Monday, August 28, 2017

बच सकते हैं तो बच लें

बधाई हो! 
एक बार फिर हमें धर्म के कपड़े उतारने का मौक़ा मिला है। इस बार हमाम में हिन्दू धर्म खड़ा है। कीचड़ का एक थेपा कोई हिंदू संतों पर फेंकेगा तो बदले में हिन्दू लोग भर-भर बाल्टी कीचड़ पादरियों और मौलवियों के थोबड़े पर दे मारेंगे। बाबागिरी की आड़ में अय्याशी कर रहा कोई कुकर्मी नंगा हुआ तो हमने सभी संतों को कठघरे में खड़ा कर दिया। 

सामान्यीकरण की यही आदत हमें सामाजिक कुरीतियों से दूर नहीं होने देती। आसाराम गिरफ्तार हुए और हम हिंदुओं को चिढा-चिढ़ाकर नाचने लगे। इमाम बुख़ारी के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज हुई और हम मुसलमानों को गालियाँ बकने लगे। साध्वी प्रज्ञा पर आरोप तय हुए और हम सभी हिंदुओं को आतंकवादी सिद्ध करने पर तुल गए। अफजल को फाँसी हुई और हमने हर मुसलमान को आतंकी मान लिया। एक भिंडरवाला अपराध कर के भागा और हमने हर सरदार को ज़िंदा जला देने की कसम उठा ली। 

इस जल्दबाज़ी में हम यह समझ ही नहीं पाते कि किसी एक डेरे के सेम्पल से पूरी सिख परंपरा का चरित्र नहीं समझा जा सकता। दो जैनियों के हवाला में लिप्त होने से पूरा जैन समाज चोर सिद्ध नहीं होता। ठीक वैसे ही ज्यों एक अम्बेडकर के संविधान लिख देने से हर बौद्धिस्ट कानून का ज्ञाता नहीं हो जाएगा। एक उंगली पर गर्म तेल गिर जाए तो पूरे शरीर पर बरनॉल नहीं डाली जाती। रामरहीम एक व्यक्ति है जिसे श्रद्धा की वेदी में बैठाया गया था। अब उसके अपराधों ने उसे आदर की वेदी से उतार कर अपराध के परिणाम तक पहुंचा दिया। 

इससे वेदी बदनाम नहीं होती। कोई विवेकानन्द उस वेदी को छुए बिना ही हज़ारों रामरहीमों की करतूत से अपनी परंपराओं को अनछुआ रखने के लिए पर्याप्त है। घटना विशेष से व्यक्ति के चरित्र का आकलन और व्यक्ति विशेष से पूरी संस्कृति का आकलन एक ऐसा अपराध है जिसे हम युगों-युगों से करते आ रहे हैं। विकास के जो स्वप्न हम देख रहे हैं उसको साकार करने के लिए इस चूक से अपनी पीढ़ियों को मुक्त कराना हमारा दायित्व है। 

© चिराग़ जैन

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