दो घड़ी को
मैं किसी आकाश के रोमांच की
बांहें पकड़ कर;
उस धरा द्वारा मुझे सौगात में सौंपे गए
अविरल सुरक्षा भाव का
अपमान कर आया;
जो कि मुझको हर दफ़ा
अस्थिर उड़ानों से
पुनः नीचे उतर आने पे
बढ़कर थाम लेती है।
वे उड़ानें
(मैं जिन्हें उन्माद में
ऊँचाइयों पर ठहर जाने का
तरीका मान बैठा हूं)
महज ज़िद पर उतर आए
किसी बालक की ऐसी कूद भर है
जो थका कर मौन करती है मुझे
क्योंकि अभी
धरती के आकर्षण की सीमा
लांघ जाने का
अतुल साहस नहीं है
मेरी बचकाना उड़ानों में।
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Saturday, May 28, 2016
पैरा ग्लाइडिंग
Labels:
Chirag Jain,
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Self Analysis,
नज़्म,
पद्य
Location:
Kalimpong, West Bengal, India
Thursday, May 26, 2016
ख़बर का असर
जेब में दस का नोट लेकर भीखू छोले-कुल्चे के ठेले पर पहुँचा और बोला- "दस रुपये के छोले कुल्चे दे दो।"
ठेले वाला मुस्कुराकर बोला - "दस रुपये में छोले कुल्चे नहीं आते।"
भीखू उदास होकर पान की दुकान तक आया और टीवी पर चल रहा न्यूज़ बुलेटिन देखने लगा। पत्रकार बता रहा था कि भारत की विदेशमंत्री तीन दिन के दौरे पर जापान जा रहे हैं। ख़बर पढ़ते हुए समाचार वाचक के चेहरे पर जो ख़ुशी थी उससे भीखू को लगा कि अब शायद बात बन जाएगी। वह दौड़कर खोमचे पर पहुँचा और बोला - "लो भैया, विदेश मंत्री देश के विकास पर चर्चा करने जापान गई हैं, अब तो दस रुपये के छोले-कुल्चे आ जाएंगे?"
"अबे पगला गया है क्या?" ...खोमचे वाला झल्ला उठा। ..."उसके जापान जाने से मेरे ठेले का क्या लेना देना?"
भीखू अपना सा मुंह लिए वापस बुलेटिन देखने लगा। एक संवाददाता चीख-चीख कर उत्तेजना में बोल रहा था कि फलाने मंत्री के बयान पर विपक्ष ने दो दिन संसद का कामकाज नहीं होने दिया, लेकिन अभी-अभी ख़बर मिली है कि उस मंत्री ने अपने बयान पर खेद प्रकट कर दिया है और विपक्ष ने संसद चलने देने का आश्वासन दिया है।"
भीखू ख़ुश होकर फिर से ठेले तक पहुँचा और दुखी होते हुए फिर से वापस लौट आया।
बुलेटिन अभी भी चालू था। काफ़ी कुछ हुआ उस बुलेटिन में। एक नई फ़िल्म का ट्रेलर रिलीज़ हुआ; एक निजी चैनल के सर्वे से ये पता चला कि केंद्र सरकार की लोकप्रियता बढ़ रही है; यह भी पता चला कि रामायण युग की किष्किन्धा में आज भी सुग्रीव और बाली के सिंहासन सुरक्षित रखे हैं; एक अभिनेता को कोर्ट ने बरी भी कर दिया; एक समुदाय को सामूहिक रूप से अपना त्यौहार मनाने की इजाज़त भी मिल गई; एक विधायक ने रिजॉर्ट में प्राणायाम भी किया; एक संत को राममंदिर के शिलान्यास में शामिल होने का न्यौता भी मिल गया और एकाध अफ़सरों के तबादले भी हो गए।
इतना सब कुछ होने के बावजूद भीखू की जेब में पड़े दस के नोट की पहुँच में भूखा पेट भरने की जुगत न आ सकी। शाम हो गई। भूख ने भीखू की ऊर्जा पचा ली। अंतड़ियां सिकुड़ गईं। दिमाग़ थक गया।
छोले कुल्चे वाला अपना खोमचा समेट कर जा चुका था। भीखू ने सड़क किनारे पड़ा अख़बार का एक टुकड़ा उठाया और खा गया। मैंने उसे अख़बार चबाते देखा और पूछा - "क्यों भई, अख़बार में भी कोई स्वाद है क्या?"
