Friday, August 30, 2019

खेल-खिलवाड़

भारत जवान दिखने और खोई जवानी वापस पाने के विज्ञापन करता रह गया और दुनिया बूढ़ा दिखाने वाली फेसबुक एप्प पर मर मिटी। अपने आपको जवानी के बाद के अधेड़ या वृद्ध गेटअप में देखकर लोग बड़े ख़ुश हुए। हमें कभी इस तरह की किसी तकनीक की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।
हमारे देश में ग़रीबी और बेरोज़गारी का आलम यह है कि अपनी आयु से दस-पाँच वर्ष अधिक तो सब लगते ही हैं। जिसे और अधिक बूढ़ा दिखने का चाव हो, वह सरकारी अस्पतालों और सरकारी दफ़्तरों से रिश्ता जोड़ ले। इससे भी अधिक बूढ़ा दिखना हो, तो उसके लिए सरकार ने थाने खोल दिये हैं। और जिसे यह जानना हो कि वह मरणासन्न होगा तो कैसा लगेगा, उसके लिए न्यायालय की व्यवस्था है। यहाँ तो संकट जवान रहने का था। बूढ़े होने के लिए तो हमें कुछ करना ही नहीं है। भारतीय संस्कृति में ये व्यवस्थाएँ पहले से मौजूद हैं, जिनको नए आविष्कार कहकर पश्चिम ढोल पीट रहा है।
बच्चे मोबाइल पर एक खेल खेलते हैं, ‘सब-वे सर्फ़र्स’। यह खेल भी कोई नया आविष्कार नहीं है। हमारे देश के हर नागरिक के साथ हमारा तंत्र यह खेल लगातार खेलता रहता है। जब तक भागते रहोगे, तब तक ज़िंदा रहोगे। तंत्र रास्ते में अड़चन पैदा करता रहेगा, लेकिन हमें उन सबसे बचकर भागते रहना है। अगर किसी अड़चन से टकराने की भूल की, वहीं चारों खाने चित्त कर दिए जाओगे। भागो और कमाओ। कमा-कमा कर बैंक में जोड़ो, फिर कहीं किसी से टकराने की चूक करो और निपट जाओ। जैसे ही आप निपटेंगे, बाक़ी के सबवे-सर्फ़र्स आपकी उठावनी में यह बोलकर आगे भाग जाएंगे कि- ‘किसके पीछे भागे बंदे, सब कुछ यहीं रह जाना है।’
हमारे पास जनसंख्या की बहुतायत है, इसलिए हमारा तंत्र जनता से खेलता है। उनके पास लोग कम हैं, धन अधिक। इसलिए वे लोग लूडो भी सोने की गोटियों से खेलते हैं। हम मोबाइल में देखकर उनकी नक़ल करने निकले हैं। जबकि हम तो वास्तव में असलवाले लोग हैं। वो खेल खेलते हैं, हम खिलवाड़ करते हैं। हमारी बराबरी करने में उनके पसीने छूट जाएंगे। उनकी वीडियोगेम में रेस पूरी करने के लिए रास्ते में आने वाली गाड़ी, मनुष्य, पुलिसमैन सबको उड़ाने की छूट होती है। यह खेल हमारे देश में सड़कों पर रोज़ देखने को मिलता है। कभी-कभी तो स्पष्ट नहीं होता कि हमारी सड़कों से वीडियोगेम ने क्रूरता और अभद्रता सीखी है या वीडियोगेम ने खेल-खेल में हमारी पीढ़ियों से करुणा और सभ्यता छीन ली हैं।
लट्टू खेलने वाले लड़के कील पर सलीके से नाड़ा लपेट कर गतिमान लट्टू को उंगली पर नचाने का संतुलन जानते थे तो उन्हें ‘लफंडर’ और आवारा कहा जाता था, लेकिन आज पाँच सौ रुपये का बेब्लेड चलाना बच्चे का स्टेटस सिंबल हो गया है। छुपम-छुपाई और आँख-मिचौनी खेलने वाली लड़कियाँ आवारा थीं, और फाइव स्टार में जाकर दस हज़ार रुपये की एंट्री टिकट में हाइड एंड सीक खेलने वाली मैडम मॉडर्न हैं। खो-खो गँवारों का खेल है और म्यूजिकल चेयर्स एडवांस्ड लोगों का। इमली के बीज घिसकर अष्टा-च्वंगा-पैं खेलना गुनाह था, लेकिन तंबोला और पोकर खेलना स्टाइल है। स्टापू, गिट्टे, पिट्ठू गरम, कबड्डी और गिल्ली-डंडा छीनकर हमारे मुहल्ले में जिम खोल दिया गया है। जिन हवाओं में पतंगें उड़ती थी वहाँ मोबाइल का नेटवर्क बिछ गया है। साथ ही मोबाइल डाटा भी ख़ूब सस्ता है। बिस्तर पर पड़े-पड़े मोबाइल पर गेम खेलते रहो ताकि गर्दन, आँखें सीधे और बाक़ी का शरीर परोक्ष रूपेण अस्वस्थ होता रहे। फिर उसी मोबाइल पर नियरेस्ट जिम ढूंढो ताकि फेसबुक पर लिख सको ‘बीइंग हेल्थ कॉन्शियस’!

