Saturday, November 21, 2020

प्रतिक्रियाहीन लोकतंत्र

देश बहुत विकट परिस्थितियों से गुज़र रहा है। राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने हमें मूलभूत आवश्यकताओं को अनदेखा करना सिखा दिया है। न्याय व्यवस्था स्वयं कठघरे में खड़ी है। जनता, अपराधियों से अधिक पुलिस से आक्रांत है। मीडिया, औद्योगिक घरानों की उंगलियों पर नाच रहा है और आद्योगिक घराने सत्तारूढ़ दल के इशारों पर... इस जंजाल में जनहित और लोकतंत्र दोनों मरणासन्न हैं।
सुव्यवस्थित प्रचार के ज़रिये राजनीति ने समाज में परस्पर विद्वेष बो दिया है। जब कोई एक व्यक्ति अपनी किसी समस्या को लेकर नम आँखों से तंत्र की ओर देखता है तब दूसरे लोग उसकी समस्या या उसके आँसुओं को सांत्वना देने की बजाय, उसकी कराह में राजनैतिक अर्थ टटोलने लगते हैं। उसके निवेदन, प्रलाप, उपालम्भ अथवा आक्रोश में किसी दल विशेष का समर्थन या विरोध तलाशने लगते हैं। 
राजनीति आपस में लड़ते इन लोगों को देखकर आश्वस्त हो जाती है कि हम कुछ भी करें, जनता हमारा विरोध तब कर सकेगी जब उन्हें आपस में लड़ने से फ़ुर्सत मिलेगी।
जनता गाली देना सीख गयी है। जो व्यक्ति दक्षिणपंथ के पक्ष में बोलेगा, उसे वामपंथियों की गाली खानी पड़ेगी। जो वामपंथ के पक्ष में बोलेगा, उसे दक्षिणपंथियों की गाली खानी पड़ेगी। जो निष्पक्ष होगा, उसे दोनों की गाली खानी पड़ेगी। 
दलितों के दम पर बने हुए राजनैतिक संगठन दलितों को यह सोचने का अवसर ही नहीं देंगे कि दलित संगठन का हित होने से दलित समाज का हित होना आवश्यक नहीं है। मुस्लिम समाज के दम पर बने राजनैतिक संगठन इस विषय पर कभी चर्चा ही न करेंगे कि इस्लामिक संगठनों के हित में तन-मन-धन न्यौछावर करने वाले मुसलमानों के जीवन पर किसी इस्लामिक लीडर के मंत्री बन जाने से क्या प्रभाव पड़ा।
राजनीति आपका यूज़ करती है। उसे विवेकशील और जिज्ञासु व्यक्ति पसंद नहीं होता। विवेकशील व्यक्ति राजनेताओं के लिये ख़तरनाक होते हैं। इसलिये आजकल बुद्धिजीवी व्यक्ति का उपहास किया जाने लगा है। बुद्धिजीवी होना किसी अपमान से कम नहीं रह गया है। ठीक इसी प्रकार ज्यों शांतिप्रिय व्यक्ति राजनीति के लिये व्यर्थ है। झगड़े नहीं होंगे तो राजनीति की महत्ता ही समाप्त हो जायेगी। सब लोग चैन से अपनी-अपनी रोटी कमाएंगे, छुटपुट विवाद हुए भी तो सभ्य पुलिस और सुव्यवस्थित न्यायालय में झटपट उनका निपटारा हो जाएगा; यदि ऐसा समाज बन गया तो कोई क्यों राजनेताओं को पूछेगा? 
यदि मुसलमान और हिंदुओं के बीच झगड़े न होंगे तो कट्टर हिन्दू नेता और कट्टर मुस्लिम नेताओं की शरण में कोई क्यों जायेगा। इसीलिये साम्प्रदायिक सद्भाव की बात करनेवाला व्यक्ति भी आजकल उपहास का पात्र बन गया है। जो लड़ाए वही योग्य व्यक्ति है। जो झगड़ा शांत कराने का उपक्रम करे, वह तो मूर्ख है। 
राजनीति ने समाज का विवेकहरण कर लिया है। पुराने समय में हमारे घर में एक केबल कनेक्शन होता था। जिसमें लगभग सभी चैनल 50, 75, 100 या 150 रुपये में आराम से देखने को मिल जाते थे। घर पर दूसरा टेलिविज़न आये तो उतने पैसों में केबलवाला दोनों टीवी केबलयुक्त कर देता था। कोई चैनल यदि केबल से प्रसारित न हो रहा हो तो केबलवाले से कहकर उसे शुरू करवा लिया जाता था। आंधी, बारिश, बादल जैसी स्थितियों में भी केबल कनेक्शन जारी रहता था। फिर हमें बताया गया कि यह केबलवाला हमें लूट रहा है। यह उन चैनल्स के भी पैसे हमसे वसूल रहा है जो हम नहीं देखते। इसलिये बुद्धिमानी इसमें है कि सेट-टॉप बॉक्स लगवाकर केवल उन चैनल्स का भुगतान किया जाये जो हमें देखने हों। हमें बात अच्छी लगी। हमने प्रारम्भ में स्वेच्छा से सेट-टॉप बॉक्स लगवाये। बाद में सरकार ने सेट-टॉप बॉक्स आवश्यक कर दिये। अब हम केवल उन्हीं चैनल्स का भुगतान करते हैं, जो हम देखते हैं; यह और बात है कि तब हम 100 रुपये में सारे चैनल देखते थे अब तीन-चार सौ रुपये में चुनिंदा चैनल्स देखते हैं। यदि आपने कोई ऐसा चैनल देखना है, जिसका प्रसारण आपके घर पर लगे सेट-टॉप बॉक्स की कम्पनी से नहीं होता है तो आप चाहकर भी उस चैनल को सब्सक्राइब नहीं कर सकते। हाँ, यह लाभ अवश्य हुआ है कि जैसे ही बाहर बादल छाएँ, पुरवा या पछुआ की हिलोर आये अथवा बरखा रानी आपके अंगना में रुनझुन का संगीत बजाए तब आपका टेलिविज़न आपको बता देता है कि टीवी के सामने बैठकर आँखें मत फोड़ो, बाहर जाकर मौसम का लुत्फ़ उठाओ!
यह है राजनीति की विवेकहरण योजना। 
प्यारे देशवासियों! राजनीति हमें हिन्दू-मुस्लिम, दलित-सवर्ण, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, स्त्री-पुरुष, बीपीएल-यूपीएल, शहर-गाँव, कांग्रेसी-भाजपाई और न जाने कितने वर्गों में बाँटकर इस स्थिति तक ले आयी है कि हम अपने हित-अहित के चिंतन से पहले राजनैतिक दलों की स्वार्थ-साधना का चिंतन करने लगे हैं। इस पथ पर न तो हमारे समाज का उत्थान होगा, न ही हमारे लोकतंत्र का..! हम एक बार ठहरकर विचार करें कि कहीं हम अपने आचरण से राजनीति को यह संदेश तो नहीं दे बैठे कि आप निश्चिंत रहें माई-बाप, हमें सब कुछ सहने की आदत है।

© चिराग़ जैन

No comments:

Post a Comment