Wednesday, July 24, 2024

विनीत चौहान

सामाजिक व्यवहार में मैच्योरिटी की परिभाषा तलाशता हूँ तो पाता हूँ कि सही और ग़लत का निर्धारण करने से पहले अपने व्यक्तिगत लाभ और हानि का आकलन करने की क्षमता को मैच्योरिटी कहते हैं। यद्यपि यह परिभाषा मैंने स्वयं गढ़ी है, तथापि मैच्योर कहे जानेवाले अधिकतम लोगों को मैंने इस परिभाषा पर खरा उतरते देखा है। मेरा निजी मत यह है कि इस परिभाषा की परवाह न करते हुए सहज आचरण करनेवाले लोग अधिक निश्छल, अधिक प्यारे और अधिक जेनुइन होते हैं। सामान्य भाषा में इनके लिए एक विशेष शब्द प्रयुक्त किया जाता है जो ‘मूर्ख’ शब्द का निकटतम पर्यायवाची है।

मुझे ऐसे तथाकथित मूर्ख अधिक नैतिक और अधिक निस्पृह लगते हैं। मैं अपने ख़ुद के आचरण में इस ‘मूर्खता’ को कई बार आसानी से खोज लेता हूँ। यह सत्य है कि एमैच्योरिटी सामाजिक दृष्टि से असफलता की ओर ले जाती दिखाई देती है लेकिन मुझे ऐसे लोग तथाकथित ‘मैच्योर’ लोगों से अधिक बहादुर लगते हैं।

ऐसे ही एक एमैच्योर व्यक्ति हैं श्री विनीत चौहान। किसी भी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के साथ तैयार। लाभ-हानि का गणित लगाने का अवसर ख़ुद को ही नहीं देते। लड़ते हैं तो पूरी ऊर्जा से, क्योंकि जिस बात के लिए लड़ रहे होते हैं उसको अपने अन्तःकरण से ‘सच’ मान चुके होते हैं। जिसे अपना कह देते हैं, वह यदि उनसे छल भी कर रहा हो तो उसका छल बहुत देर में देख पाते हैं, क्योंकि अपने पूरे अन्तःकरण से उसे अपना मान चुके होते हैं। भावुक इतने कि संवेदना की किसी पंक्ति के पूरा होने से पहले ही आँखों में आँसू डबडबाने लगते हैं। मैंने अनेक अवसरों पर किसी पुरानी याद का संस्मरण सुनाते-सुनाते उनका गला रुंधते देखा है।

आज इस पारदर्शी व्यक्तित्व का जन्मदिन है। हिंदी कवि-सम्मेलन जगत् में मैच्योर लोगों की भीड़ के बीच जिन चंद किरदारों की संगत से मन खिल उठता है, उनमें विनीत जी एक हैं। विनीत जी अलवर से हैं और अलवर मेरी ननिहाल है, इस रिश्ते से मैं उन्हें ‘मामा’ कहकर संबोधित करता हूँ। मामा को ज्यों-ज्यों करीब से देखा, त्यों-त्यों समझ आया कि ‘हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी’ का अर्थ सकारात्मक भी हो सकता है। कितने ही किस्से हैं, जहाँ मामा का व्यक्तित्व अपने ही किसी पुराने व्यवहार के ठीक विपरीत दिखाई देने लगा।

किसी की पीड़ा पर बिलख पड़नेवाला शख़्स जब दुर्घटना में क्षत-विक्षत कविमित्रों को गाड़ी से बाहर निकालने के लिए गाड़ी के शीशे तोड़ता है तो उसके वज्रहृदयी होने के प्रमाण मिलते हैं। किसी की अनैतिकता पर क्रुद्ध हो जानेवाले विनीत चौहान जब किसी की विवशता का विश्लेषण करते हैं तो ऐसा लगता है ज्यों कोई करुण रस का कवि संवेदना की परतों को स्पर्श करना चाह रहा हो। जिनका मन भर आदर करते हैं, उनको भी यदि कहीं ग़लत पाते हैं तो उनसे जी भर कर लड़ लेते हैं।