© चिराग़ जैन

Friday, August 23, 2019

लाक्षागृह का अतिथि

लाक्षागृह का अतिथि आख़िर, कैसे प्राण बचाए 
इससे वो ही बच पाया, जो औरों को मरवाए 

न्याय भवन में जनहित का इक ढोंग चलाया जाता है 
ऊँची-ऊँची बातें करके पास बुलाया जाता है 
फिर धोखे से इस चौसर के पासे बदले जाते हैं 
इस दलदल में धर्मराज तक अपराधी बन जाते हैं 
सिंहासन तन-मन से अंधा, वीर पड़े मुँह बाए 
लाक्षागृह का अतिथि आख़िर, कैसे प्राण बचाए 

न्याय, मूर्ति बनकर बैठा है, षड्यंत्रों का मेला है 
नियमों का इक चक्रव्यूह है, जिसमें सत्य अकेला है 
आरोपी पर धाराओं के शस्त्र चलाए जाते हैं 
नियमों का खिलवाड़ बनाकर वीर गिराए जाते हैं 
सच के साथी प्रथम द्वार तक, पार नहीं कर पाए 
लाक्षागृह का अतिथि आख़िर कैसे प्राण बचाए 

वो जिसने आरोप लगाया, उससे प्रश्न करेगा कौन 
ढोंग किसी का, क्षोभ किसी का, लेकिन मोल भरेगा कौन 
राजभवन के जयकारों की क़ीमत कौन चुकाता है 
सत्ता का अन्याय जगत् में मर्यादा कहलाता है 
सच ख़ुद को साबित करता है, झूठ खड़ा इतराए 
लाक्षागृह का अतिथि आख़िर कैसे प्राण बचाए 

