, February 6, 2024

मन रह गया अयोध्या में...

जहाज ने दिल्ली का रन-वे छोड़ा और मन राम के आचरण की कथा बाँचने लगा। खिड़की से बाहर झाँका, तो सूरज के तेज प्रकाश से आँखें चुंधिया गईं। भौतिक आँखें बंद हुई तो मन राम के नयनाभिराम चरित्र पर त्राटक करने लगा। अनायास ही राम से कुछ मांगने की उत्कंठा जगी तो याचना राम-आचरण की प्रार्थना के गीत में ढल गई।
अयोध्या विमानतल पर लैंडिंग की उद्घोषणा होने से पहले गीत पूरा हुआ। जहाज धरती पर उतर रहा था और मन सृजन के आनंद में उड़ान भर रहा था। आगमन हॉल में प्रवेश किया तो पुष्पक विमान के माध्यम से राम आगमन की भव्य पेंटिंग आँखों की चुंबक बन गई। जिधर दृष्टि जाती है उधर ही राम विराजमान हैं। एक दीवार पर मधुबनी शैली की पाँच पेंटिंग्स में राम की जीवन झाँकी प्रदर्शित है।
मैंने देखा कि कन्वेयर बेल्ट पर लगेज घूम रहा था और लोग अपने सामान की चिंता छोड़कर आगमन हॉल की चित्रकारी को कैमरे में क़ैद कर रहे थे।
हवाई अड्डे से निकलकर अपने प्रवास की ओर चले तो ऐसा लगा कि पूरा शहर किसी अनन्त उत्सव में संलग्न है। धूप तेज़ थी, लेकिन उत्साह में कोई कमी नहीं। सड़क के दोनों ओर जगह-जगह भित्तिचित्र, सूर्य-स्तम्भ और न जाने कितने नगर सिंगार दृश्यमान हैं। पूरी अयोध्या उस नारी की तरह इतरा रही है, जिसे पूरे जीवन के तिरस्कार के बाद पिया का संसर्ग मिल गया हो।
हमारे ठहरने की व्यवस्था नए बस अड्डे के पास बनी निषादराज गुहा टैंट सिटी में थी। हम अयोध्या को निहारते हुए गंतव्य तक पहुँचे।
टैंट सिटी क्या, एक छोटी-मोटी बस्ती बसी हुई है। प्रवेश करते ही एक बड़े से आँगन में ऊँचे चबूतरे पर खड़ाऊ की भव्य प्रतिकृति बनी है। उसके पीछे धनुर्धर श्रीराम स्वयं एक ऊँचे चबूतरे पर खड़े हैं। उसके पीछे सैंकड़ों टैंट कतारबद्ध तने हुए हैं। हर टैंट सुविधाओं से युक्त। एयर कंडीशनर भी मौजूद है और रूम हीटर भी; टीवी भी है और डबलबेड भी। कुल मिलाकर जब तक कोई याद न दिलाए, तब तक यह किसी शानदार होटल के कमरे से कम नहीं लगता।
भोजन के लिए शबरी रसोई है। पार्श्व में रामधुन का संगीत और थाली में सादा किन्तु स्वादिष्ट भोजन। हम सभी कवियों ने प्रसाद की तरह भोजन ग्रहण किया।
माहौल से मन का वातावरण प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। इसलिए हमारा मन भी आराम का विचार त्यागकर नगर भ्रमण और रामलला के दर्शन को आतुर हो गया। जहाँ हमें गाड़ी ने छोड़ा वहाँ बहुत बड़ा द्वार बना है, जिस पर सात घोड़ों पर सवार दिनकर उकेरे गए थे। इस द्वार से प्रारंभ हुई सड़क, सीधे लता मंगेशकर चौक तक जाती है। इस चौक पर एक बहुत बड़ी वीणा बनाई गई है। जब हम यहाँ पहुँचे तब इस्कॉन की एक मंडली 'हरे कृष्णा हरे रामा' गाते हुए