Sunday, August 13, 2017

हत्यारा तंत्र

गोरखपुर मुआमले जैसे महापाप के सूतक की ज़िम्मेदारी एक बार फिर सरकारी दफ्तरों की कार्यशैली ने ली है। पाकिस्तान में जब स्कूली बच्चों की लाशें बिछीं तो पूरे विश्व ने आतंकवाद से मिलकर लड़ने की शपथ उठाई थी। आज जब हमारे मुल्क में नन्हीं किलकारियों की प्राणवायु तक दफ्तरी छीन ले गए तो इस हिंसक व्यवस्था के साथ एकजुट होकर लड़ने के लिए हम क्यों शपथ नहीं ले सकते।

स्थितियां इतनी विकराल हैं कि "ईमानदारी" के साथ आप ड्राइविंग लाइसेंस तक नहीं बनवा सकते हैं और बेईमान होते ही आप कुछ भी कर सकते हैं। "चप्पल घिसना"; "एड़ियां रगड़ना"; "धक्के खाना"; अड़ंगा लगाना"; "पेंच फँसना"; "जुगाड़ भिड़ाना" और "ले-दे के करवाना" जैसे मुहावरों से सुसज्जित हमारे सरकारी कार्यालय स्वाधीनता दिवस के अवसर पर हर साल रौशनी में नहा जाते हैं लेकिन देश के भीतर का अंधेरा कम होने का नाम नहीं लेता। किसी दफ़्तर में आपका सामान्य-सा काम भी पड़ जाए तो इस हद तक हैरासमेंट होता है कि अराजक हो जाने का मन करने लगता है। 

फॉर्म के एक कॉलम में चूक हो जाए तो खिड़की पर बैठा बाबू आपको इस तरह लताड़ता है जैसे किसी बलात्कारी को रंगे हाथ पकड़ लिया हो। किसी काग़ज़ की फोटोकॉपी करवानी पड़ जाए तो दफ्तरी आपको यह भी नहीं बताएगा कि फोटोकॉपी होगी कहाँ से। बाबू से कोई सवाल पूछ लो तो ऐसे हिक़ारत से देखा जाता है मानो उसकी जेब काट ली हो। चपरासी भी प्रतीक्षा करने वालों के साथ ऐसे बर्ताव करता हो जैसे किसी इकलखौन्डी बहू के घर उसकी ननद छह महीने से पड़ी हो।

दो और दो चार जैसे सामान्य सवाल को भी इतना जटिल बना दिया जाता है कि आदमी गिनती भूल जाए। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और नर्स तो हैं ही; सफाईकर्मी तक किसी भी मरीज़ या उसके परिजन को अकारण धकियाने और लताड़ने के लिए अधिकृत होते हैं। रेलवे में किसी की इतनी औक़ात नहीं है कि पूछताछ खिड़की के उस पार बैठे साहब से रेल के लेट होने का कारण पूछ सके। अदालतों में जज साहब ग़लत समय पर छींकने के जुर्म में भी किसी पर अवमानना का अभियोग चला सकते हैं। और थाने तो दैवीय प्रकोप के महाभवन हैं ही। 

पुलिसवाले जनता के बीच जब गाना बजाते हैं "पुलिस- आपके लिए आपके साथ" तो ऐसा सुखद अनुभव होता है मानो फरिश्तों ने खाकी पहन कर क़ौम की खिदमत का बीड़ा उठाया हो। पुलिस के जनहित में जारी विज्ञापन देखो तो ऐसा महसूस होता है मानो पूरी पुलिसफोर्स आपके पैर पकड़ कर गिड़गिड़ा रही हो कि हे जनता जनार्दन! हमारा कर्तव्य है कि आपको कोई कष्ट न हो। हमें हमारा फ़र्ज़ अदा करने का मौका दो माई-बाप! ....लेकिन अगर किसी दिन आपको थाने के दर्शन करने पड़ जाएं तो ये सारे विज्ञापन आपके पीछे तालियाँ पीट-पीट कर नाचते हुए गाना गाने लगते हैं - "अप्रैल फूल मनाया, तो उनको गुस्सा आया..."।

व्यवस्था की यह घिनौनी तस्वीर न तो जनता से छिपी है न ही सरकार से। ऐसे में किसी भी नेता की या समाजसुधारक की इच्छा शक्ति संक्रमित पतीले में दूध की तरह व्यर्थ है। सरकार संसद में बैठ कर योजनाएं बनाती है और बाबू उस योजना का सागर मंथन करके उसमें से लक्ष्मी जी के अवतरण का उपाय खोज लेते हैं। रेड लाइट जम्पिंग रोकने के लिए चालान की राशि बढ़ाकर सौ से पांच सौ की जाती है तो रेडलाइट के पार पेड़ की ओट में अपराध करने का अवसर देने वाले सार्जेंट के ईमान की क़ीमत पचास रुपये से बढ़कर स्वतः ही दो सौ हो जाती है।
भारत में कई नेता ऐसे हुए हैं जो सचमुच इस देश को एक लोककल्याणकारी गणराज्य बनाने का स्वप्न देखते थे। लेकिन उन सब स्वप्नों की फाइलें टूथपिक से कान खुजाते किसी बाबू के बासी चाय के झूठे कप के नीचे दबी धूल खा रही हैं।

© चिराग़ जैन

Ref : Gorakhpur Case, Children dead in hospital due to shortage of Oxygen.

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