घर-घर आनंद उमगता था, युवराज बनेंगे रामचंद्र
साकेत नगर के शासन का सरताज बनेंगे रामचंद्र
धरती पर हरियाली छायी, आकाश मुदित होकर झूमा
उत्सव के मधुरिम झोंकों ने, सरयू की लहरों को चूमा
सूरज के हाथों धरती पर सोना बरसाया जाता था
उपवन के हाथों मारुत में, मकरंद मिलाया जाता था
इस घड़ी तनिक मंथर गति से किस्से में आया कोपभवन
सुख के साकेती महलों में, किसने बनवाया कोपभवन
उत्सव की चाल बिगाड़ गया, कुब्जा का जाया कोपभवन
धरती-अम्बर ने सुख पाया, कैकयी ने पाया कोपभवन
सौन्दर्य कुपित होकर बिखरा, उत्सव का रंग उदास हुआ
कैकयी की बुद्धि हुई दूषित, चंदन में विष का वास हुआ
जिस अवधपुरी को कोई भी दल-बल से जीत नहीं पाया
उस नगरी का भी सहजोत्सव, क्यों सुख से बीत नहीं पाया
इक ओर धरा से अम्बर तक, उत्साहित पवन चहकता था
इक ओर कहीं अंतःपुर में, रानी का हृदय दहकता था
दशरथ अनभिज्ञ रहे इससे, घर के भीतर क्या क्लेश पले
राजा को छोड़, पिता बनकर; अंतःपुर को अवधेश चले
चलते-चलते दौड़े दशरथ, आनन्द कुलाचें भरता था
नयनों से हर्ष प्रवाहित था, तन से आगे मन चलता था
सोचा दशरथ ने जब घर में यह बात कहेगा रामपिता
कैकयी, कौशल्या रीझेंगी, आनंद मनाएगी सुमिता
जब मैं जाकर अंतःपुर को यह शुभ संदेश सुनाऊंगा
सबके चेहरे खिल जाएंगे, मैं इतराकर मुस्काऊंगा
लेकिन अंतःपुर पहुँचे तो, दशरथ का चेहरा क्लांत हुआ
मानस का मौसम खिन्न हुआ, राजा का मन विश्रांत हुआ
कैकयी की देहरी की रंगत, कुछ भूखी-प्यासी बैठी थी
उत्सव के कलरव से छिपकर, इस ओर उदासी बैठी थी
राजा ने भीतर झाँका तो, आश्चर्य जगाता चित्र मिला
कैकयी का मुख निस्तेज मिला, पूरा परिदृश्य विचित्र मिला
रानी की आँखों के नीचे, बहते काजल के घेरे थे
शृंगार ध्वस्त, सब अस्त-व्यस्त, रानी ने हाल बिखेरे थे
गिरकर आनंद हिंडोले से, पीड़ा में लिपट गया कोई
मानो उड़ने से पहले ही, घबराकर सिमट गया कोई
आश्चर्य कण्ठ तक भर आया, दशरथ ने पूछा रानी से
बोलो क्या ठेस लगी तुमको, किस दासी की मनमानी से
किस पापी ने सागर जैसी आँखों में आँसू बोए हैं
किसके कारण ये रतनारे नैना सारा दिन रोए हैं
हो गये विह्वल व्याकुल राजा, ना मानी त्रिया मनाने पर
कैकयी को भान हुआ तत्क्षण, पहुँचा है तीर निशाने पर
पीड़ित प्रेमी की पीड़ा पर, आघात किया विकराल; कहा
रूठी रानी ने दशरथ की आँखों में आँखें डाल कहा
दो वचन उधार रहे तुम पर, क्या है ये तुमको ध्यान अभी
मुझको देने होंगे तुमको, वो दोनों ही वरदान अभी
ये बात सुनी तो सहज हुए, फिर थोड़ा मुस्काये राजा
पर्वत को राई मान लिया, रानी के नियर आये राजा
बस इतनी-सी है बात और तुम मुँह लटकाये बैठी हो
वरदान चार मांगों रानी, तुम दो गिनवाये बैठी हो
सागर से सारे रत्न छीन आभूषण गढ़वा दूँ, बोलो
या फिर सारे नक्षत्र निकर, चरणों में चढ़वा दूँ, बोलो
तुम कहो, सुरों के हाथों से अमृत का घट ले सकता हूँ