विनीत चौहान का स्वभाव एक ऐसे संवेदनशील मनुष्य का उदाहरण है, जो मैच्योर सहगामियों के साथ रहकर भी अपनी निस्पृह प्रतिक्रियाओं को मैच्योर बनाने की न तो कभी इच्छा पाल सका, न ही ऐसी कोई आवश्यकता महसूस कर सका।

दोस्ती कैसे निभाई जाती है और दोस्त को साधिकार कैसे टोका जाता है, इस बात को समझना हो तो विनीत चौहान के अपनत्व के दायरे में प्रवेश करके देखिए!

Tuesday, July 23, 2024

बजट 2024

मैंने सरकार से पूछा 
जब एक लाख सालाना आय वाले 
पैसे मांगने आए
तो आप क्या कर लेंगे 
सरकार बोली करना क्या है 
हम उन्हें जॉब देने वालों को 
न्यूनतम वेतन कानून उल्लंघन का 
चार्ज लगाकर धर लेंगे 

हमने पूछा
ये इंटर्नशिप की योजना में तो काफी लोचा है 
क्या आपने सोचा है 
लोग नकली इंटर्नशिप दिखाकर 
पाँच हज़ार रुपये महीने का दावा करेंगे सरकार से 
सरकार ने हमें समझाया प्यार से 
देखो इस स्कीम में सबकी भलाई है 
इसमें बेरोज़गारों के हिस्से छाछ 
और उद्योगपतियों के हिस्से मलाई है 
उद्योगपति नई भर्ती इंटर्नशिप के नाम पर भरेगा 
और 5000 रुपये महीना 
अपने CSR FUND से भरेगा 
नया रंगरूट 5000 रुपये कमाकर लाएगा 
और ख़ुद को बेरोजगार भी नहीं कह पाएगा 
तो हुई ना बात सबके अधिकार की 
CSR उद्योगपति का
Job उद्योगपति की 
और वाहवाही सरकार की 

लेकिन जनाब 
इससे पुराने employee की हालत हो जाएगी ख़राब 
सरकार बोली 
हमने नए रोज़गार देने का वादा किया था 
पुराने रोयेंगे तो उन्हें भी देख लेंगे 
अगले बजट में नयों की पट्टी खोलकर 
पुरानों पर लपेट देंगे।

✍️ चिराग़ जैन 

मध्यम वर्ग की पीड़ा

तुम लड़ते रहे चुनाव, ओ साब
मेरी थाली खाली है रही है

मुझसे टैक्स वसूला जाए, उन्हें चढ़ावा जाए
मैं देकर भी झिड़की खाऊँ, वो खाकर गुर्राए
वो मुझे दिखावें ताव, ओ साब
मेरी जेब मवाली है रही है

मध्यम वर्ग बनाकर मुझको, दोनों ओर निचोड़ा
इन्हें दान दो, उन्हें मान दो, नहीं कहीं का छोड़ा
मेरा बढ़ता रहा अभाव, ओ साब
वहाँ रोज़ दीवाली है रही है

जीएसटी ने पहले सों ही इनकम कम कर राखी
रोड टैक्स देकर भी ससुरा टोल रह गया बाकी
मेरा कैसे होय बचाव, ओ साब
हर दिन बदहाली है रही है।

✍️ चिराग़ जैन 

Wednesday, July 17, 2024

धरती के गहने हैं पेड़

रंग-बिरंगे पत्तोंवाले
धरती के गहने हैं पेड़
मिट्टी के मटमैले तन पर
पृथ्वी ने पहने हैं पेड़

क्यारी में ये फूल खिलाते
ठण्डी-ठण्डी हवा चलाते
धूप चुभे तो छाया लाते
बारिश में छतरी बन जाते

कभी फलों से लदती डाली
कभी फूल लाते ख़ुशहाली
साँस सुहाती गंध निराली
आँखों को भाती हरियाली