नृत्यमग्न थी। उत्साह ने हमारे पैरों को भी सुरों का दास बना दिया। थोड़ी देर नाच-गाकर हम राम की पैड़ी पर जा पहुँचे। दिन, दोपहर की ड्योढी लाँघकर शाम के बगीचे में प्रवेश कर रहा था। सूरज शीतल हुआ जाता था और हवा मीठी। राम की पैड़ी पर सभी कवियों ने मस्तक पर चंदन-रोली से राम नाम लिखवाया। फिर सरयू की मुख्यधारा में नौका विहार किया। यहाँ नदी का जल इतना निर्मल है कि एक-एक लहर में आरपार झाँका जा सकता है। हम सरयू की अगम धार पर नौकायन कर रहे थे और मन के भाव लहरों से भी अधिक लहरा रहे थे।
रामशरणदायीनी सरिता को प्रणाम करके हम हनुमानगढ़ी की ओर बढ़ चले। विनीत चौहान जी कह ही रहे थे कि "इतनी भीड़ में हनुमानगढ़ी के मुख्य महंत राजूदास जी अति व्यस्त होंगे, अन्यथा मैं सब कवियों को उनसे मिलवाता"; इतनी देर में रामायण धर द्विवेदी ने राजूदास जी को फोन मिला दिया। अगले 4 मिनिट में हम महंत जी के सामने थे। विनीत जी के पुराने परिचित महंत राजूदास जी ने सभी कवियों का सम्मान करके सबको रामनामी ओढ़ाई। अयोध्या के राजा के दर्शन से आनंद द्विगुणित हो गया। और हम अंजनिपुत्र को राम-राम बोलकर दशरथ महल आ पहुँचे। फिर कनक भवन में माँ जानकी की आरती की और नवनिर्मित राममंदिर की ओर बढ़ चले।
उत्साह और कदम एक दूसरे से होड़ कर रहे थे। अभय सिंह निर्भीक, बड़े मन से हमें राममंदिर तक लाए। फोन और जूते बाहर जमा करा दिये गए। जूते उतारकर हम ज़मीन से जुड़ गए और फोन छोड़कर हम अनावश्यक व्यस्तता से छूट गए।
ज्यों-ज्यों हम मंदिर के भीतर घुसते जाते थे, राम के विग्रह को देखने की लालसा और घनीभूत हुई जाती थी। मंदिर की नक्काशी में दर्जनों कलाकृतियाँ उपस्थित थीं किन्तु मन को राम से कम कुछ नहीं लुभाता था। आँखों ने देखा कि स्तम्भों पर शिव के विविध स्वरूप उकेरे गए हैं; कहीं यक्ष अंकित हैं तो कहीं हनुमान; कहीं गणपति हैं तो कहीं शक्ति; कहीं किसी दीवार पर पत्थर को छैनी से छूकर कलाकार ने प्राणवान कर दिया है। दरवाज़ों पर कनक मँढ़ाई थी और भीड़ के बावजूद धक्का-मुक्की बिल्कुल नहीं थी। आँखें सब कुछ देख रही थीं, किन्तु मन व्याकुल हुआ जाता था। अभय सिंह निर्भीक आस्था और उत्साह में भरकर राम नाम की जयकार करता था... कहीं कोई टोली कीर्तन करती बढ़ रही थी, तो कहीं किसी कोई राम दर्शन के लिए आँखों को अश्रु स्नान करा रहा था।
उत्सुकता और भक्ति के यह तमाम दृश्य जिस एक सूत्र में पिरोए जा रहे थे, उस सूत्र का नाम है - 'प्रेम'। मैंने महसूस किया कि मेरे भीतर राम के प्रति जो आस्था थी वह प्रेम में रूपांतरित हो रही थी।
