Friday, August 23, 2019

लाक्षागृह का अतिथि

लाक्षागृह का अतिथि आख़िर, कैसे प्राण बचाए 
इससे वो ही बच पाया, जो औरों को मरवाए 

न्याय भवन में जनहित का इक ढोंग चलाया जाता है 
ऊँची-ऊँची बातें करके पास बुलाया जाता है 
फिर धोखे से इस चौसर के पासे बदले जाते हैं 
इस दलदल में धर्मराज तक अपराधी बन जाते हैं 
सिंहासन तन-मन से अंधा, वीर पड़े मुँह बाए 
लाक्षागृह का अतिथि आख़िर, कैसे प्राण बचाए 

न्याय, मूर्ति बनकर बैठा है, षड्यंत्रों का मेला है 
नियमों का इक चक्रव्यूह है, जिसमें सत्य अकेला है 
आरोपी पर धाराओं के शस्त्र चलाए जाते हैं 
नियमों का खिलवाड़ बनाकर वीर गिराए जाते हैं 
सच के साथी प्रथम द्वार तक, पार नहीं कर पाए 
लाक्षागृह का अतिथि आख़िर कैसे प्राण बचाए 

वो जिसने आरोप लगाया, उससे प्रश्न करेगा कौन 
ढोंग किसी का, क्षोभ किसी का, लेकिन मोल भरेगा कौन 
राजभवन के जयकारों की क़ीमत कौन चुकाता है 
सत्ता का अन्याय जगत् में मर्यादा कहलाता है 
सच ख़ुद को साबित करता है, झूठ खड़ा इतराए 
लाक्षागृह का अतिथि आख़िर कैसे प्राण बचाए 

© चिराग़ जैन

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