भीखू अख़बार पर लिसड़ा हुआ मसाला दिखाते हुए बोला - "अख़बार तो बेस्वाद है भाईसाहब, लेकिन मसाले में मज़ा आ गया।"
जो अख़बार भीखू खा रहा था उसी के तीन दिन बाद के संस्करण में छोटा सा समाचार छपा था - "राजधानी दिल्ली के अमुक इलाके में एक चालीस-बयालीस वर्ष के विकलांग की लावारिस लाश मिली है। उसकी जेब में दस रुपये का एक नोट बरामद हुआ है। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में इस शख़्स की मौत की वजह भूख बताई गई है।"
जब पुलिस भीखू का पंचनामा कर रही थी तब पनवाड़ी की दुकान पर रखे टीवी पर समाचार चल रहा था कि विदेश मंत्री ने जापान के साथ अनेक महत्वपूर्ण डील्स पर हस्ताक्षर किये।
© चिराग़ जैन
Saturday, May 21, 2016
पिताजी की भाषा की अलंकारिकता
यद्यपि उन गद्यांशों में मेरी कभी बहुत रुचि नहीं रही तथापि उनको सुनना मेरी विवशता है क्योंकि उनके वाचक मेरे पिताजी हैं, जो स्वयं को पूज्य बनाने की जुगत में समय की सूक्ष्मतम इकाई में भी मुझे प्रवचन पेलने से नहीं चूकते। गत 32 वर्ष में से प्रारम्भ के 4-5 वर्ष छोड़कर; जिनमें परमपिता परमात्मा की असीम अनुकम्पा से मुझे कुछ समझ नहीं आने की नैसर्गिक सुविधा प्राप्त थी; मैं यही समझने की कोशिश में लगा रहा हूँ कि आख़िर मुझ निर्दोष अर्जुन को अलग से बुलाकर बिना किसी कारण अष्टादश अध्यायी सुनाने का सिलसिला कब तक चलता रहेगा!
ये बातें मैं इतनी बार सुन चुका हूँ कि अब जब कभी इनकी पुनरावृत्ति होती है तो मैं उनका साहित्यिक और वैयाकरणिक अन्वेषण करने लगता हूँ। इस अन्वेषण के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि पिताजी की भाषा आश्चर्यजनक रूप से अलंकृत है।
बचपन में दो रुपये का नोट भी जब वे ये कहते हुए देते थे कि संभाल के रखियो कहीं खामाखा खो-खा न जाए; तब ख वर्ण की पुनरावृत्ति से अनुप्रास की छटा देखते ही बनती थी। कई बार तो मैं अनुप्रास की छटा देख ही रहा होता था कि पिताजी दो रूपये देने के अपने इरादे को पीठ दिखा देते थे।
दादाजी के खाना खाने बैठते समय दही लेने निकालना और आधी रोटी ख़त्म होने से पहले दही ले आने की घटना वे इतनी बार सुना चुके हैं कि पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार का उदाहरण प्रस्तुत हो गया है। बाद में इसी घटना में दही वाले की दुकान को घर से डेढ़ किलोमीटर दूर बताकर वे लगे हाथ अतिशयोक्ति अलंकार भी चिपका देते हैं।
अकेले "नहीं" शब्द को वे इतने अलग-अलग बलाघात के साथ उच्चार लेते हैं कि यमक और श्लेष दोनों के अश्व उनके इस एक शब्द के अस्तबल में घास चरते बंधे रहते हैं। शब्द की प्रयोजनीयता का उनकी भाषा में ऐसा श्रेष्ठ उदाहरण मिलता है कि रसख़ान और कालिदास की रचनाएँ भी उकड़ू बैठ कर पिताजी का भाषाई कौशल देखती रह जाती हैं। मेरे घर में प्रवेश करते ही वे तीन शब्दों के एक युग्म का प्रयोग करते हैं। इस वाक्यांश से मुझे अनायास ही यह समझ आ जाता है कि आज डिनर करते समय कौन से उपनिषद का पाठ होगा।
"कहाँ गया था" या "घड़ी देखियो ज़रा"; इस प्रकार के वाक्यांश का अर्थ है कि स्थिति सामान्य है और भोजन के समय छुटपुट नीतिशतक से अधिक और कुछ नहीं सुनने को मिलेगा।
"आ गए हुज़ूर" अर्थात् मेरे अवतरण से कुछ पल पूर्व तक माँ के साथ मेरे भविष्य की चिंता को लेकर गरज के साथ छींटे पड़ चुके हैं और मुझे भोजन के समय श्रीमद्भागवत गीता का कर्मयोग सिखाया जायेगा जिसे स्थितप्रज्ञ होकर सह लेने में ही मेरा कल्याण है।
"आ जा बेटा" अथवा "लो आ गया" सुनते ही मैं समझ जाता हूँ कि आज गरुड़ पुराण से कम में पीछा नहीं छूटना। सही समय पर सही शब्द बरतने का यह कौशल उनकी भाषा को अन्य लोगों के पिताजियों की भाषा से विलग करता है। "हमने बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं" और "हम उड़ते पंछी के पर गिन लेते हैं" जैसे वाक्यों का प्रयोग कर वे सिद्ध करते हैं कि उनकी भाषा में मुहावरे और लोकोक्तियाँ सहज ही उतर आती हैं।