© चिराग़ जैन

Saturday, August 17, 2019

हम भारत के लोग

हम भारत के लोग एक ऐसे तंत्र में जीने को विवश हैं, जहाँ जनता का शासन, जनता के प्रति कोई जवाबदेही महसूस नहीं करता। टेलिविज़न पर जो विज्ञापन आते हैं उनका एकमात्र उद्देश्य अपना माल बेचना होता है। दीवाली आती है तो वे अपने माल के विज्ञापन में दीवाली फेस्टिवल का जुमला जोड़ देते हैं, हम उतावले होकर दीवाली की ख़ुशी में उनका माल ख़रीदकर ख़ुश हो लेते हैं। फिर पंद्रह अगस्त आता है तो वे अपने पान मसाले के इश्तिहार में ‘आज़ादी’ जैसा कोई जुमला जोड़कर हमें पान मसाला चिपका देते हैं। हम देशभक्ति की भावुकता में पान मसाला चबाने के उपक्रम को राष्ट्रभक्ति समझ बैठते हैं। होली पर उसी पान मसाले को ज़िन्दगी के ‘रंग’ पर ट्रांसलेट कर दिया जाता है और हम समझने लगते हैं कि होली मनाने के लिए अमुक पान मसाला चबाने से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता। इसी तरह हमारे शादी-ब्याह और आपसी संबंधों तक कि भावुकता का हवाला देकर सब अपना धंधा चलाते रहते हैं और हम वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं।
राजनीति भी ऐसा ही करती है। बिहार में माल बेचना हो तो बिहारियों के पर्व-त्यौहार भुनाए जाते हैं। महिलाओं को आकृष्ट करना हो तो अचानक महिलाओं का कष्ट राजनेताओं के दिल में दहाड़ें मारने लगता है। तमिलनाडु से वोट बटोरने हों तो हिंदीभाषी राजनेता भी वणक्कम बोलने लगते हैं। हम इस पर रीझने लगते हैं कि फलाने जी हमारी भाषा बोल रहे हैं। जैसे एक बार माल बिक जाने के बाद अपनत्व जता रहा व्यवसायी आपकी शिकायतों से इर्रिटेट होने लगता है उसी तरह एक बार चुनाव जीतने के बाद वणक्कम बोलने वाले नेताजी आपकी नमस्ते का भी जवाब नहीं देते।
हमारी रोज़मर्रा की समस्याओं से न तो किसी व्यवसायी का कोई लेना-देना है न ही किसी राजनेता का। फिर भी हम बार-बार इनके इश्तिहारों में अपनी भावुकता की चुम्बक से चिपके रहते हैं।
महानगरों में कैब सर्विस चलती है। कैब कम्पनियां धड़ल्ले से लोगों की जेब पर डाका डालती हैं, लेकिन सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका मानना है कि जो आदमी कैब में चल सकता है उसे थोड़ा बहुत लूट भी लिया जाए तो इससे कोई आफत नहीं आ जाएगी। विकल्पहीनता की स्थिति यह है कि बसों में जगह नहीं है, अपनी गाड़ी लेकर निकलें तो पार्किंग वाला लूट लेता है। कुछ बोलो तो वही जुमला कि जो गाड़ी चला रहा है वो सौ-पचास रुपये के लिए झगड़ा क्यों कर रहा है?
हवाई जहाज में चलो तो विमान कम्पनियों ने जेबतराशी का गुर सीख रखा है। फ्लाइट कैंसिल हो जाए तो आप मुँह बाये देखते रहो। आप पाँच मिनिट लेट हो जाओ तो आपको फ्लाइट नहीं पकड़ने दी जाएगी, लेकिन फ्लाइट को दो, तीन, चार, पाँच घण्टे लेट कर दिया जाए तो आप इंतज़ार करने को मजबूर हैं। फ्लाइट बुक कराते समय आप पूरा पैसा भुगतान करते हैं। फिर फ्लाइट कम्पनी कहती है कि वेब चैक इन कर लीजिए ताकि हवाई अड्डे पर लाइन में न लगना पड़े। हम वेब चैक इन के लिए कम्प्यूटर खोलते हैं तो कम्पनी कहती है कि चैक इन करने के लिए सीट चुननी हो तो अलग से पैसे देने होंगे। हम कहते हैं कि सीट के ही तो पैसे देकर हमने टिकट बुक कराई थी। सामने से ग्राहक सेवा प्रतिनिधि कहता है कि सॉरी सर, कम्पनी पॉलिसी है, इसमें हम कुछ नहीं कर सकते।
