Friday, April 12, 2013

नेह का दर्प

प्रेम की धारा में तुम निर्बाध बह पाते
काश मुझसे एक पल तुम सत्य कह पाते

जब कोई अपनत्व था चरितार्थ तुममें
जब कभी जागा हो कोई स्वार्थ तुममें
क्यों मेरा संकोच बदला आग्रहों में
कौन सा अधिकार था उनकी तहों में
काश उस मनुहार का तुम अर्थ गह पाते

जब किसी घटना से आहत हो गया मन
जब क्षणिक आवेश में रत हो गया मन
जब मेरे मन में घना विक्षोभ जागा
जब मेरी वाणी ने तुम पर क्रोध दागा
काश मेरे नेह का तुम दर्प सह पाते 

© चिराग़ जैन


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