इनसे जंगल हर्षाते हैं
बाग़-बगीचे मुस्काते हैं
पेड़ प्रदूषण पी जाते हैं
इस कारण हम जी पाते हैं

✍️ चिराग़ जैन

Monday, July 8, 2024

भरत का परिताप

बोले वशिष्ठ, है व्यथित हृदय, राजा को भू-शायी पाकर
दो कंधे तो बुलवा लाओ, कैकयी के नैहर से जाकर
उन दिनों भरत कुछ विचलित थे, आँखों को स्वप्न अखरता था
कारण तो ज्ञात नहीं था पर, मन के भीतर कुछ गड़ता था
गहरे संबंधों में प्रतिपल, इक तार जुड़ा ही रहता है
तन दूर रहे, फिर भी मन से परिवार जुड़ा ही रहता है
सपनों में अवध उमड़ता था, घिर गए भरत उच्चाटन में
संदेश पहुँचने से पहले, आभास पहुँचता है मन में
अंतस में संशय का ताण्डव, देहरी पर दूत अयोध्या का
सूखे पत्ते-सा काँप गया, वह भावुक पूत अयोध्या का
अनुमान हुआ कैकयी सुत को, संयोग नहीं यह साधारण
पहले तो पूछा कुशल-क्षेम, फिर पूछा आने का कारण
यह दूतकर्म था कठिन बहुत, भीतर का शोक छिपाना था
मातम को मंगल कहना था, स्वामी को झूठ बताना था
घर-नगर चतुर्दिक मंगल है, यह बात अधर जब कहते थे
पिंडलियाँ कंपन करती थीं, आँसू भीतर को बहते थे
हे राजकुँवर गुरु आज्ञा से, आया हूँ तुम्हें बुलाने को
इसके अतिरिक्त नहीं कोई संदेश तुम्हें बतलाने को
चल दिये भरत, ऋपुदमन सहित, निर्बाध दौड़ता था स्यन्दन
स्यन्दन की गति से आशंका और आशा का जारी था रण
जब किया प्रवेश अयोध्या में, गलियों में सन्नाटा देखा
संशय का ज्वार उमड़ आया, और धीरज ने भाटा देखा
जब हम ननिहाल गए थे तब, ऐसा नगरी का रंग न था
हर चौखट इतनी मौन न थी, हर आंगन इतना दंग न था
सबकी आँखों में तिरस्कार, कितना अनभिज्ञ अभागा हूँ
ज्यों सावन का सोया-सोया सीधे पतझर में जागा हूँ
जिस ओर भरत का रथ देखा, मुँह फेर खड़े हो गए लोग
कैकयी सुत ने मन में सोचा, मैं मानुष हूँ या महारोग
ऐसा लगता था खड़ा हुआ है शीश झुकाए राजभवन
कैकयी सुत से आँखें करता था दाँए-बाँए राजभवन
केवल इक सूरत ऐसी थी, जिस पर कण भर अवसाद न था
वैधव्य समाया था तन पर, चेहरे पर तनिक विषाद न था
वसनों का रंग उदास हुआ, सूना था गात कलाई का
कुमकुम, सिंदूर विलुप्त हुए, मुख पर था भाव ढिठाई का
पुलकित होकर बोली कैकयी, अभिनंदन हो स्वीकार भरत
पहले पितु की अंत्येष्टि करो, फिर ग्रहण करो दरबार भरत
मैं हुआ अनाथ, अयोध्या का सूरज यमपुर में डूब गया
ऐसे में माँ का उत्स देखकर हृदय भरत का ऊब गया
ज्ञानी शब्दों से घटना का बस इंगित पाया करता है
भीतर का सच तो वक्ता का आचरण बताया करता है
