Friday, April 12, 2013

नेह का दर्प

प्रेम की धारा में तुम निर्बाध बह पाते
काश मुझसे एक पल तुम सत्य कह पाते

जब कोई अपनत्व था चरितार्थ तुममें
जब कभी जागा हो कोई स्वार्थ तुममें
क्यों मेरा संकोच बदला आग्रहों में
कौन सा अधिकार था उनकी तहों में
काश उस मनुहार का तुम अर्थ गह पाते

जब किसी घटना से आहत हो गया मन
जब क्षणिक आवेश में रत हो गया मन
जब मेरे मन में घना विक्षोभ जागा
जब मेरी वाणी ने तुम पर क्रोध दागा
काश मेरे नेह का तुम दर्प सह पाते 

© चिराग़ जैन


Tuesday, April 9, 2013

तुम हमेशा
मुझे दोषी ठहराती हो
कि मैं अपने रिश्तों में
उम्मीदें बहुत रखता हूँ

लेकिन समझ नहीं पाता हूँ मैं
कि उम्मीद के बिना
निभ ही कैसे सकता है
कोई रिश्ता

.....उम्मीद के बिना तो
दान तक नहीं दिया जाता!

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 2, 2013

कम्मो मिल गई बीच बाज़ार

कम्मो मिल गई बीच बाज़ार
बीवी लड़ने कू तैयार

कम्मो ने मुस्का कर देखा
बीवी हो गई ढोल
चार दिनां से बोल रही ना
हमसे मीठो बोल
कम्मो ही बढ़िया थी यार

कम्मो मिली मगर की हमने
एक न मन की बात
एक तरफ बीवी लतियाये
एक तरफ जज़्बात
फिर से जागा सोया प्यार

ऐसी मिली घड़ी भर कम्मो
खड़ी हो गई खाट
बीवी मुँह फेरे लेटी है
घर के रहे न घाट
हमपे पड़ी दुतरफ़ा मार

हाल चाल तक पूछ न पाए
मुफ्त हुए बदनाम
कम्मो छूटी, बीवी रूठी
माया मिली न राम
उल्टे गले पड़ गई राड़

कर-कर हार गए मनुहार 
कम्मो मिल गई बीच बाज़ार 
अब तो डाल दिए हथियार
कम्मो मिल गई बीच बाज़ार 

© चिराग़ जैन