Sunday, October 18, 2015

जोकर का तमाशा कभी नहीं रुकता

लड़ाई क़ायम रहनी चाहिये। जंग चलती रहनी चाहिये। जोकर का तमाशा कभी नहीं रुकता। हिन्दू-मुस्लिम के खेल से ऊब जाओ तो विचारधाराओं का खेल खेलो। उनसे मन भर जाए तो जातियों का पंगा डाल दो। जाति हटे तो भाषा, भाषा हटे तो उत्तर-दक्षिण, ये नहीं तो कुछ और, कुछ और नहीं तो कुछ भी और। लेकिन मनोरंजन होता रहना चाहिये। 

कई बार तो फ़ख़्र होता है। कोई ज़र्रा नहीं छोड़ा जहाँ कलेस न हो। जम्मू वालों को घाटी वालों का दुश्मन बना दिया। यदि किसी बेवक़ूफ़ ने जम्मू-कश्मीर के बीच सौहार्द क़ायम करने में सफ़लता पा ली तो जम्मू-कश्मीर को पूरे भारत का दुश्मन बना दिया। पंजाब वाले भाषा पर नहीं लड़ते तो उनको ख़ालिस्तान की सौगात दे दी। राजस्थान वाले भाषा-धर्म पर नहीं लड़ते तो उनको आरक्षण पर लपेटे में ले लिया। गुजराती शांतिप्रिय होने का दावा कर बैठे तो उनको पटेल आरक्षण में बिज़ी कर दिया। हरियाणा को खाप देकर हिल्ले से लगा रखा है तो बिहार को ऊँच-नीच के चक्रव्यूह में गोल-गोल घुमा रखा है। उत्तर प्रदेश इस मामले में काफ़ी समृद्ध है। वहाँ मुज़फ़्फ़रनगर, दादरी, दनकौर वगैरा कई ऐसे उत्पादक प्रदेश हैं जहाँ कुछ न कुछ चलता ही रहता है। ये सब दबेगा तो देवबंद उछल जाएगा। वो दबेगा तो मथुरा या काशी बोल पड़ेगी। और सब कुछ दब गया तो राम जी के भरोसे लड़ाई जारी रहेगी। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश को लेकर कोई चिंता नहीं है। उत्तराखंड पलायन से जूझ रहा है। उधर बंगाल भी जैसे तैसे अपना काम चला ही लेता है। वहाँ भाषा को लेकर इतनी निष्ठा है कि उनको भेदभाव करने के लिये प्रवासी मिल जाते हैं। पूर्वोत्तर के पास लड़ने के लिये अन्तरराष्ट्रीय सपोर्ट है। उड़ीसा ने अमीर ग़रीब वाली पुरातन पद्धति को ज़िंदा रखने का महती कार्य किया है। झारखंड के पास लड़ने के लिये बिहार वाली ऊँच नीच की परंपरा भी है और उड़ीसा वाली आर्थिक असमानता की भी। छत्तीसगढ़ जंगल और शहर की लड़ाई में मशगूल है। मध्य प्रदेश हिन्दू और नॉन-हिन्दू से पेट पाल रहा है। महाराष्ट्र उत्तर भारतीयों और किसानों के दम पर ख़बरों में बना रहता है। तेलांगाना का मुद्दा निपटा तो एक बार लगा था कि आंध्रवासी निठल्ले हो जाएंगे लेकिन भाषा ने उनको भी बेरोज़गारी से बचा लिया। तमिलों को भाषा के रहते कोई दूसरा कुँआ खोदने की ज़रूरत ही क्या है। कर्नाटक में भी कोई न कोई राजनैतिक नाटक चलता ही रहता है। हाँ केरल ने एक अदद शाश्वत कलेस के अभाव में थोड़ा निराश किया है लेकिन वहाँ के लिये भी कोई न कोई कलेसी पैदा हो ही जाएगा। भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं…!

महापुरुषों को पहले ही भाजपाई, कांग्रेसी, बसपाई, सपाई कर के निपटाया जा चुका है। इस बीच कुछ नया करने की छटपटाहट होने लगी थी। तभी कुछ लोगों का ध्यान इस बात पर गया कि कई दिनों से ये बुद्धिजीवी नहीं लड़े। इन कलाकारों में कोई कलेस नहीं हुआ। फिर क्या था, एक बार ठान ली तो क्या नहीं हो सकता। साहित्यकार विचारधारा के नाम पर अपने-अपने पुरस्कार लेकर पिल पड़े। कलाकार हिन्दू-मुस्लिम बनकर अपने-अपने अलग राग अलापने लगे। 

रसख़ान ने जब "लाम के मानिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के…" कहकर सोच को व्यापक किया था तब उनको नहीं पता था कि आख़िरकार लड़ना पड़ेगा। तब उनका क्या हश्र होगा। उनसे हिन्दू नफ़रत करेंगे क्योंकि उनके नाम में ख़ान है, और मुस्लिम उनको क़ाफ़िर कहकर लानत भेजेंगे क्योंकि उन्होंने बुतपरस्ती का गुनाहे-अज़ीम पेश फ़रमाया। ऐसी ही भूलें अब्दुर्रहीम ख़ाने-ख़ाना और अमीर ख़ुसरो से भी हो गई। क़बीर तो ख़ैर जन्म के कलेसी थे ही। दूरदर्शिता का सर्वथा अभाव था इन सबमें। समझ ही नहीं आ पा रहा कि इनके नाम पर कौन पक्ष में लड़े कौन विपक्ष में। इधर हाल के दशकों में भी कुछ ऐसे हो गए जिनको सौहार्द का शौक़ चर्राया। क्या ज़रूरत थी शक़ील को ये कहने की कि "मन तरपत हरि दर्सन को आज…! तुम तो लिख कर चलते बने। उस पर नौशाद ने इसको सुरों में पिरो दिया। फिर मुहम्मद रफ़ी… तुम तो कम से कम रौ में न बहते। पूरे कुएँ में ही भांग पड़ गई थी क्या। चंद रुपैयों के लिये कितने नीचे गिर गए। क़ाफ़िर हो गए। 

