किसी की भावनाओं का सत्कार करना, प्रेम है। किसी की अनुभूतियों को शब्द में ढलने से पहले ही अक्षरशः समझ लेना, प्रेम है। किसी के अभीष्ट को अपनी आकांक्षाओं से अधिक वरीयता देना, प्रेम है। अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का कौशल, काव्य सृजन की प्रथम अर्हता है। यही कारण है कि प्रेमजन्य समर्पण, मनुष्य को कवि बनाता है और कवि को बेहतर कवि।
जब कोई प्रेम में होता है तो कविता की ओर उसकी रुचि बढ़ जाती है। चूँकि मनुष्य जीवन में एक बार प्रेम अवश्य करता है इसीलिए मनुष्य जीवन में एक बार कविता भी अवश्य लिखता है। जीवन के इस मोड़ से कुछ लोग कविता का राजमार्ग पकड़कर प्रेम की स्मृतियों को सजीव बनाए रखते हैं, और बाक़ी लोग कविता, प्रेम और उसकी स्मृतियाँ वहीं छोड़कर दुनियादारी की पगडंडियों में ग़ुम हो जाते हैं।
राजेन्द्र राजन जी इन दोनों प्रकार के लोगों से विलग हैं। वे न तो कविता के राजमार्ग की ओर आकृष्ट हुए, न ही दुनियादारी के जंजाल में ग़ुम हुए। वे तो उसी गाम पर ठहरकर गीत के एक ऐसे विराट वृक्ष बन गए, जिसकी डालियाँ काव्य के राजमार्ग पर बढ़नेवाले पथिकों को भी छाँव देती रहती हैं और दुनियादारी में खो चुके लोगों को भी उनके खो चुके हरेपन का एहसास कराती रहती हैं।
राजमार्ग वाले बटोही स्वयं के कवि होने का दम्भ लिए लोकप्रियता की अंधी दौड़ में दौड़ते रहते हैं और पगडंडियों के जंजाल में फँसे लोग रोज़मर्रा की उलझनों का हल ढूंढते रह जाते हैं। लेकिन भावनाओं और विवशताओं के जंक्शन पर खड़ा यह कल्पवृक्ष अनवरत गीतपुष्पों की वर्षा करता रहता है। यह स्वयं चलकर कहीं नहीं जाता, लेकिन कोई इसके साए में से गुज़रता है, तो यह बिना कहे उसे गुनगुनाहट की महक और संवेदनाओं की ऑक्सीजन से सराबोर कर देता है।
राजन जी के गीतों की सहजता, उनकी इसी निस्पृहता का सुफल है। वे मिलन और विरह को एक साथ गुनगुनाते हैं। वे प्रेम के पूरब और पश्चिम को अपने एक गीत से जोड़ने की क्षमता रखते हैं। वे किसी भी एक ओर झुके हुए नहीं दिखाई देते, इसी कारण वे लिख पाते हैं कि-
केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का,
इक गीत तुम्हारे खोने का
जिस गीतकार ने मिलने और खोने, दोनों अवसरों में कविता की तलाश कर ली हो, उसे स्थितप्रज्ञ कहा जा सकता है। राजन जी के लिए जीवन की हर परिस्थिति को गीत कर देना ही श्वासों की सार्थकता रहा। उन्होंने संसार से कभी कोई अपेक्षा भी नहीं की। उनकी अभिलाषा रही कि उन्हें नित्य क्षीण होती उनकी देह के साथ एकाकी छोड़ दिया जाए, ताकि इस क्षरण को गीत बनाने में उन्हें कोई बाधा न झेलनी पड़े-
माना अंधियारे कोने हैं
जिन कोनों में मैं रहता हूँ
जिस पल का प्रारब्ध रुदन है
उस पल भी हँसता रहता हूँ
टूट रहा हूँ- हर पल, हर पग
मांग रहा हूँ फिर भी ओ जग
मुझसे मेरे अंग न छीनो
मुझसे मेरे रंग न छीनो
राजन जी का व्यक्तित्व, एक संपूर्ण कवि का व्यक्तित्व है। गहराई बढ़ने के साथ-साथ समुद्र के चेहरे पर जो शांति घटित होती है, वह राजन जी के व्यक्तित्व में आसानी से दिखाई देती है। वे नैराश्य के अंधियारे को आशा की एक किरण थमाने में विश्वास रखते हैं-
तीरगी में इक उजाले कि किरण मिल जाए बस
इससे ज़्यादा चाहिए भी क्या किसी फ़नकार से
वे किसी का मन हल्का करने के लिए अपने पूरे व्यक्तित्व को एक कंधा बना देने के पक्ष में दिखाई देते हैं-
भले ही देर तक सुनता रहा हूँ उसका अफ़साना
मगर मैं और सुन लूंगा, कि उसका मन तो हल्का हो
यदि कवि की कविताओं से उसके व्यक्तिगत अनुभवों का चित्र बनाना समीचीन हो तो राजेन्द्र राजन जी के गीतों में झाँककर देखा जा सकता है कि उनके अनुभवों में प्रेम की ऐसी गहन अनुभूतियों का एक किरदार श्वास लेता है, जिसके निमीलित नयनों की कोरों पर अश्रु खिलखिलाते हैं और सूखे हुए अधरों से मुस्कुराहट बहती है।
वे प्रेम की भीगी हुई यादों को गुनगुनाते हुए भी उतने ही संतुष्ट दिखते हैं, जितने सहज प्रेम की भोगी हुई यामिनियों को गाते हुए दिखते हैं। राजन जी सप्रयास कवि नहीं बने हैं। सप्रयास कवि बना भी नहीं जा सकता। वे तो अन्तस में बहती कविता की धारा में से गीत की अंजुरी भरने का कौशल जानते हैं। निजी अनुभूतियों को अलगनी पर लटकाकर उनसे टपकते रस का चित्र उकेरने की क्षमता है उनके पास। ‘सुख की भूख न दुःख की चिंता’ जैसे मन की साधना से प्रस्फुटित उनका रचनाकार अपने समय की प्रेम मनोदशाओं का ऐसा कैमरा बना, जो गणपति भाव से अपनी आँखों को कान बनाकर अनुभूत को शब्द देता रहा। उन्होंने कहा भी है-
एहसासों के संबंधों में आँखों की भाषा मुखरित है
जिन रिश्तों को मन छूता है, हाथों से छूना वर्जित है
© चिराग़ जैन
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