दो घड़ी को
मैं किसी आकाश के रोमांच की
बांहें पकड़ कर;
उस धरा द्वारा मुझे सौगात में सौंपे गए
अविरल सुरक्षा भाव का
अपमान कर आया;
जो कि मुझको हर दफ़ा
अस्थिर उड़ानों से
पुनः नीचे उतर आने पे
बढ़कर थाम लेती है।
वे उड़ानें
(मैं जिन्हें उन्माद में
ऊँचाइयों पर ठहर जाने का
तरीका मान बैठा हूं)
महज ज़िद पर उतर आए
किसी बालक की ऐसी कूद भर है
जो थका कर मौन करती है मुझे
क्योंकि अभी
धरती के आकर्षण की सीमा
लांघ जाने का
अतुल साहस नहीं है
मेरी बचकाना उड़ानों में।
© चिराग़ जैन
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