दिल्ली भारत की राजधानी है। देश के सभी प्रकार के कार्यों को करने के लिए बड़े-बड़े सरकारी दफ्तर इसी शहर में बनाए गए हैं। इस प्रयास में पूरा शहर एक दफ़्तर हो गया है और हर नागरिक एक फाइल। घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर के बीच घूमते-घूमते हर नागरिक के व्यक्तित्व पर इतनी खरोंचें पड़ गई हैं कि जब वह ख़ुद को तलाशने के लिए अपने आप पर हाथ फिराता है तो उसका वजूद किसी गली हुई फाइल के कागज़ात की तरह बिखर जाता है। यह देखकर नागरिक घबरा जाता है और उन पुर्ज़ों को जैसे तैसे फाइल कवर में ठूंसकर टेबल टू टेबल चक्कर लगाने लगता है।
एक फाइल सुबह गाड़ी में बैठकर ख़ुद को दफ़्तर की ओर धकेलती है तो रास्ते में साइकिल, ई रिक्शा, ठेले, स्कूटर, मोटर साइकिल और बसों में बैठी फाइलें उसके वक़्त की जेब में सेंध लगाती हैं। वह अपनी ज़िंदगी की पोटली से कुछ लम्हों की पूंजी उन पर ख़र्च करके कुछ गालियों का गुज़ारा भत्ता उनके मुँह पर मारकर आगे बढ़ जाता है।
इस लेनदेन में जब भी किसी एक फाइल की ईगो किसी दूसरी फाइल की ईगो से भिड़ जाती है तो पीछे लगी सभी फाइलें कई-कई घंटे जाम में फँसी रहती हैं। बाद में एक पुलिसिया बाबू उन दोनों से सहायता भत्ता लेकर उनके द्वारा एक दूसरे को दी जा रही गालियों का रुख़ अपनी ओर मोड़ लेता है और पीछे की सभी फाइलों का मार्ग क्लियर करवा देता है।
सरकार ने दिल्ली को स्वच्छ रखने के लिए सड़कों के किनारे कूड़ेदान रखवाए हैं। कूड़ेदान इतने ख़ूबसूरत हैं कि उनमें कचरा फेंकने का मन नहीं करता। इसलिए हम सड़कों पर कचरा फेंककर कूड़ेदान के सौंदर्य को बचा लेते हैं। वो तो भला हो सरकार का कि जनता की भारी मांग के बावजूद सड़कों की हालत सुधारने के निर्देश नहीं जारी किए, वरना हमें ज़रा सा कचरा फेंकने के लिए भी सरकारी दफ़्तरों की ओर दौड़ना पड़ता।
सरकारी दफ़्तरों में आप कहीं भी कचरा फेंक सकते हैं। यूँ भी दफ़्तरों को कचरे से ख़ास लगाव है। यही कारण है कि किसी फाइल के कचरा हो जाने तक कर्मचारी उस पर कार्रवाई नहीं करते। यह सरकारी कर्मचारियों की निष्ठा का ही प्रमाण है कि एक बार किसी आम नागरिक का काम किसी सरकारी दफ़्तर में अटक जाए, उसके बाद पूरी व्यवस्था उसे यह आभास कराने में जुट जाती है कि व्यवस्था के सम्मुख उसका वजूद कचरे से अधिक कुछ नहीं है।
पुराने ढर्रे की सड़ांध मारते इन दफ़्तरों में बैठे बाबुओं की शक्ल भी दिन-प्रतिदिन फाइलों की तरह बासी होती जा रही है। ऐसा लगता है कि ये सभी बाबू लोग स्वयं को व्यवस्था से एकरूप करने पर तुले हैं ताकि कोई दरख़्वास्त करनेवाला यह अंतर न कर पाएं की इस व्यवस्था में बाबू कहाँ शुरू होता है और व्यवस्था कहाँ ख़त्म।
अब दफ़्तरों की सड़ांध फाइलों में छुपकर घरों तक पहुँचने लगी है। घरों से बच्चों में और बच्चों से भविष्य तक यह सड़ांध फैल गई है। और हम नाक बंद किये चुपचाप देख रहे हैं कि हर फाइल दिन में दर्जनों बार बाबू बन जाती है और हर बाबू दिन में दर्जनों बार फाइल बन जाता है।
सरकार की ओर देखना हम छोड़ चुके हैं क्योंकि हम जानते हैं कि दिल्ली भारत की राजधानी है और हर काम को करने के लिए यहाँ बड़े-बड़े दफ़्तर सरकार ने ही बनवाए हैं। यहाँ सब लोग बड़े-बड़े काम ही करते हैं। या यूँ कहें कि यहाँ जो काम होता है वह बड़ा ही होता है। इसलिए आम जनता के छोटे-छोटे काम पीढ़ियों तक अधूरे ही पड़े रहते हैं।
© चिराग़ जैन
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