आश्चर्य क्षुब्ध होकर टूटा, पीड़ा क्रोधित हो चीख पड़ी
माँ को हर्षित क्यों करती है, रघुकुल की ऐसी शोक घड़ी
बोला, माँ ओछा लगता है, यह तेरा हर्ष प्रफुल्लित मन
तूने ही तो दे दिया नहीं इस महाशोक को आमंत्रण
उन्माद परे रखकर सम्भली, वात्सल्य ओढ़ने लगी त्रिया
सुत की आँखों में घृणा देख, भौंहें सिकोड़ने लगी त्रिया
तुझको भी मैं दोषी लगती, ऐसे क्या पाप किये मैंने
राजा पर थे दो वर उधार, अवसर पर मांग लिए मैंने
मेरा बेटा युवराज बने, यह इच्छा तो अपराध नहीं
और राम नहीं वन जाते तो, पूरी होती यह साध नहीं
ये सुनते ही थम गए भरत, जम गई शिरा, खुल गए अधर
लगता था नमक छिड़क डाला कैकयी ने जलते घावों पर
हर रोम लपट बन दहता था, पर्वत-सा टूटा था सिर पर
था क्रोध अधिक या पीर अधिक, यह निश्चय करना था दूभर
नथुने फूले, साँसें धधकी, कर्कश हो गया भरत का स्वर
भीतर जो लावा फूटा था, आ गया अचानक जिह्वा पर
पापिन तूने इन कुलघाती हाथों से क्यों पाला मुझको
जिस दिन जन्मा था उस दिन ही क्यों मार नहीं डाला मुझको
सब करते मेरा तिरस्कार, जाने कैसी छवि अंकित है
तेरी करनी से जग भर में, अब मेरी कीर्ति कलंकित है
देना होगा उत्तर इसका युग-युग तक स्वयं विधाता को
क्यों बन्ध्या नहीं बना डाला, ऐसी हत्यारिन माता को
पति को खाकर आनंदित है, रत्ती भर पश्चाताप नहीं
रघुवंश मुकुट मणिहीन किया, इससे बढ़कर कुछ पाप नहीं
दर्पण तोड़ा है उत्सव का, ममता छल ली पापिन तूने
चरणामृत में विष घोला है, निज जिह्वा से नागिन तूने
चाहता हूँ उसका वध कर दूँ, जिसने यह अत्याचार किया
पर राम त्याग देंगे मुझको, यदि मैंने तुझको मार दिया
इक क्षण आँखें नम होती थी, इक क्षण भृकुटी चढ़ जाती थी
अभिव्यक्त भरत का मन करते, भाषा थोड़ी पड़ जाती थी
मन में जो भाव उमड़ते थे, वे भरत नहीं कह पाते थे
फिर भी जो कहा भरत ने वह सब शब्द नहीं सह पाते थे
चल दिये भरत इतना कहकर, इस द्वार न आऊंगा अब मैं
अपराधिन सुन तेरा यह मुख, फिर देख न पाऊँगा अब मैं
संतति के सुख की चाहत में, नभ-धरा एक कर जाती है
पर बेटा अपमानित कर दे, माता उस क्षण मर जाती है
श्वासों के चलने पर करती संदेह रह गई कैकेयी
जब भरत देहरी लांघ चले, तब देह रह गई कैकेयी
भर गया कण्ठ तक ग्लानिबोध, चलती साँसें दुःख देती थी
रोते-रोते अपने केशों को मुट्ठी में भर लेती थी
हो-होकर व्यथित हथेली से, मुख स्वयं ढाँपने लगती है
उसका दुःख वर्णन करने में लेखनी काँपने लगती है

✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, July 2, 2024

दशरथ का अवसान

घर-घर आनंद उमगता था, युवराज बनेंगे रामचंद्र
साकेत नगर के शासन का सरताज बनेंगे रामचंद्र
धरती पर हरियाली छायी, आकाश मुदित होकर झूमा
उत्सव के मधुरिम झोंकों ने, सरयू की लहरों को चूमा
सूरज के हाथों धरती पर सोना बरसाया जाता था
उपवन के हाथों मारुत में, मकरंद मिलाया जाता था

इस घड़ी तनिक मंथर गति से किस्से में आया कोपभवन
सुख के साकेती महलों में, किसने बनवाया कोपभवन
उत्सव की चाल बिगाड़ गया, कुब्जा का जाया कोपभवन
धरती-अम्बर ने सुख पाया, कैकयी ने पाया कोपभवन

सौन्दर्य कुपित होकर बिखरा, उत्सव का रंग उदास हुआ
कैकयी की बुद्धि हुई दूषित, चंदन में विष का वास हुआ
जिस अवधपुरी को कोई भी दल-बल से जीत नहीं पाया
उस नगरी का भी सहजोत्सव, क्यों सुख से बीत नहीं पाया
इक ओर धरा से अम्बर तक, उत्साहित पवन चहकता था
इक ओर कहीं अंतःपुर में, रानी का हृदय दहकता था

दशरथ अनभिज्ञ रहे इससे, घर के भीतर क्या क्लेश पले
राजा को छोड़, पिता बनकर; अंतःपुर को अवधेश चले
चलते-चलते दौड़े दशरथ, आनन्द कुलाचें भरता था
नयनों से हर्ष प्रवाहित था, तन से आगे मन चलता था
सोचा दशरथ ने जब घर में यह बात कहेगा रामपिता
कैकयी, कौशल्या रीझेंगी, आनंद मनाएगी सुमिता
जब मैं जाकर अंतःपुर को यह शुभ संदेश सुनाऊंगा
सबके चेहरे खिल जाएंगे, मैं इतराकर मुस्काऊंगा

लेकिन अंतःपुर पहुँचे तो, दशरथ का चेहरा क्लांत हुआ
मानस का मौसम खिन्न हुआ, राजा का मन विश्रांत हुआ
कैकयी की देहरी की रंगत, कुछ भूखी-प्यासी बैठी थी
उत्सव के कलरव से छिपकर, इस ओर उदासी बैठी थी
राजा ने भीतर झाँका तो, आश्चर्य जगाता चित्र मिला
कैकयी का मुख निस्तेज मिला, पूरा परिदृश्य विचित्र मिला
रानी की आँखों के नीचे, बहते काजल के घेरे थे
शृंगार ध्वस्त, सब अस्त-व्यस्त, रानी ने हाल बिखेरे थे
गिरकर आनंद हिंडोले से, पीड़ा में लिपट गया कोई
मानो उड़ने से पहले ही, घबराकर सिमट गया कोई

आश्चर्य कण्ठ तक भर आया, दशरथ ने पूछा रानी से
बोलो क्या ठेस लगी तुमको, किस दासी की मनमानी से
किस पापी ने सागर जैसी आँखों में आँसू बोए हैं
किसके कारण ये रतनारे नैना सारा दिन रोए हैं
हो गये विह्वल व्याकुल राजा, ना मानी त्रिया मनाने पर
कैकयी को भान हुआ तत्क्षण, पहुँचा है तीर निशाने पर
पीड़ित प्रेमी की पीड़ा पर, आघात किया विकराल; कहा
रूठी रानी ने दशरथ की आँखों में आँखें डाल कहा
दो वचन उधार रहे तुम पर, क्या है ये तुमको ध्यान अभी
मुझको देने होंगे तुमको, वो दोनों ही वरदान अभी

ये बात सुनी तो सहज हुए, फिर थोड़ा मुस्काये राजा
पर्वत को राई मान लिया, रानी के नियर आये राजा
बस इतनी-सी है बात और तुम मुँह लटकाये बैठी हो
वरदान चार मांगों रानी, तुम दो गिनवाये बैठी हो
सागर से सारे रत्न छीन आभूषण गढ़वा दूँ, बोलो
या फिर सारे नक्षत्र निकर, चरणों में चढ़वा दूँ, बोलो
तुम कहो, सुरों के हाथों से अमृत का घट ले सकता हूँ
ऐसा क्या है इस दुनिया में, जो तुम्हें नहीं दे सकता हूँ
यदि चाहो तो इस क्षण मेरे प्राणों पर फंदा कस दो तुम
लेकिन ऐसे रूठी न रहो, इक बार प्रियतमा हँस दो तुम

