Thursday, November 6, 2014

पलकों के भीतर

बंद पलकों के तले
आँखों के निचले बिस्तरे पर
जब मेरी दो पुतलियाँ
आराम करती हैं।

तब लगाकर कामना के पंख
पहरों तक विचरता है मेरा मन
बस तुम्हारे पास।

तुम्हें 
अपलक निरखता है

उसे तुम भी
कभी नज़रें हटाने को नहीं कहतीं!

जब बढ़ाकर हाथ
छू लेती है तुमको कल्पना
तब चौंक कर
तुम कब झटकती हो उसे

उस पल
महज मुस्कान होती है
तुम्हारे नूर में

वो भी
शरारत से भरी
और प्यार से लबरेज।

लो, तुम्हें खुलकर बताता हूँ
मुझे पलकों के बाहर
तुम कभी अच्छी नहीं लगती।

बेतहाशा बंधनों की वादियों में
कामनाओं की नदी
अच्छी नहीं लगती।

नियम
सीमाएँ
मर्यादा
रिवाज़ो-रस्म
-इन सबसे परे

जब प्रेम की उन्मुक्त देहरी पर
छलकती है लहर
बेलौस चाहत की

(जहाँ तुम सिर्फ़ तुम होती हो
और मैं सिर्फ़ मैं)

उस ठौर पर
आकण्ठ तुमसे
प्रेम में संलग्न होता हूँ

जहाँ तुम मुझमें होती हो
जहाँ मैं तुममें होता हूँ।!

© चिराग़ जैन

No comments:

Post a Comment