दिल्ली में सड़क पर ट्रैफिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार ने ट्रैफिक पुलिस मुहैया करवाई है। उनको कहा गया है कि जो नियम तोड़े उसका चालान काटो। अलग-अलग ग़लती के लिए अलग-अलग जुर्माना है। किसी-किसी केस में लाइसेंस तीन महीने के लिए सस्पेंड भी किया जाता है। किसी-किसी में लाइसेंस ले लिया जाता है और वाहन चालक को कहा जाता है कि कोर्ट में जाकर चालान भुगतान करके लाइसेंस कोर्ट से लेना होगा। कोर्ट के नाम से घबराया नागरिक पुलिसवाले से अनुरोध करता है कि कोर्ट का चालान न कीजिये। पुलिसवाला कोर्ट के इस भय को समझता है, इसलिए जिसे भी पकड़ता है उसे सीधा बोलता है कि लाइसेंस जब्त होगा और तीन/चार हज़ार का चालान होगा। शिकंजे में फँसा आदमी गिड़गिड़ाने लगता है, पुलिसवाला दया से भरकर उससे पाँच-सात सौ रुपये ऐंठता है और कभी सौ रुपये का चालान बनाकर, और कभी वह भी बनाए बिना उसे चलता करता है।
इसमें यह कहा जा सकता है कि जिसने ग़लती की है उसका जुर्माना तो होना ही चाहिए। बेशक़ उसका जुर्माना होना चाहिए लेकिन इस जुर्माने की आड़ में सड़क पर हैरासमेंट कतई उचित नहीं है। ट्रैफिक पुलिस की आँखों के सामने चौराहों पर भिक्षावृत्ति होती है, एक वर्ग विशेष की भूषा बनाकर ताली बजा-बजाकर सरेआम लूट होती है।
जिन सड़कों पर चलने का दंड भुगतना पड़ता है, उनकी तीन में से दो लेन तक रेहड़ी, रिक्शा, बसें खड़ी रहती हैं। बाएँ मुड़नेवाले दाहिनी लेन में चलते हैं, दाएँ मुड़नेवाले बाएँ मुड़नेवालों का रास्ता रोक लेते हैं। सामान्य गति में चल रहे वाहन को हॉर्न बजा-बजाकर परेशान किया जाता है। सड़क टूटी हो तो महीनों तक उसकी मरम्मत नहीं होती, कोई गाड़ी ख़राब हो जाए तो उसे हटाने की कोई व्यवस्था नहीं है, सर्विस रोड पर दुकानें खुली हुई हैं, फुटपाथ पर खोखे बने हुए हैं -इन सबके लिए सरकार की ओर से कोई निदान नहीं खोजे जाते। जिन गाड़ियों का रोड टैक्स ले रहे हो, उनके लिए पार्किंग की व्यवस्था करना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इन सब अव्यवस्थाओं और भ्रष्टाचार के लिए शिक़ायत का प्रावधान नहीं है। वह टुनटुना भी जनता के हाथ में थमाया गया है लेकिन वह इतना पेचीदा है कि उसमें चाबी भरते-भरते बंदे के हाथ लहूलुहान हो जाते हैं, लेकिन उस खिलौने की गरारी नहीं घूमती। सुना है कि उसकी गरारी में ज़ंग लग गया है जिसमें रुपयों की ग्रीस डाले बिना काम नहीं बनता।
औरतें रोती हैं तो उनके पक्ष में कानून बना दिया जाता है। सरकारों की जय-जयकार हो जाती है। बाद में पता चलता है कि उस कानून का दुरुपयोग करके कई निर्दाेष परिवार बर्बाद किये जा रहे हैं। सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह इस कानून को बदलकर अपना वोट बैंक गँवाने की मूर्खता नहीं करना चाहती। कोई वर्ग विशेष चिल्लाता है तो सरकार उनके हाथ में ब्रह्मास्त्र दे देती है कि तुम हमें वोट देना, इसके बदले में जिस मर्ज़ी पर आरोप लगाकर उसे गिरफ़्तार करवा सकते हो।
स्कूलों में एडमिशन कराने जाओ तो लुटो, अस्पताल में इलाज कराने जाओ तो लुटो, सरकारी बस में चलो तो कष्ट सहो, सरकारी रेल में चलो तो लेट होते रहो, सरकारी दफ़्तर में काम पड़ जाए तो टेबल-टू-टेबल चढ़ावा चढ़ाते रहो, पासपोर्ट बनवाओ तो अपनी सही जानकारियों को सही कहने के लिए भी इंवेस्टिंग अफसर को चढ़ावा चढ़ाओ, रोते हुए थाने में जाओ तो अपनी असली समस्या को भूलकर पुलिसवालों से जान छुड़ाने का उपाय खोजते फिरो, अदालत में जाओ तो शिकायत करने के लिए वक़ील पर आश्रित रहो, शिक़ायत हो जाए तो तारीखों और दफ़ाओं के फेर में ज़िन्दगी बिता दो। कुल मिलाकर भारतीय जनता के पास एक ही विकल्प है कि वह सरकारों और राजनैतिक दलों के कौतुक देखती रहे और नुक्कड़ की बहस में अपने विरोधी को यह बताने का प्रयास करे कि जिस मुर्गे की तुम तरफ़दारी कर रहे हो, वह तो गर्दन के नीचे वार करता रहा, हमारे वाले मुर्गे ने तो सीधे टेंटुए पर चोंच मारी है।
भारतीय नागरिक इस दुनिया का सर्वाधिक लाचार लेकिन अधिकार प्राप्त प्राणी है, क्योंकि हमारे देश में जनहित सर्वाेपरि है।