ऐसा क्या है इस दुनिया में, जो तुम्हें नहीं दे सकता हूँ
यदि चाहो तो इस क्षण मेरे प्राणों पर फंदा कस दो तुम
लेकिन ऐसे रूठी न रहो, इक बार प्रियतमा हँस दो तुम
अवसर का मूल्यांकन करके, राजा को रण में घेर कहा
स्वर को मीठा करके बोली, पति के मन पर कर फेर कहा
बस दो अभिलाषा पूर्ण करो, जिससे मुझको कुछ श्वास मिले
हो जाय भरत का राजतिलक, और राघव को वनवास मिले
सुनते ही सन्न हुए दशरथ, कैकयी का मुख क्या बोल गया
ऐसा लगता था कोकिल स्वर, कानों में सीसा घोल गया
कातिक की शीतल संध्या में, भीगा था दशरथ का मस्तक
शुभ राजतिलक की बेला में, अनहोनी ने दी थी दस्तक
रानी तुमने ये क्या मांगा, क्या इसीलिए सब स्वांग किया
मैंने जीवन का नाम लिया और तुमने जीवन मांग लिया
पूरा उपवन मत नष्ट करो, क्यारी से पुष्प भले बीनो
चाहे मेरा सब कुछ ले लो, पर मुझसे राम नहीं छीनो
कैकयी को अपयश मिलना था, वह सुख की राह कहाँ चुनती
थे कान भरे पहले से ही, दशरथ की बात कहाँ सुनती
नारी ने हठ धारण की थी, अनुनय अपमानित होनी थी
करुणा को ठेस पहुँचनी थी, आशा की आँखें रोनी थी
क्रोधित होकर बोली कैकयी, मत झूठे गाल बजाओ तुम
या अपने वचन करो पूरे, या फिर अपयश को पाओ तुम
कल सुबह अगर वल्कल धारे, वनगमन नहीं कर गए राम
तो समझो मरण कैकयी का, रघुवंश कीर्ति की ढली शाम
इतना सुनते ही दशरथ की आँखों में उतर गई संध्या
रानी के निष्ठुर वचनों की ठोकर से बिखर गई संध्या
थककर धरती पर गिरा धैर्य, निरुपाय बिलखते थे दशरथ
कैकयी के चेहरे पर उतरी रजनी को तकते थे दशरथ
फिर बोले चांद-सितारों से, तुम रघुकुल की पीड़ा हरना
यह रात बीतने मत देना, हे सूर्य सवेरा मत करना
आँसू का अर्घ्य चढ़ाने से कब कालचक्र ने सुनी बात
कैकयी की लंबी हुई रात, दशरथ को छोटी लगी रात
उस दिन सूरज की किरणों से अंधियारी होती थी धरती
जनता के आँसू पी-पीकर, कुछ खारी होती थी धरती
दशरथ बेसुध आँखें मूंदे, सहते थे जग भर का विषाद
प्रिय राम चले वल्कल धारे, लक्ष्मण और सीता हुए साथ
सब साज त्याग वन को जाते, महलों ने देखे रामचंद्र
क्यों बढ़कर काट नहीं देते, विधिना के लेखे रामचंद्र
राघव के बिन वे कनक महल, यह दृश्य बनाते थे मन में
नगरी की पार्थिव देह पड़ी, और जीव जा रहा था वन में
वैभव ने वन की राह धरी, सौभाग्य नगर का फूट गया
बह गए तीन दीपक जल में, पीछे अँधियारा छूट गया
इतना सुख क्यों दे दिया ईश, इक नगर सुखों से ऊब गया
बस एक रात की कालिख में, सारा उजियारा डूब गया
मूर्च्छा टूटी दशरथ जागे, फिर चिर निद्रा में लीन हुए
त्रैलोक्य विजेता, गृहक्लेशों के कारण प्राणविहीन हुए
दशरथ की माटी कहती थी, ना मूल बचा, ना ब्याज बना
ले कैकयी अपने बेटे को युवराज नहीं, महाराज बना
बरसों पहले का अनजाना इक पाप ले गया दशरथ को
दो नेत्रहीन निर्दोषों का अभिशाप ले गया दशरथ को
✍️ चिराग़ जैन
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