ऐसे ही पापी रहे रघुपति सहाय। फ़िराक़ गोरखपुरी बनकर कैसे इतराते फिरे। अरे भई, हिन्दी में रहकर क्या प्रतिष्ठा नहीं मिलती थी। जा पड़े मुसलमानों की भाषा में। शर्म आनी चाहिये। हमें देखो। लिखा चाहे एक अक्षर न हो, लेकिन किसी को इतना मौक़ा न दिया कि हमें हमारे धर्म से अलग कर सके। हमने किसी के आगे सिर नहीं झुकाया। आग लगे ऐसी प्रसिद्धि में। अरे तुमसे बढ़िया तो वो छोकरे हैं जो ज़रा सा इशारा पाते ही दूसरे धर्म वालों के लिये मौत बन जाते हैं। इसे कहते हैं समर्पण। ये नहीं कि सारी ज़िंदगी दूसरे धर्म के लोगों की चमचागिरी में गुज़ार दो।

उधर ये बोलते हैं कि ग़ुलाम अली को सुन लो। क्यों सुन लें भई। हमारे पास जगजीत सिंह नहीं हैं क्या। जो आदमी पाकिस्तानी होगा उसके लिये यहाँ कोई जगह नहीं है। हम हम हैं। अपनी गायकी पाकिस्तानियों को सुनाओ। हम जगजीत सिंह से संतुष्ट हैं। हमारी मजबूरी न होती तो भगत सिंह को भी पाकिस्तान में पैदा होने के जुर्म में देश निकाला दे देते। लेकिन बस हमारी चल नहीं पा रही।

हमने बहुत दिन सहिष्णु होने का ढोंग कर लिया। अब हमसे न होगा ये सब। भाग जाओ यहाँ से। कोई गजल-वजल नहीं सुनी जाएगी। हमारे पास यही काम रह गया क्या। बड़े आए गजल सुनाने वाले। हम तुम्हारी गजल सुनेंगे या साहित्यकारों के पुरस्कार लौटाने के मुद्दे पर ध्यान देंगे।

इनको अपनी पड़ी है। क्या आफ़त आ गई। किसने चिकौटी काट ली। नहीं चाहिये पुरस्कार तो मत लो। हम किसी और को दे देंगे। अपनी विचारधारा वाले को दे देंगे। दस-पाँच साल बाद कोई और सरकार आएगी तो हमारे वाले भी लौटा देंगे। फिर तुम ले लेना। अब एक पुरस्कार एक ही जगह धरा-धरा धूल खाए… ये कोई अच्छी बात है क्या। 

वामपंथी और राष्ट्रवादी, दोनों की ही एक-दूसरे के बारे में एक जैसी राय है। 'तुमने लिखा भी क्या है। सब अल्लम-गल्लम। कोई सार नहीं है तुम्हारे साहित्य में। साहित्य तो हमारे वालों ने रचा है।'

एक बताएगा, "गांधी वध और मैं" ...अहा! क्या पुस्तक है। बखिया उधेड़ कर रख दी। और साहित्य पढ़ना है तो गीताप्रेस गोरखपुर जाओ। जा में नहीं राम को नाम, वा कविता किस काम की। देश को समझना है तो झण्डेवालान जाओ। सुरुचि प्रकाशन की पुस्तकें पढ़ो। वीर सावरकर की क़ुर्बानी के आगे क्या किसी की क़ुर्बानी टिकेगी। माननीय हेडगेवार जी, गुरुजी, मुखर्जी जी, दीनदयाल उपाध्याय जी… अरे इनकी जीवनीयाँ पढ़ो। तो कुछ संस्कार आवें। इनके सिवाय देश में न तो कोई महापुरुष है न ही कोई साहित्य। कम से कम जब तक हमारी चलेगी तब तक तो नहीं ही होने देंगे। जब तुम्हारी चले तो तुम हमारे वालों को मत मानना। 
दूसरा कहेगा, पेरियार! क्या लिखा है, सच की परतें खोल दीं। रशियन लिटरेचर नहीं पढ़ा तो क्या ख़ाक़ पढ़ा! लेनिन, मार्क्स... हीरे हैं साहित्य के। 'बम का दर्शन' पढ़ो। जनचेतना प्रकाशन की किताबें ख़रीदो! ग़रीब के दर्द की बात न हुई तो काहे का साहित्य। सत्ता को गाली देने की हिम्मत न हो तो चाट का ठेला लगा लो, ज़रूरी थोड़े ही है साहित्य रचना।

…ये सब देख कर मदारी अट्टहास करते हैं। उन्हें इस बात की संतुष्टि है कि सब जमूरे बढ़िया से काम में लगे हैं। सबने सबको व्यस्त कर रखा है। ये सब इन बातों से ऊपर उठने नहीं चाहियें। क्योंकि अगर इन कलेसों से बाहर आए तो ये सब विकास मांगेंगे। फिर ठहाके लगाने तो दूर साँस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलेगी। इसलिये जंग जारी रहनी चाहिये। डुगडुगी बजती रहनी चाहिये। तमाशा होता रहना चाहिये।

© चिराग़ जैन

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