© चिराग़ जैन

Thursday, August 8, 2019

कश्मीर विलय

बड़बोलों को भी तो समझा लो 
नकेल कोई डालो 
इन्हें भी ज़रा टोक दीजिये 

कोढ़ मिटा है लेकिन मद में बिल्कुल फूल नहीं जाना 
जिसमें घृणा पढ़ाई जाए, उस स्कूल नहीं जाना 
जश्न मनाना लेकिन हरगिज़ आउट ऑफ रूल नहीं जाना 
उनकी इज़्ज़त, अपनी इज़्ज़त, इसको भूल नहीं जाना 
अपने मन को भी कुछ तो खंगालो 
घृणा है तो मिटा लो 
प्यासों को अपनी ओक दीजिये 

बिगड़े बच्चे घर आए हैं, उनको थोड़ा प्यार करो 
ताने दे-देकर मत उनको, लड़ने को तैयार करो 
जो झुकता है, वही फलेगा, इस सच का विस्तार करो 
जो भी हैं, जैसे भी हैं, अपने हैं ये स्वीकार करो 
छोटे भाइयों को गले से लगा लो 
ओ फेसबुक वालो 
ज़ुबानी जंग रोक दीजिये 

© चिराग़ जैन

RAJENDRA RAJAN : राजेन्द्र राजन : हिंदी गीत की साकार प्रतिभा


किसी की भावनाओं का सत्कार करना, प्रेम है। किसी की अनुभूतियों को शब्द में ढलने से पहले ही अक्षरशः समझ लेना, प्रेम है। किसी के अभीष्ट को अपनी आकांक्षाओं से अधिक वरीयता देना, प्रेम है। अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का कौशल, काव्य सृजन की प्रथम अर्हता है। यही कारण है कि प्रेमजन्य समर्पण, मनुष्य को कवि बनाता है और कवि को बेहतर कवि।
जब कोई प्रेम में होता है तो कविता की ओर उसकी रुचि बढ़ जाती है। चूँकि मनुष्य जीवन में एक बार प्रेम अवश्य करता है इसीलिए मनुष्य जीवन में एक बार कविता भी अवश्य लिखता है। जीवन के इस मोड़ से कुछ लोग कविता का राजमार्ग पकड़कर प्रेम की स्मृतियों को सजीव बनाए रखते हैं, और बाक़ी लोग कविता, प्रेम और उसकी स्मृतियाँ वहीं छोड़कर दुनियादारी की पगडंडियों में ग़ुम हो जाते हैं।
राजेन्द्र राजन जी इन दोनों प्रकार के लोगों से विलग हैं। वे न तो कविता के राजमार्ग की ओर आकृष्ट हुए, न ही दुनियादारी के जंजाल में ग़ुम हुए। वे तो उसी गाम पर ठहरकर गीत के एक ऐसे विराट वृक्ष बन गए, जिसकी डालियाँ काव्य के राजमार्ग पर बढ़नेवाले पथिकों को भी छाँव देती रहती हैं और दुनियादारी में खो चुके लोगों को भी उनके खो चुके हरेपन का एहसास कराती रहती हैं।
राजमार्ग वाले बटोही स्वयं के कवि होने का दम्भ लिए लोकप्रियता की अंधी दौड़ में दौड़ते रहते हैं और पगडंडियों के जंजाल में फँसे लोग रोज़मर्रा की उलझनों का हल ढूंढते रह जाते हैं। लेकिन भावनाओं और विवशताओं के जंक्शन पर खड़ा यह कल्पवृक्ष अनवरत गीतपुष्पों की वर्षा करता रहता है। यह स्वयं चलकर कहीं नहीं जाता, लेकिन कोई इसके साए में से गुज़रता है, तो यह बिना कहे उसे गुनगुनाहट की महक और संवेदनाओं की ऑक्सीजन से सराबोर कर देता है।
राजन जी के गीतों की सहजता, उनकी इसी निस्पृहता का सुफल है। वे मिलन और विरह को एक साथ गुनगुनाते हैं। वे प्रेम के पूरब और पश्चिम को अपने एक गीत से जोड़ने की क्षमता रखते हैं। वे किसी भी एक ओर झुके हुए नहीं दिखाई देते, इसी कारण वे लिख पाते हैं कि-

केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का,
इक गीत तुम्हारे खोने का

जिस गीतकार ने मिलने और खोने, दोनों अवसरों में कविता की तलाश कर ली हो, उसे स्थितप्रज्ञ कहा जा सकता है। राजन जी के लिए जीवन की हर परिस्थिति को गीत कर देना ही श्वासों की सार्थकता रहा। उन्होंने संसार से कभी कोई अपेक्षा भी नहीं की। उनकी अभिलाषा रही कि उन्हें नित्य क्षीण होती उनकी देह के साथ एकाकी छोड़ दिया जाए, ताकि इस क्षरण को गीत बनाने में उन्हें कोई बाधा न झेलनी पड़े-

माना अंधियारे कोने हैं
जिन कोनों में मैं रहता हूँ
जिस पल का प्रारब्ध रुदन है
उस पल भी हँसता रहता हूँ
टूट रहा हूँ- हर पल, हर पग
मांग रहा हूँ फिर भी ओ जग
मुझसे मेरे अंग न छीनो
मुझसे मेरे रंग न छीनो

राजन जी का व्यक्तित्व, एक संपूर्ण कवि का व्यक्तित्व है। गहराई बढ़ने के साथ-साथ समुद्र के चेहरे पर जो शांति घटित होती है, वह राजन जी के व्यक्तित्व में आसानी से दिखाई देती है। वे नैराश्य के अंधियारे को आशा की एक किरण थमाने में विश्वास रखते हैं-

तीरगी में इक उजाले कि किरण मिल जाए बस
इससे ज़्यादा चाहिए भी क्या किसी फ़नकार से

वे किसी का मन हल्का करने के लिए अपने पूरे व्यक्तित्व को एक कंधा बना देने के पक्ष में दिखाई देते हैं-

भले ही देर तक सुनता रहा हूँ उसका अफ़साना
मगर मैं और सुन लूंगा, कि उसका मन तो हल्का हो

यदि कवि की कविताओं से उसके व्यक्तिगत अनुभवों का चित्र बनाना समीचीन हो तो राजेन्द्र राजन जी के गीतों में झाँककर देखा जा सकता है कि उनके अनुभवों में प्रेम की ऐसी गहन अनुभूतियों का एक किरदार श्वास लेता है, जिसके निमीलित नयनों की कोरों पर अश्रु खिलखिलाते हैं और सूखे हुए अधरों से मुस्कुराहट बहती है।
वे प्रेम की भीगी हुई यादों को गुनगुनाते हुए भी उतने ही संतुष्ट दिखते हैं, जितने सहज प्रेम की भोगी हुई यामिनियों को गाते हुए दिखते हैं। राजन जी सप्रयास कवि नहीं बने हैं। सप्रयास कवि बना भी नहीं जा सकता। वे तो अन्तस में बहती कविता की धारा में से गीत की अंजुरी भरने का कौशल जानते हैं। निजी अनुभूतियों को अलगनी पर लटकाकर उनसे टपकते रस का चित्र उकेरने की क्षमता है उनके पास। ‘सुख की भूख न दुःख की चिंता’ जैसे मन की साधना से प्रस्फुटित उनका रचनाकार अपने समय की प्रेम मनोदशाओं का ऐसा कैमरा बना, जो गणपति भाव से अपनी आँखों को कान बनाकर अनुभूत को शब्द देता रहा। उन्होंने कहा भी है-

एहसासों के संबंधों में आँखों की भाषा मुखरित है
जिन रिश्तों को मन छूता है, हाथों से छूना वर्जित है

© चिराग़ जैन