Friday, November 6, 2020

नकारखाने में तूती की आवाज़

हम घटना और व्यक्ति में अन्तर करना क्यों नहीं सीख पाते। हमारी मान्यता ऐसी क्यों है कि जिसकी एक ग़लती सिद्ध हो गयी है, वह अन्य सब जगह भी ग़लत ही होगा। एक ही व्यक्ति एक जगह सही और दूसरी जगह ग़लत क्यों नहीं हो सकता।
हमारा समाज लम्बे समय से इस रोग से ग्रस्त है कि जिसे हमने नायक मान लिया उसके प्रत्येक कार्य को सही मान बैठे और जिसका एक कृत्य ग़लत हुआ उसके व्यक्तित्व से घृणा कर बैठे।
इसी प्रवृत्ति का दुष्परिणाम है कि जब कोई किसी राजनैतिक निर्णय का विरोध करता है तो बाक़ी सब लोग यह कहने लगते हैं कि कल तक तो तुम अमुक का समर्थन करते थे, आज विरोध कर रहे हो। यही कारण है कि किसी घटना अथवा निर्णय का विरोध या समर्थन करनेवाले को किसी व्यक्ति का विरोधी या समर्थक घोषित कर दिया जाता है।
हाल ही में हुई अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी के संदर्भ में उठने वाली आवाज़ से अर्नब, शिवसेना, भाजपा, कांग्रेस, राष्ट्रवाद, वामपंथ या अन्य किसी संज्ञा के पक्ष-विपक्ष की प्रतिध्वनि सुनने के प्रयास में हम भारतीय लोकतंत्र की उस बीमारी को अनदेखा कर रहे हैं जो बड़ी तेज़ी से उभरकर पटल पर आना चाह रही है।
अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी इस बात का प्रमाण है कि राजनीति अपने विरोधियों को दबाने के लिए कार्यपालिका का प्रयोग करती है। वहीं सुसाइड नोट में नामज़द होने के बावजूद तीन आरोपियों पर कोई कार्रवाई न होना भी इस बात का प्रमाण है कि रसूखदार लोग राजनैतिक प्रभाव से न्याय की मशीनरी से खिलवाड़ कर सकते हैं।
इस घटना से यह एक बार फिर सिद्ध हुआ है कि पुलिस जाँच में जो अपराधी सिद्ध हुआ है, वह निर्दाेष भी हो सकता है और पुलिस जिसे निर्दाेष क़रार देती है वह अपराधी भी हो सकता है। इस घटना से न तो केवल पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न लगा है, न ही केवल राजनीति की कार्यशैली का पर्दाफ़ाश हुआ है। इस घटना से उस कार्यपालिका की ईमानदारी तथा निष्ठा कठघरे में आ खड़ी हुई है, जिसके हाथों में इस लोकतंत्र ने आंतरिक सुरक्षा का दायित्व सौंपा हुआ है।
प्रश्न न तो किसी उद्धव ठाकरे का है न ही किसी संजय राउत का; मुद्दा न किसी अर्नब का है न ही किसी रिया या कंगना का। प्रश्न यह है कि इस देश में सत्ता पर क़ाबिज़ मस्तिष्कों के हाथ में कठपुतली की तरह नाचता तंत्र इस देश के लोक का कितना और कैसा कल्याण कर सकता है? प्रश्न यह है कि इस देश का कोई भी नागरिक किसी राजनैतिक गलियारे की नज़रों में खटकते ही एक पूरी क़ौम का दुश्मन कैसे बना दिया जाता है। प्रश्न यह है कि जब कोई व्यक्ति समस्त राजनैतिक दलों की समान स्वार्थवादी सोच पर सवाल उठाने की कोशिश करता है तब अचानक उसके चरित्र, उसकी राष्ट्रभक्ति, उसका व्यक्तिगत जीवन और उसकी ईमानदारी के विवाद का शोर क्यों मचने लगता है?