हम सब कवि सबसे बाईं लाइन में चल रहे थे। मुख्य गर्भगृह में सभी दर्शनार्थी तीन पंक्तियों में बँट गए थे। और ये तीनों पंक्तियाँ राम तक पहुँचती थी। मध्य पंक्ति में लगे लोग सबसे अधिक सौभाग्यशाली रहे। किंतु हमारे और राम जी के बीच एक स्तम्भ आ रहा था। बेचैनी बढ़ती जाती थी। मन करता था कि दृष्टि किसी तरह स्तम्भ के पार हो जाए। मध्य पंक्ति वाले भाव विभोर थे और मैं विकल हुआ जाता था। अचानक मेरे पैरों ने स्तम्भ के प्रभाव क्षेत्र को लांघकर मुझे राम के सम्मुख ला खड़ा किया। एक पल को धड़कन थम सी गई... ऐसा लगा राम के रूप को स्पर्श करके पलकें पत्थर हो गई थीं। क्या मज़ाल जो एक बार भी झपक जाएं! मूर्ति काफ़ी दूरी पर थी लेकिन मन ने दृष्टि के विमान पर बैठकर क्षणांश में यह दूरी तय कर ली। लगभग 4-5 सेकेंड के लिए मैंने बैकुण्ठ का अनुभव किया और फिर आँसुओं से आचमन करके दृष्टि लोक की ओर मुड़ गई। पलटकर देखने का मन हुआ, किन्तु देख न सका। सुनील व्यास फफककर रोते हुए दिखे। विनीत जी निःशब्द थे। पूनम वर्मा जी के पति मुकेश जी के चेहरे पर आनंद घुल गया था। निकुंज अपने मौन के साज पर कुछ गुन रहा था। अभय के चेहरे पर यह संतोष था कि उसने अपने सभी अतिथियों को अच्छे से दर्शन करवा दिए।
मन की तन्द्रा टूटी तो याद आया कि पांव काफी दुखने लगे थे। किंतु धमनियों में भक्ति और प्रेम प्रवाहित था, सो देह का कष्ट चेहरे तक न आ सका।
मन वहीं स्तम्भ की टेक लगाकर खड़ा रह गया और हमारे शरीर टैंट सिटी के बिस्तरों पर आकर पसर गए। सुबह उठे तो मौसम बदला हुआ था। सूरज की तीखी किरणों पर बादलों की चादर बिछ गई थी। हम नहा-धोकर नाश्ते के लिए चले तो आकाश ने बूंदों के हाथों से हमें छू लिया। हम नाश्ता करके गुप्तहार घाट की ओर रवाना हुए। मौसम ने तीर्थयात्रा को पर्यटन बना दिया था। हमारे होस्ट आशुतोष जी भी हमारे साथ थे। गुप्तहार घाट पर हमने ख़ूब फोटोग्राफी की। सरिता शर्मा जी ने बेर के पेड़ से बेर तोड़कर खाया; भुट्टे, चाय... अहा! आनंद ही आनंद हो रहा था। आशुतोष जी ने एक चायवाले की दुकान में घुसकर अपने हाथ से चाय बनाई। भीगा हुआ मौसम, नदी का किनारा और चाय-पकौड़े... स्वर्ग शायद इसी को कहते हैं।
एक बजते-बजते हम अपने ठिकाने पर लौट आए थे। दोपहर तीन बजे से कवि-सम्मेलन था। सुबह की बारिश की फुहार अब तक झमाझम बन चुकी थी। घनघोर बरसात के कारण सुरक्षा की दृष्टि से टैंट सिटी की लाइट काट दी गई थी। बिना रौशनी के जैसे-तैसे सब कवि सम्मेलन के लिए तैयार हुए। छप-छप पानी और कीचड़ से अपने कपड़े बचाते हुए हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँचे।
कार्यक्रम स्थल पर मुख्य श्रोता स्वरूप राम दरबार का चित्र था। मंच पर विनीत चौहान, डॉ सरिता शर्मा, संजय झाला, पूनम वर्मा, शंभू शिखर, सुनील व्यास, मनीषा शुक्ला, निकुंज शर्मा, सुशांत शर्मा और मुझे मिलाकर कुल दस कवि थे। ऐसा लगता था मानो स्वयं राम जी को कविता सुनाई जा रही हो। सुबह से बरस रहा आकाश अब थम चुका था... बादलों की दीवार को पार करके सूरज की किरणें धरती को दुलार रही थीं। सभी कवियों ने राम शब्द के इर्द-गिर्द काव्यपाठ किया। सबको मन से सुना गया।
