बूंद बारिश की उसको छूती है
मन मेरा ज़ार-ज़ार जलता है
मैं उसे प्यार करूं तो बेहतर
और लोगों का प्यार खलता है
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Tuesday, November 19, 2013
जलन
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मुक्तक
Sunday, November 17, 2013
गीत विरह के
जाने क्या-क्या सह के लिक्खे
ये जो गीत विरह के लिक्खे
मेरा तो बस नाम लिखा है
तूने मुझमें रह के लिक्खे
© चिराग़ जैन
ये जो गीत विरह के लिक्खे
मेरा तो बस नाम लिखा है
तूने मुझमें रह के लिक्खे
© चिराग़ जैन
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मुक्तक
Saturday, November 9, 2013
हरसिंगार
तुमसे सिंचित कली
हौले-हौले खिली
चहकी ...महकी
इतराने लगी।
हवाओं में
बिखरने लगी उसकी ख़ुश्बू।
...अरे!
हौले-हौले खिली
चहकी ...महकी
इतराने लगी।
हवाओं में
बिखरने लगी उसकी ख़ुश्बू।
...अरे!
तुम रूठ क्यों गए हरसिंगार?
काॅम्प्लेक्स में आ गए हो क्या?
बर्दाश्त न हुई
अपने जने की ख़ुश्बू?
भार लगने लगा
अपना ही अंश?
तुम्हारी तो कीर्ति ही बढ़ाता था!
वरना कौन देखता था तुम्हारी ओर?
तुमने उसे ही गिरा दिया
ज़मीन पर!
देखो कैसा बिछ गया है बेचारा!
अनवरत निहारता
तुम्हारी ओर।
तुम मुँह फेरे खड़े हो!
ठूँठ कहीं के!
© चिराग़ जैन
काॅम्प्लेक्स में आ गए हो क्या?
बर्दाश्त न हुई
अपने जने की ख़ुश्बू?
भार लगने लगा
अपना ही अंश?
तुम्हारी तो कीर्ति ही बढ़ाता था!
वरना कौन देखता था तुम्हारी ओर?
तुमने उसे ही गिरा दिया
ज़मीन पर!
देखो कैसा बिछ गया है बेचारा!
अनवरत निहारता
तुम्हारी ओर।
तुम मुँह फेरे खड़े हो!
ठूँठ कहीं के!
© चिराग़ जैन
Tuesday, November 5, 2013
आग्रह
आग्रह एक जंक्शन है
यहाँ से संबंध
बदल सकता है गाड़ी...
घृणा के लिए भी
घनिष्ठता के लिए भी
विस्तार के लिए
घुटन के लिए भी...
हर जगह की गाड़ी है हुज़ूर
आपको कहाँ का
टिकट चाहिए?
© चिराग़ जैन
यहाँ से संबंध
बदल सकता है गाड़ी...
घृणा के लिए भी
घनिष्ठता के लिए भी
विस्तार के लिए
घुटन के लिए भी...
हर जगह की गाड़ी है हुज़ूर
आपको कहाँ का
टिकट चाहिए?
© चिराग़ जैन
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