Sunday, November 11, 2018

कर्ण का परिताप

तुम प्रपंचों में समय अपना खपाना
मैं समर के हर नियम को मान दूँगा
तुम बदलकर वेश मुझसे मांग लेना
मैं कवच-कुण्डल ख़ुशी से दान दूँगा

हाथ की सारी लकीरें हैं विरोधी
अब भला कुछ झोलियों का रीतना क्या
न्याय से या सत्य से सम्भव नहीं जो
झूठ कहकर उस समर को जीतना क्या
तुम निहत्थे वीर पर पौरुष दिखाना
मैं किसी अभिशाप को सम्मान दूँगा

धर्म के हाथों तिरस्कृत ही रहा हूँ
पाप का आभार ले-लेकर जिया मैं
दंश बिच्छू का सहा तो ये मिला फल
शाप का उपहार ले-लेकर जिया मैं
तुम धनुष के ज्ञान पर ऊर्जा लगाना
मैं बस अपने जाति-कुल पर ध्यान दूँगा

द्रोण, कुंती, कृष्ण, पांचाली, पितामह
मैं सभी के द्वार से लौटा अभागा
आज अर्जुन और मुझमें युद्ध तय है
आज पहली बार मेरा भाग्य जागा
जो मुझे कुछ भी न दे पाए जनम भर
मैं उन्हीं की इक ख़ुशी पर प्राण दूँगा

© चिराग़ जैन

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