विषय लज्जा से कहीं आगे निकल चला है। एक शब्द पकड़ कर उसका कैसा-कैसा प्रयोग किया जा सकता है ये सच पिछले दो दिन में बेहद घृणास्पद चेहरे के साथ बार-बार सामने से गुज़रा है। अफ़वाह तंत्र कितना शक्तिशाली और भयावह है, इस बात के प्रमाण पिछ्ले 48 घंटों से अनवरत मिलते जा रहे हैं।
उन्माद इस देश की अराजकतावादी शक्तियों के हाथ का वो तुरुप का इक्का है जो किसी भी बाज़ी को पलटकर रख देता है। किसी बहस के प्राणतत्व को धूमिल करना हो तो उसे धर्म और सम्प्रदाय के अखाड़े में लिये चलो। किसी को कठघरे में खड़ा करके उसकी निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह जड़ देना इन अखाड़ों के लिये खेल-तमाशों जैसा है।
स्थितियाँ यहाँ तक विद्रूप हो गई हैं कि बलात्कारी को गाली देने से पहले यह देखा जाने लगा है कि कहीं वह हमारे धर्म का तो नहीं। और अगर वह हमारे धर्म का नहीं है तो यह जानना कतई ज़रूरी नहीं रह जाता कि उसने अपराध किया भी है या उसे फँसाया जा रहा है। किसी मदरसे में हुए जुर्म का ख़ुलासा हुआ तो हिंदू नाचने लगे, किसी भगवावेशी को अपराध में संलिप्त पाया तो मुस्लिमों के लाउड स्पीकरों का वॉल्यूम बढ़ गया।
हम अपने हिंदू की करतूत पर पर्दा डालने के लिये उनके मुस्लिम गुनहगारों की सनद पेश कर दें और वो अपने उलेमा की वहशत को छुपाने के लिये आशाराम और राधे माँ का नाम लेकर खींस निपोरने लगें।
मदरसे मुस्लिम हैं, गुरुकुल हिन्दू हैं। उर्दू मुस्लिम है, संस्कृत हिंदू है। शायरी मुस्लिम है, कविता हिन्दू है। नमाज़ मुस्लिम है, आरती हिंदू है। गुनाह मुस्लिम है, अपराध हिन्दू है। हमने कुछ शाब्दिक अनुवादों को अपने उन्माद का आधार बना डाला। ये कांग्रेस, ये भाजपा, ये सपा, ये बसपा, ये शिवसेना… इन सबका कोई धर्म है क्या। ये सब सियासी खरबूजे के हिस्सेदार हैं। अख़्लाक़ के घर कौन आँसू बहाने पहुँचा, कौन उस मुद्दे पर चुप रहा, किसने उस परिवार के ज़ख़्मों पर नमक डाला; इन सब प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिये चश्मे उतारने होंगे।
बेचारी गाय, इस पुरानी लड़ाई का नया चेहरा बनने जा रही है। खेत में जब गाय घुस जाती है तो उसके पीछे लट्ठ लेकर दौड़ने वाला न तो हिंदू होता है, न मुसलमान; उस समय हिकारते हुए उसे लठियाने वाला शख़्स केवल एक किसान होता है, जिसने एक एक पौधे को ख़ून-पसीने से सींचा होता है।
गौरक्षा की दुहाई देकर इन्सान क़त्ल करने वाले गौ-भक्त एक बार सोचें कि क्या उनके भीतर का अहिंसक केवल गाय की चीख़ सुनकर विह्वल होता है। किसी हिरन, बकरे, मेमने, ऊँट, कुत्ते, भैंसे या अन्य पशु की कातर चीख़ सुनकर उनका दिल नहीं दहलता है। यदि नहीं, तो उनकी तमाम क़वायदें दिखावटी हैं, और यदि हाँ तो उनको पर उपदेश त्याग कर आत्म परिष्करण को प्राथमिकता देनी चाहिये।
बहुत हो गया ड्रामा। अब दंगों की आड़ में अपनी यौन कुंठाएँ तृप्त करने वाले मवालियों को ऐसे मौक़े मुहैया कराने बंद कर दो। अब इस मुल्क़ को नफ़रतों के इस व्यूह से मुक्त होने दो ताकि कुल्हाड़ी से गला काटने वाले हाथ ज़मीन के सीने पर चोट कर अन्न पैदा कर सकें। उस अन्न से वो हज़ारों लोग भोजन कर सो सकेंगे जिनको न तो हिंदू से भीख़ मांगने में परहेज होता न मुसलमान से ख़ैरात लेने में।
-चिराग़ जैन
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