अपनी अभिव्यक्ति को अधिक समर्थ बनाने के लिए मेरे पिताजी संस्कृत के वैयाकरणिक सिद्धांतों का विलोमानुकरण करने में भी सिद्धहस्त हैं। जब वे मुझे संबोधित करते हुए मध्यम पुरुष एकवचन का हिंदी में प्रयोग करते हुए "तू/तेरा" आदि शब्द प्रयोग करते हैं तो वास्तव में मैं यथोचित सम्मान पा रहा होता हूँ किन्तु जैसे ही मेरे प्रति उनके सम्बोधन मध्यम पुरुष द्विवचन पर पहुँच कर "तुम/आप" आदि हो जाते हैं तो मेरे अपमान के प्रतिमान खड़े हो जाते हैं।
पिताजी के इस भाषाई कौशल में मेरी भंगिमा सदैव अवाक् और मेरे कंठ में घुँटा हुआ शब्द संस्कृत के सम्बोधन कारक का हिंदी अनुवाद ही होता है। लेकिन करत-करत अभ्यास के मेरी जड़मति इतनी सुजान अवश्य हो गई है कि जब वे पाणिनी होकर फलम् फले फलानि जपने लगते हैं तो मैं वरदराज बनकर अपने अंगूठे से फर्श की सिल पर पड़े निशान देखता रहता हूँ।
© चिराग़ जैन
Thursday, May 12, 2016
डिग्रियों का बोलबाला
देश में डिग्रियों का बोलबाला है। कोई प्रधानमंत्री से डिग्री मांग रहा है तो कोई डिग्री से प्रधानमंत्री। ऐसे में मैं स्पष्ट कर दूँ कि डिग्री देखने की ललक छोड़ कर काम की क्षमता पर ध्यान दो।
प्रोडक्टिविटी और केपेसिटी हो तो डॉक्टरेट की डिग्रियाँ पांचवी फेल डिग्रीलेस को सलाम बजाती हैं। अंगूठा छाप मिनिस्टर हो गए और प्रशासनिक सेवा परीक्षा का अव्वल छात्र उनका सचिव। सर्वाधिक पढ़े लिखे प्रधानमंत्री का अध्यादेश एक मंदबुद्धि बालक फाड़ देता है और कोई कुछ नहीं कर पाता।
दंतकथाओं पर विश्वास करें तो कालिदास से अधिक विद्वान् 'विलोम' भाग्यहीन रह गया और विद्योत्तमा का मूढ़ पति युग का महाकवि हो गया। राजनीति में कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी असली डिग्री दिखा दें तो विश्वविद्यालय और शिक्षानीति दोनों की क्षमताएँ कठघरे में आ जाएंगी।
जिन गुणों से व्यक्ति महान बनता है उनकी शिक्षा डिग्रियों में नहीं लिखी होती। विजय जी माल्या को कला की कक्षा में नहीं पढ़ाया गया था कि कन्याओं के कितने कपडे उतरवाकर गले में हाथ डालोगे तो फोटो अच्छी आएगी। न ही उन्हें विज्ञान के अध्यापक ने बताया था कि बैंकों के पैसे में विटामिन होते हैं। और तो और फिज़िकल एजुकेशन में भी उन्हें यह पाठ नहीं पढ़ाया गया था कि संकट की स्थिति में किस देश की ओर दौड़ना उचित होगा। ...फिर भी माल्या साहब महान बने कि नहीं।
श्री मान केजरीवाल जी से ही पूछ लेते हैं कि उन्होंने अन्ना जी को अधन्ना बनाकर खुद हज़ारी हो जाने का कौशल किस स्कूल में सीखा था? अपने गले में मफलर बाँध कर भाजपा और कांग्रेस का गला घोंटने का पाठ NCERT की किस पुस्तक में शामिल था। अपनी कमीज़ बाहर निकाल कर बाकियों को विधानसभा से बाहर निकालना किस अभ्यास पुस्तिका में लिखा था। फिर भी केजरीवाल जी महान बने कि नहीं।
मोदी जी की विश्वविद्यालय की डिग्री देख कर भी क्या कर लोगे। जो पढ़कर डिग्री हासिल की वो उन्होंने कभी किया ही नहीं। बचपन से पढ़ते आए थे कि बड़े-बुज़ुर्गों का सम्मान करो, उन्होंने किया क्या? बचपन से पढ़ते आए कि 'अपना घर छोड़ कहीं और न जाया जाए'; वे माने क्या? बचपन से पढ़ते आए कि 'तोल-मोल कर बोल' ...किस किस चीज़ की डिग्री देखोगे?
सन्नी द्योल ने दामिनी फ़िल्म में एक डायलॉग बोला था। उसी अंदाज़ में समझ लो - "सिसोदिया समझा इसे, काग़ज़ पर छपी हुई ये डिग्रियाँ जमुनापार में बहुत मिलती हैं, लेकिन इनसे कुर्सी पाने का जो मुक़द्दर है ना, वो दुनिया के किसी स्कूल में नहीं मिलता; नेहरू-गांधी खानदान उसे लेकर पैदा होता है। पुलिस की थर्ड डिग्री जब दिखती है ना, तो आदमी बोलता नाहीं ...बोल जाता है।"
© चिराग़ जैन
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