Monday, February 12, 2007

मूल से कटकर

एक दिन
पीपल के पत्तों को
हवा ने बरगलाया!
फिर शरारत से भरे लहजे में
उनका गात छूकर
कान में यूँ फुसफुसाया-

"तुमको अंदाज़ा नहीं
क्या रूप है तुमको मिला
इस नाकारा पेड़ की
शोभा के तुम आधार
तुम जो चाहो तो हवाएँ ले चलें तुमको
दूर परियों के सुनहरे देस
अम्बर पार!
ये ख़नकती देह धर कर भी
भला क्योंकर
ढो रहे हो बोझ तुम इस ठूठ का बेकार
वृक्ष की तो ज़िन्दगी है
जड़, अचल, लाचार
तुम भला क्यों झेलते हो
ये नियति की मार?

बादलों की पालकी पर बैठकर हम-तुम
छोर नापेंगे धरा के
और गगन के आज
मैं बहूंगी
हाथ मेरा थाम लेना तुम
फिर करेंगे हम जहाँ के हर चमन पर राज।"

कुछ ने सुनकर अनसुनी कर दी
हवा की बात
और कुछ कमज़र्फ़
बह निकले हवा के साथ।
पर बढ़े वे थामने को जब हवा का हाथ
सब हवाई बात निकली कुछ न आया हाथ।
छू तलक पाए नहीं पत्ते
हवा का छोर
और हवा हौले से बह निकली
गगन की ओर।

आ गिरे धरती पे
जो थे फुनगियों के ताज
सरगमों पर छा गई
इक कर्कशी आवाज़।
क्या इसी को बोलते हैं सब ‘समय का फेर’
जो ख़नकते थे, वो हैं अब एक सूखा ढेर
स्वप्न वो देखें गगन के और परिस्तां के
जो न हो पाए सगे अपने गुलिस्तां के
मूल से छूटें तो जीवन को तरसते हैं
और जुड़ कर पेड़ से पत्ते खनकते हैं

अब कोई झोंका हवा का
जब कभी भी छेड़ जाता है
तड़पते हैं सूखे पत्ते
और पीपल खिलखिलाता है।

© चिराग़ जैन

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