भारत जवान दिखने और खोई जवानी वापस पाने के विज्ञापन करता रह गया और दुनिया बूढ़ा दिखाने वाली फेसबुक एप्प पर मर मिटी। अपने आपको जवानी के बाद के अधेड़ या वृद्ध गेटअप में देखकर लोग बड़े ख़ुश हुए। हमें कभी इस तरह की किसी तकनीक की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।
हमारे देश में ग़रीबी और बेरोज़गारी का आलम यह है कि अपनी आयु से दस-पाँच वर्ष अधिक तो सब लगते ही हैं। जिसे और अधिक बूढ़ा दिखने का चाव हो, वह सरकारी अस्पतालों और सरकारी दफ़्तरों से रिश्ता जोड़ ले। इससे भी अधिक बूढ़ा दिखना हो, तो उसके लिए सरकार ने थाने खोल दिये हैं। और जिसे यह जानना हो कि वह मरणासन्न होगा तो कैसा लगेगा, उसके लिए न्यायालय की व्यवस्था है। यहाँ तो संकट जवान रहने का था। बूढ़े होने के लिए तो हमें कुछ करना ही नहीं है। भारतीय संस्कृति में ये व्यवस्थाएँ पहले से मौजूद हैं, जिनको नए आविष्कार कहकर पश्चिम ढोल पीट रहा है।
बच्चे मोबाइल पर एक खेल खेलते हैं, ‘सब-वे सर्फ़र्स’। यह खेल भी कोई नया आविष्कार नहीं है। हमारे देश के हर नागरिक के साथ हमारा तंत्र यह खेल लगातार खेलता रहता है। जब तक भागते रहोगे, तब तक ज़िंदा रहोगे। तंत्र रास्ते में अड़चन पैदा करता रहेगा, लेकिन हमें उन सबसे बचकर भागते रहना है। अगर किसी अड़चन से टकराने की भूल की, वहीं चारों खाने चित्त कर दिए जाओगे। भागो और कमाओ। कमा-कमा कर बैंक में जोड़ो, फिर कहीं किसी से टकराने की चूक करो और निपट जाओ। जैसे ही आप निपटेंगे, बाक़ी के सबवे-सर्फ़र्स आपकी उठावनी में यह बोलकर आगे भाग जाएंगे कि- ‘किसके पीछे भागे बंदे, सब कुछ यहीं रह जाना है।’
हमारे पास जनसंख्या की बहुतायत है, इसलिए हमारा तंत्र जनता से खेलता है। उनके पास लोग कम हैं, धन अधिक। इसलिए वे लोग लूडो भी सोने की गोटियों से खेलते हैं। हम मोबाइल में देखकर उनकी नक़ल करने निकले हैं। जबकि हम तो वास्तव में असलवाले लोग हैं। वो खेल खेलते हैं, हम खिलवाड़ करते हैं। हमारी बराबरी करने में उनके पसीने छूट जाएंगे। उनकी वीडियोगेम में रेस पूरी करने के लिए रास्ते में आने वाली गाड़ी, मनुष्य, पुलिसमैन सबको उड़ाने की छूट होती है। यह खेल हमारे देश में सड़कों पर रोज़ देखने को मिलता है। कभी-कभी तो स्पष्ट नहीं होता कि हमारी सड़कों से वीडियोगेम ने क्रूरता और अभद्रता सीखी है या वीडियोगेम ने खेल-खेल में हमारी पीढ़ियों से करुणा और सभ्यता छीन ली हैं।
लट्टू खेलने वाले लड़के कील पर सलीके से नाड़ा लपेट कर गतिमान लट्टू को उंगली पर नचाने का संतुलन जानते थे तो उन्हें ‘लफंडर’ और आवारा कहा जाता था, लेकिन आज पाँच सौ रुपये का बेब्लेड चलाना बच्चे का स्टेटस सिंबल हो गया है। छुपम-छुपाई और आँख-मिचौनी खेलने वाली लड़कियाँ आवारा थीं, और फाइव स्टार में जाकर दस हज़ार रुपये की एंट्री टिकट में हाइड एंड सीक खेलने वाली मैडम मॉडर्न हैं। खो-खो गँवारों का खेल है और म्यूजिकल चेयर्स एडवांस्ड लोगों का। इमली के बीज घिसकर अष्टा-च्वंगा-पैं खेलना गुनाह था, लेकिन तंबोला और पोकर खेलना स्टाइल है। स्टापू, गिट्टे, पिट्ठू गरम, कबड्डी और गिल्ली-डंडा छीनकर हमारे मुहल्ले में जिम खोल दिया गया है। जिन हवाओं में पतंगें उड़ती थी वहाँ मोबाइल का नेटवर्क बिछ गया है। साथ ही मोबाइल डाटा भी ख़ूब सस्ता है। बिस्तर पर पड़े-पड़े मोबाइल पर गेम खेलते रहो ताकि गर्दन, आँखें सीधे और बाक़ी का शरीर परोक्ष रूपेण अस्वस्थ होता रहे। फिर उसी मोबाइल पर नियरेस्ट जिम ढूंढो ताकि फेसबुक पर लिख सको ‘बीइंग हेल्थ कॉन्शियस’!
© चिराग़ जैन