अविश्वास
कभी भी
किसी भी सम्बन्ध से।
केवल
ढँक लेती हैं उसे
प्रेम, अपनत्व, सौहार्द
और नेह की परतें
...किसी-किसी सम्बन्ध में
...कुछ समय के लिए।
शायद इसीलिए
प्रकट हो जाता है दोबारा
प्रेम का पर्दा गिरते ही!
दृश्य बदलते ही
नेपथ्य से निकल
चला आता है मंच पर
कभी घृणा
तो कभी शत्रुता का
रूप धर कर
....उफ़!
कितने सारे संवाद
याद रहते हैं इसे!!
© चिराग़ जैन
कितने सारे संवाद
याद रहते हैं इसे!!
© चिराग़ जैन
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