एक अभिनेता के रूप में शत्रुघ्न सिन्हा मेरी पसंद या नापसंद हो सकते हैं, किंतु इस आकलन से मेरी उनके राजनैतिक जीवन के प्रति राय का अनुमान क्यों किया जाता है? एक प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के किसी निर्णय से मैं सहमत या विमत हो सकता हूँ किन्तु इससे उनके व्यक्तित्व के विषय में मेरी राय का आकलन क्यों किया जाता है? मैंने कभी मुनव्वर राणा की शायरी का अनुमोदन किया हो तो इसका यह अर्थ कैसे हो गया कि मुझे उनके विवादित बयानों से भी उतनी ही मुहब्बत होगी?
पुलिस की कार्यशैली से मैं असंतुष्ट हूँ तो इसका यह तात्पर्य कैसे हो गया कि मैं पुलिस रहित समाज का पक्षधर हूँ? न्याय व्यवस्था की धीमी गति और पेचीदा औपचारिकताओं के विरोध में कुछ कहने का यह अर्थ कैसे हो गया कि मुझे न्यायपालिका से रहित अराजक लोकतंत्र चाहिये?
अगर मैं अमुक से नफ़रत नहीं करता हूँ तो इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि मैं उससे प्यार करता हूँ। ‘हाँ’ का अभाव ‘न’ नहीं है। जीत न पाने का अर्थ हार जाना नहीं है। जीवित न होने का अर्थ मर जाना नहीं है।
हम अपने पूर्वग्रहों के कारण जजमेंटल होने के आदी हो गये हैं। समाज की इसी जल्दबाज़ी का लाभ उठाकर राजनैतिक स्वार्थ साधे जा रहे हैं। आपकी एक उक्ति को संदर्भ बनाकर आपके पूरे जीवन और चरित्र का चित्र प्रस्तुत किया जाता है। और मज़े की बात यह है कि वह उक्ति भी राजनीति के तत्कालीन स्वार्थों के अनुरूप बदलती रहती है।
जब वसुंधरा राजे मैदान में होंगी तो कांग्रेसी कार्यकर्त्ता रानी लक्ष्मीबाई की मदद न करने के ग्वालियर घराने के अपराध गिनाएंगे। जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे तो भाजपाई उनके खानदान को जी भर-भर कोसेंगे और राष्ट्रद्रोही सिद्ध करेंगे। फिर जब ज्योतिरादित्य भाजपा में आ जाएंगे तो भाजपावालों से सिंधिया खानदान के लिए निर्मित सभी अपशब्द कांग्रेस वाले ख़रीद लेंगे।
नीतीश कुमार, मोदी जी को कम्यूनल कहकर इस हद तक घृणा प्रदर्शित करते हैं कि उनके माध्यम से सहायतार्थ मिलने वाला चंदा भी उनको स्वीकार नहीं होता। बाद में राजनैतिक समीकरण देखते हुए वे ही नीतीश कुमार उन्हीं मोदी जी का फोटो दिखाकर वोट मांगने लगते हैं। सारी ज़िन्दगी कांग्रेस की यशोगाथा गानेवाले सचिन पायलट, अशोक गहलोत के विरुद्ध गाली-गलौज करते हैं और फिर सब रास्ते बन्द होते देख उन्हीं अशोक गहलोत को बुज़ुर्ग बताकर उनकी शरण स्वीकार कर लेते हैं।
स्वार्थों के इस घिनौने खेल में समाज, धर्म, कार्यपालिका, पत्रकारिता और यहाँ तक कि मनुष्यता की भी बोली लगायी जा रही है। भारतीय समाज के हितैषी वे लोग नहीं हैं जो किसी के चाबी भरते ही खिलौने की तरह कलाबाज़ी खाने लगते हैं, बल्कि भारत का भविष्य उन लोगों की ओर निहार रहा है जो नकारखाने में तूती की आवाज़ को भी सुनने की क्षमता रखते हैं।

© चिराग़ जैन

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