नुक्कड़ का पनवाड़ी, चाय की मढ़ैया, बीड़ी-सिगरेट का खोखा, सिटी बस, लोकल ट्रेन और सार्वजनिक शौचालय की लाइन -ये सब चर्चाओं के स्वर्ग हैं। जैसे संसद में पक्ष और विपक्ष होते हैं, ऐसे ही इन चर्चाओं में भी पक्ष और विपक्ष होते हैं। विपक्ष के बिना चर्चा हो ही नहीं सकती। विपक्ष के अभाव में तो केवल गुणगान किया जा सकता है।
कुछ साल पहले तक, ‘केवल चर्चा को जारी रखने के लिए’ हर नुक्कड़ के पान की दुकान पर कुछ लोग ख़ुद को भाजपाई समझ लेते थे, और कुछ ख़ुद को कांग्रेसी। कभी पनवाड़ी फोन पर बतियाने लगता था तो भीड़ बढ़ने पर एकाध सपाई और बसपाई भी मिल जाता था। अगर पनवाड़ी का फोन कॉल लंबा चल जाए तो मनसे, झामुमो, जद, बीजद वगैरा की भी हाज़िरी लग जाती थी। फोन कॉल समाप्त होते ही पनवाड़ी तेज़ी से काम करके सब क्षत्रपों को निबटा देता था और राष्ट्रीय दलों के प्रतिनिधि चर्चा करते रहते थे। जो चर्चा से ऊब जाता था, वो अपने काम पर चला जाता; और जो काम से ऊब जाता था, वो चर्चा करने चला आता था। इन चर्चाओं में पनवाड़ी स्पीकर की भूमिका निभाता था और चर्चा को जीवित रखते हुए दोनों पक्षों को उकसाता रहता था। इस तरह वह चर्चा और पान पर एक साथ चूना लगाता रहता था।
चूँकि इन चर्चाओं से देश की राजनीति पर कोई असर नहीं पड़ता था इसलिए दोनों ही पक्ष चर्चा करते हुए उतने ही गंभीर होते थे, जितने तत्कालीन नेतागण देश को लेकर होते होंगे। इसका यह लाभ था कि चर्चा और संबंध दोनों सुरक्षित रहते थे।
इन चर्चाओं में से अधिकतम का कोई निष्कर्ष नहीं निकलता था और हर चर्चालु स्वयं ही अपने आप को विजेता समझकर मन लगाकर काम करने लग जाता था।
पिछले कुछ वर्षों से इस संस्कृति को लकवा मार गया। चर्चालुओं का स्थान श्रद्धालुओं ने ले लिया। ये श्रद्धालु चर्चा को लेकर इतने गंभीर होते हैं कि चर्चास्थल से काम पर जाने की बजाय युद्धक्षेत्र की ओर उन्मुख हो जाते हैं। चर्चास्थल से कूच करते समय दोनों ही पक्ष के श्रद्धालु सामनेवाले को शिशुपाल और स्वयं को कृष्ण समझते हुए ‘नितीश भारद्वाज’ मार्का मुस्कान लिए मन ही मन गांधारी की तरह समूल नाश का शाप दे रहे होते हैं।
इन चर्चाओं कुछ बातें ‘मान ली जाती हैं’, जैसे -
1) जो भी व्यक्ति सवाल पूछ रहा है, वह मोदी जी से ही सवाल पूछ रहा है।
2) जो भी व्यक्ति सिस्टम के किसी अंग से ख़फ़ा है, वह इनडायरेक्टली मोदी जी का विरोध कर रहा है।
3) जो मोदी जी का समर्थक नहीं है, वह राहुल गांधी का समर्थक है, इसलिए इसे समझाना बेकार है।
4) जो मोदी जी का समर्थक है, वह समर्थक नहीं, भक्त है। इसलिए इसे समझाना भी बेकार है।
5) जो मोदी जी का समर्थक नहीं है वह चोर है।
6) जो मोदी जी का विरोधी नहीं है, वह मूर्ख है।
7) जो एनडीटीवी नहीं देखता, वह ज़ीन्यूज़ देखता है।
8) जो ज़ीन्यूज़ देखता है, उसे कुछ ग़लत नहीं दिखता।
9) जो मेरे व्हाट्सएप पर आया है, वह किसी और के व्हाट्सएप पर नहीं आया, इसलिये हर अज्ञानी तक ज्ञान की रौशनी पहुँचाना मेरा कर्त्तव्य है।
10) सामनेवाले चर्चालु की आँखों पर एक चश्मा चढ़ा हुआ है, जिसे उतरवाए बिना मेरा मनुष्य जन्म सफल न हो सकेगा।
इन दस बिंदुओं को सामने रखकर चर्चा की गंगा बह निकलती है, और इन्हीं दस बिंदुओं पर हल्की-फुल्की बून्दा-बांदी, मूसलाधार बन जाती है। हर श्रद्धालु सामनेवाले श्रद्धालु को क्रमशः मूर्ख, भ्रष्ट, चोर, ग़द्दार, राष्ट्रद्रोही और पापी समझते हुए, ‘इसे तो वक़्त ही समझाएगा’ का कुंठित शाप देने लगते हैं।
जो श्रद्धालु अपने पंथ के मंदिर के जिस देवता को पूजता है, उसी के अनुरूप चर्चाभक्ति में उसकी भाषा का स्तर गिरता है। हर श्रद्धालु के पास चर्चायज्ञ में बोलने को कुछ रटे-रटाए मंत्र हैं, जिन्हें वह कठोर परिश्रम करके व्हाट्सएप फ़ॉरवर्ड पद्धति से प्राप्त करता है। चर्चा का विषय कुछ भी हो, श्रद्धालु अपने-अपने मंत्र पढ़ते रहते हैं।
चूँकि दोनों ही पक्ष एक-दूसरे के इन रटे-रटाए जुमलों से परिचित होते हैं इसलिए धार्मिक प्रार्थनाओं की तरह ये चर्चाएँ शोर पूरा करती हैं और असर शून्य।
भाजपा-कांग्रेस; राहुल-मोदी और भक्त-चमचा के आधार पर बँट रही जनता में फैलते विद्वेष को देखकर राजनीति अपने पूर्ववर्ती नेताओं का धन्यवाद ज्ञापन करती है कि जिस जनता को उन्होंने प्रजा बनकर रहना सिखाया था, वह अब श्रद्धालु बनकर एक-दूसरे से घृणा करके कितनी ख़ुश है!
© चिराग़ जैन
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