दो कंधे तो बुलवा लाओ, कैकयी के नैहर से जाकर
उन दिनों भरत कुछ विचलित थे, आँखों को स्वप्न अखरता था
कारण तो ज्ञात नहीं था पर, मन के भीतर कुछ गड़ता था
गहरे संबंधों में प्रतिपल, इक तार जुड़ा ही रहता है
तन दूर रहे, फिर भी मन से परिवार जुड़ा ही रहता है
सपनों में अवध उमड़ता था, घिर गए भरत उच्चाटन में
संदेश पहुँचने से पहले, आभास पहुँचता है मन में
अंतस में संशय का ताण्डव, देहरी पर दूत अयोध्या का
सूखे पत्ते-सा काँप गया, वह भावुक पूत अयोध्या का
अनुमान हुआ कैकयी सुत को, संयोग नहीं यह साधारण
पहले तो पूछा कुशल-क्षेम, फिर पूछा आने का कारण
यह दूतकर्म था कठिन बहुत, भीतर का शोक छिपाना था
मातम को मंगल कहना था, स्वामी को झूठ बताना था
घर-नगर चतुर्दिक मंगल है, यह बात अधर जब कहते थे
पिंडलियाँ कंपन करती थीं, आँसू भीतर को बहते थे
हे राजकुँवर गुरु आज्ञा से, आया हूँ तुम्हें बुलाने को
इसके अतिरिक्त नहीं कोई संदेश तुम्हें बतलाने को
चल दिये भरत, ऋपुदमन सहित, निर्बाध दौड़ता था स्यन्दन
स्यन्दन की गति से आशंका और आशा का जारी था रण
जब किया प्रवेश अयोध्या में, गलियों में सन्नाटा देखा
संशय का ज्वार उमड़ आया, और धीरज ने भाटा देखा
जब हम ननिहाल गए थे तब, ऐसा नगरी का रंग न था
हर चौखट इतनी मौन न थी, हर आंगन इतना दंग न था
सबकी आँखों में तिरस्कार, कितना अनभिज्ञ अभागा हूँ
ज्यों सावन का सोया-सोया सीधे पतझर में जागा हूँ
जिस ओर भरत का रथ देखा, मुँह फेर खड़े हो गए लोग
कैकयी सुत ने मन में सोचा, मैं मानुष हूँ या महारोग
ऐसा लगता था खड़ा हुआ है शीश झुकाए राजभवन
कैकयी सुत से आँखें करता था दाँए-बाँए राजभवन
केवल इक सूरत ऐसी थी, जिस पर कण भर अवसाद न था
वैधव्य समाया था तन पर, चेहरे पर तनिक विषाद न था
वसनों का रंग उदास हुआ, सूना था गात कलाई का
कुमकुम, सिंदूर विलुप्त हुए, मुख पर था भाव ढिठाई का
पुलकित होकर बोली कैकयी, अभिनंदन हो स्वीकार भरत
पहले पितु की अंत्येष्टि करो, फिर ग्रहण करो दरबार भरत
मैं हुआ अनाथ, अयोध्या का सूरज यमपुर में डूब गया
ऐसे में माँ का उत्स देखकर हृदय भरत का ऊब गया
ज्ञानी शब्दों से घटना का बस इंगित पाया करता है
भीतर का सच तो वक्ता का आचरण बताया करता है
आश्चर्य क्षुब्ध होकर टूटा, पीड़ा क्रोधित हो चीख पड़ी
माँ को हर्षित क्यों करती है, रघुकुल की ऐसी शोक घड़ी
बोला, माँ ओछा लगता है, यह तेरा हर्ष प्रफुल्लित मन
तूने ही तो दे दिया नहीं इस महाशोक को आमंत्रण
उन्माद परे रखकर सम्भली, वात्सल्य ओढ़ने लगी त्रिया
सुत की आँखों में घृणा देख, भौंहें सिकोड़ने लगी त्रिया
तुझको भी मैं दोषी लगती, ऐसे क्या पाप किये मैंने
राजा पर थे दो वर उधार, अवसर पर मांग लिए मैंने
मेरा बेटा युवराज बने, यह इच्छा तो अपराध नहीं
और राम नहीं वन जाते तो, पूरी होती यह साध नहीं
ये सुनते ही थम गए भरत, जम गई शिरा, खुल गए अधर
लगता था नमक छिड़क डाला कैकयी ने जलते घावों पर
हर रोम लपट बन दहता था, पर्वत-सा टूटा था सिर पर
था क्रोध अधिक या पीर अधिक, यह निश्चय करना था दूभर
नथुने फूले, साँसें धधकी, कर्कश हो गया भरत का स्वर
भीतर जो लावा फूटा था, आ गया अचानक जिह्वा पर
पापिन तूने इन कुलघाती हाथों से क्यों पाला मुझको
जिस दिन जन्मा था उस दिन ही क्यों मार नहीं डाला मुझको
सब करते मेरा तिरस्कार, जाने कैसी छवि अंकित है
तेरी करनी से जग भर में, अब मेरी कीर्ति कलंकित है
देना होगा उत्तर इसका युग-युग तक स्वयं विधाता को
क्यों बन्ध्या नहीं बना डाला, ऐसी हत्यारिन माता को
पति को खाकर आनंदित है, रत्ती भर पश्चाताप नहीं
रघुवंश मुकुट मणिहीन किया, इससे बढ़कर कुछ पाप नहीं
दर्पण तोड़ा है उत्सव का, ममता छल ली पापिन तूने
चरणामृत में विष घोला है, निज जिह्वा से नागिन तूने
चाहता हूँ उसका वध कर दूँ, जिसने यह अत्याचार किया
पर राम त्याग देंगे मुझको, यदि मैंने तुझको मार दिया
इक क्षण आँखें नम होती थी, इक क्षण भृकुटी चढ़ जाती थी
अभिव्यक्त भरत का मन करते, भाषा थोड़ी पड़ जाती थी
मन में जो भाव उमड़ते थे, वे भरत नहीं कह पाते थे
फिर भी जो कहा भरत ने वह सब शब्द नहीं सह पाते थे
चल दिये भरत इतना कहकर, इस द्वार न आऊंगा अब मैं
अपराधिन सुन तेरा यह मुख, फिर देख न पाऊँगा अब मैं
संतति के सुख की चाहत में, नभ-धरा एक कर जाती है
पर बेटा अपमानित कर दे, माता उस क्षण मर जाती है
श्वासों के चलने पर करती संदेह रह गई कैकेयी
जब भरत देहरी लांघ चले, तब देह रह गई कैकेयी
भर गया कण्ठ तक ग्लानिबोध, चलती साँसें दुःख देती थी
रोते-रोते अपने केशों को मुट्ठी में भर लेती थी
हो-होकर व्यथित हथेली से, मुख स्वयं ढाँपने लगती है
उसका दुःख वर्णन करने में लेखनी काँपने लगती है
✍️ चिराग़ जैन
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