‘जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो’ -ये भारतीय पत्रकारिता के प्रारंभिक तेवर थे। संपादन और क्रांति एक-दूसरे के पूरक थे। संपादकों को भाषा का ज्ञान इतना था कि अख़बार में छपे शब्द वर्तनी का प्रमाण होते थे। अख़बार का काग़ज़ खोटा होता था, पर ख़बरें खरी होती थीं। काली स्याही से जो अख़बार में छप गया, वह इतिहास में दर्ज हो गया।
संपादकीय टिप्पणी के एक-एक वाक्य में सत्ता की चूल हिलाने का सामर्थ्य होता था। 15 अगस्त 1947 को आज़ादी की जो फ़सल हमने काटी उसके खेत की सिंचाई में पत्रकारों का क़ाफ़ी ख़ून-पसीना शामिल था।
आज़ादी के पाँच दशक बाद पत्रकारिता में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव हुए। एक तो अब तक टेलिविज़न भारत में दुर्लभ नहीं रह गया था, दूसरे उद्योग जगत् को अख़बार की आड़ में अपने राजनैतिक हित साधने और औद्योगिक घपले छिपाने का फार्मूला मिल गया। अब तक अख़बार के मुताबिक़ जनता चलती थी अब जनता के मुताबिक़ अख़बार चलने लगे। उधर टेलिविज़न पर श्री सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने न्यूज़ रीडिंग को न्यूज़ एंकरिंग में तब्दील करने का पहला प्रयोग ‘आज तक’ नामक समाचार बुलेटिन में किया। लगभग इसी दौरान सुश्री नलिनी सिंह ने ‘आँखों देखी’ के माध्यम से प्रोग्रामिंग और न्यूज़ बुलेटिन के सम्मिश्रण का सफल प्रयोग किया।
इधर ये दोनों कार्यक्रम सफलता के चरम पर थे, उधर चौबीस घण्टे के समाचार चैनल्स की अवधारणा भारत में शुरू हो गई। श्री एस पी सिंह ने जो न्यूज़ एंकरिंग शुरू की थी वह सबसे पहले, सबसे तेज़, सबसे आगे, नम्बर वन और सनसनीखेज़ समाचारों के जंगल में ऐसी फँसी कि उसमें से न्यूज़ ग़ायब हो गई और केवल एंकरिंग शेष रह गई।
ठीक इसी समय प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से प्रतिद्वंद्विता और औद्योगिक घरानों की लाभप्रधान नीतियों के रोग से ग्रस्त होकर ऐसा रंगीन हुआ कि उसमें कुछ भी ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ नहीं बचा। संपादकीय पृष्ठों पर लगने वाली ऊर्जा ‘पेज थ्री’ को ग्लैमरस बनाने में नष्ट होने लगी। सेलिब्रिटी मैनेजर्स को संपादकों से अधिक महत्वपूर्ण समझा जाने लगा। फिल्मी कलियाँ, स्टारडस्ट और मनोहर कहानियाँ जैसी मसालेदार सामग्री से अख़बार की बिक्री बढ़ाने की होड़ शुरू हो गई।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया; भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, खाना-पकाना और सास-बहू के सीरियल्स को ख़बर बनाकर; चौबीस घण्टे न्यूज़ चैनल चलाने का ढोंग करता रहा और प्रिंट मीडिया क्लासीफाइड, मेट्रीमोनियल, बॉलीवुड, क्रिकेट, ग्लैमर वगैरा से अपने-अपने पन्नों के ढेर को नम्बर वन अख़बार बताने पर तुले रहे।
बाज़ार में खड़ी पत्रकारिता के बीच ‘जनसत्ता’ बेचारा काफ़ी दिन तक उसी चौड़े आकार और काली स्याही पर अड़ा रहा; लेकिन चटपटे काग़ज़ को अख़बार समझकर ख़रीदनेवाले ग्राहकों ने जनसत्ता की दशा इतनी दयनीय कर दी कि वह बन्द होने के कगार पर आ गया। हारकर इस एकमात्र मंदिर को भी अपने चौक में दुकानें और सर्कस लगवाने पड़े ताकि पर्यटकों की चप्पलें गिनवाकर श्रद्धालुओं की संख्या में इजाफ़ा किया जा सके।
जिस पत्रकारिता में येलो जर्नलिज्म और गटर जर्नलिज्म को हेय समझा जाता था, वहाँ ‘बटर जर्नलिज्म’ तक के दर्शन होने लगे। जिस देश में, राजनीति अख़बार देखकर जनता का मूड भाँपती थी; वहाँ राजनीति का मूड देखकर, अख़बार जनमत बनाने लगे।
जनता की अनदेखी ने दूरदर्शन के सीधे-सादे समाचार बुलेटिनों और जनसत्ता जैसे साफ़-सुथरे समाचार-पत्रों को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए बाज़ारू होने पर विवश कर दिया।
जिन न्यूज़ चैनल्स को टीआरपी दे-देकर हमने सींचा है, आज वे ही किसी राजनैतिक पार्टी, किसी धन्ना सेठ और किसी मल्टीनेशनल कम्पनी के मन मुताबिक़ हमारी आँखों में धूल झोंक रहे हैं। मीडिया के इस वीभत्स रूप को धिक्कारने वाले एक बार अपने गिरेबान में झाँक कर देखें कि इस मीडिया को इतना उच्छृंखल बनाया किसने है।
जब किसी चैनल की डिबेट में पैनलिस्टों को मुर्गे की तरह लड़ाया जाता है; जब किसी स्टूडियो में बैठे एंकर शालीनता, सभ्यता और शिष्टता की समस्त मर्यादाएँ लांघते हैं; जब पीत पत्रकारिता के दम पर चार-चार दिन लोगों को मूर्ख बनाया जाता है तब भी हम पलटकर दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन पर नहीं लौटते। जब हम अख़बार के चालीस पन्नों में से तीस में विज्ञापन और बाकी दस में ग्लैमर और हिंसा देखते हैं, तब हम उस पत्र के दफ्तर में एक चिट्ठी नहीं लिखते कि जिन पन्नों पर ख़बर, समसामयिक लेख, साहित्य, विचार प्रधान संपादकीय छपते थे; जिनमें छपा ‘बच्चों का कोना’ पढ़कर हमारा बचपन अख़बार पढ़ना सीखा है; उन पर ये क्या छाप कर हमारी बालकनी को गंदा कर रहे हो?
विश्वास कीजिये, बीहड़ बन चुके इस मीडिया में अभी भी उस पत्रकारिता के कुछ बीज ‘दबे हुए हैं’ जिन्हें हमारी दृष्टि का थोड़ा-सा पानी और समर्थन की थोड़ी-सी धूप मिल गई, तो ये वीराना फिर से लहलहा उठेगा।
© चिराग़ जैन
Right
ReplyDelete