कार्यक्रम के बाद सबने भोजन किया और यह तय हुआ कि जो कवि कल दर्शन में उपस्थित नहीं थे, वे आज दर्शन करने जाएंगे। शंभू शिखर, डॉ सरिता शर्मा, संजय झाला, मनीषा शुक्ला और सुशांत शर्मा का कार्यक्रम बनने लगा। मैं और सुनील व्यास दोबारा दर्शन के लालच में इनके साथ हो लिए।
शंभू ने किसी को फोन करके विशेष व्यवस्था करवा ली। इसके कारण आज हमें बहुत पैदल नहीं चलना पड़ा। हम सीधे मुख्य मंदिर के निकट गाड़ी से उतरे और पीछे के रास्ते से रामलला के सम्मुख उपस्थित हो गए। लगभग दस-पंद्रह मिनिट तक बेरोकटोक राम जी को निहारा। न जाने क्यों, आँखें झरना बन गई थीं। ऐसा लगता था किसी ने दृष्टि को बांध लिया था। देह का रोम-रोम आँख बनकर इस अलौकिक रूप को निहारता था। अनवरत देखने पर ऐसा लगता था ज्यों कोई सलोना बालक खिलखिलाकर हँसता हो। मैंने सपत्नीक दर्शन किए। जी हटता ही नहीं था। श्याम पाहन पर राम के अस्तित्व की भंगिमा से विग्रह पर दमकते आभूषण मात खा रहे थे। तिलक पर सजे रत्नों की किरणें सलोने मुखमण्डल को सूर्य बना रही थीं। राजीव लोचन के नयन इतने जीवंत थे कि दृष्टि स्तंभित हो गई थी। दस-पंद्रह मिनिट तक इस रूप को आद्योपांत निहारता रहा। श्याम विग्रह के ठीक नीचे विराजित रामलला का स्वर्णिम स्वरूप भी पलकों में भरकर हम मंदिर से बाहर आ गए।
मैं चमत्कारों में विश्वास नहीं करता हूँ किन्तु सम्मोहन की अनुभूति मुझे दोनों बार हुई। मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ किन्तु ऐसा विश्वास होता है कि उस मूर्ति में कुछ ऐसा है जो अन्यत्र कभी नहीं देखा। देर तक उन्हें निहारने के बाद भी मन मेरे साथ वापस न आ सका।
मंदिर से लौटकर हनुमानगढ़ी की ओर जाने लगे तो सीढ़ियों के बाहर खड़े पुलिसकर्मियों ने शंभू को पहचान लिया। दर्जनों लोग इकट्ठा हो गए। दर्जनों हाथ हवा में लहराकर उत्साह और उत्सव को रिकॉर्ड करने लगे। पुलिसकर्मियों ने भी कविताएं सुनाई। शंभू ने ख़ुद अपने कैमरे से सब रिकार्ड किया। कवियों ने भी चार-चार पंक्तियाँ इस अनियोजित कवि-सम्मेलन में सुनाई। हनुमानजी की सीढ़ियों पर राम जी की कविता हुई।
बरसात रात को फिर सक्रिय हो गई। टैंट पर बूंदों के संगीत के बीच बहुत मीठी नींद ली और सुबह नाश्ता करके हवाई अड्डे की ओर बढ़ आए। देह दिल्ली पहुँच गई है और मन अभी भी साकेत के एक तराशे हुए स्तम्भ से सटकर रामरूप को अपलक निहारे जा रहा है।
- चिराग़ जैन

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