अवसर का मूल्यांकन करके, राजा को रण में घेर कहा
स्वर को मीठा करके बोली, पति के मन पर कर फेर कहा
बस दो अभिलाषा पूर्ण करो, जिससे मुझको कुछ श्वास मिले
हो जाय भरत का राजतिलक, और राघव को वनवास मिले

सुनते ही सन्न हुए दशरथ, कैकयी का मुख क्या बोल गया
ऐसा लगता था कोकिल स्वर, कानों में सीसा घोल गया
कातिक की शीतल संध्या में, भीगा था दशरथ का मस्तक
शुभ राजतिलक की बेला में, अनहोनी ने दी थी दस्तक

रानी तुमने ये क्या मांगा, क्या इसीलिए सब स्वांग किया
मैंने जीवन का नाम लिया और तुमने जीवन मांग लिया
पूरा उपवन मत नष्ट करो, क्यारी से पुष्प भले बीनो
चाहे मेरा सब कुछ ले लो, पर मुझसे राम नहीं छीनो

कैकयी को अपयश मिलना था, वह सुख की राह कहाँ चुनती
थे कान भरे पहले से ही, दशरथ की बात कहाँ सुनती
नारी ने हठ धारण की थी, अनुनय अपमानित होनी थी
करुणा को ठेस पहुँचनी थी, आशा की आँखें रोनी थी

क्रोधित होकर बोली कैकयी, मत झूठे गाल बजाओ तुम
या अपने वचन करो पूरे, या फिर अपयश को पाओ तुम
कल सुबह अगर वल्कल धारे, वनगमन नहीं कर गए राम
तो समझो मरण कैकयी का, रघुवंश कीर्ति की ढली शाम
इतना सुनते ही दशरथ की आँखों में उतर गई संध्या
रानी के निष्ठुर वचनों की ठोकर से बिखर गई संध्या

थककर धरती पर गिरा धैर्य, निरुपाय बिलखते थे दशरथ
कैकयी के चेहरे पर उतरी रजनी को तकते थे दशरथ
फिर बोले चांद-सितारों से, तुम रघुकुल की पीड़ा हरना
यह रात बीतने मत देना, हे सूर्य सवेरा मत करना
आँसू का अर्घ्य चढ़ाने से कब कालचक्र ने सुनी बात
कैकयी की लंबी हुई रात, दशरथ को छोटी लगी रात
उस दिन सूरज की किरणों से अंधियारी होती थी धरती
जनता के आँसू पी-पीकर, कुछ खारी होती थी धरती

दशरथ बेसुध आँखें मूंदे, सहते थे जग भर का विषाद
प्रिय राम चले वल्कल धारे, लक्ष्मण और सीता हुए साथ
सब साज त्याग वन को जाते, महलों ने देखे रामचंद्र
क्यों बढ़कर काट नहीं देते, विधिना के लेखे रामचंद्र

राघव के बिन वे कनक महल, यह दृश्य बनाते थे मन में
नगरी की पार्थिव देह पड़ी, और जीव जा रहा था वन में
वैभव ने वन की राह धरी, सौभाग्य नगर का फूट गया
बह गए तीन दीपक जल में, पीछे अँधियारा छूट गया
इतना सुख क्यों दे दिया ईश, इक नगर सुखों से ऊब गया
बस एक रात की कालिख में, सारा उजियारा डूब गया

मूर्च्छा टूटी दशरथ जागे, फिर चिर निद्रा में लीन हुए
त्रैलोक्य विजेता, गृहक्लेशों के कारण प्राणविहीन हुए
दशरथ की माटी कहती थी, ना मूल बचा, ना ब्याज बना
ले कैकयी अपने बेटे को युवराज नहीं, महाराज बना
बरसों पहले का अनजाना इक पाप ले गया दशरथ को
दो नेत्रहीन निर्दोषों का अभिशाप ले गया दशरथ को

✍️ चिराग़ जैन