Thursday, December 24, 2020

कांग्रेस टू बीजेपी

इक नेता जो देसी था 
बरसों से कांग्रेसी था
छंटा छँटाया दाना था
पंजे का दीवाना था
कन्टीन्यूअस विधायक था
छुटभैयों का नायक था
जब दस जनपथ जाता था
टिकटें लेकर आता था

हाथ बांध कर खड़े-खड़े
उसने कई चुनाव लड़े
लहर देश में नई चली
हाथ से कुर्सी गई चली
तबियत बहुत उदास हुई
राज्यसभा की प्यास हुई
सारे घोड़े खोल गया
मन की चाहत बोल गया
जा पहुंचा एआईसीसी
किन्तु वहाँ की एबीसी
उसे समझ पर भार मिली
लंबी एक कतार मिली
कई धुरंधर खड़े मिले
प्रभु चरणों में पड़े मिले
सूख गई सपनों की लेक
सीटें कम थी लोग अनेक
पार्टी में कुछ पद मिलता
तो उसका चेहरा खिलता
पर इसमें भी लोचा था
उसने सिर को नोचा था

कुछ दिन बाद उछाव हुआ
मध्यावधि चुनाव हुआ
पुनः टिकट का गिफ्ट मिला
मुरझाया सा फेस खिला
गया मुहर्रम ईद जगी
काडर से उम्मीद जगी
लेकिन किस्मत रूठ गयी
सब उम्मीदें टूट गयी
लोकल लीडर ठेल गए
गुपचुप गुपचुप खेल गए
परिणामों में कमल खिले
भितरघात के ज़ख्म मिले

इन ज़ख्मों को सिलने में
राहुल जी से मिलने में
साल महीने बीत गये
आस के सागर रीत गए
अब वो बिल्कुल ठाली था
हारा हुआ मवाली था
उसने हार नहीं मानी
पुनः जीतने की ठानी
छूछक, मुंडन, गौने में
पत्तल, कुल्हड़, दोने में
हर पंगत में खाता था
सबके दुःख में जाता था
जमकर जनसंपर्क किया
ग्रास रूट का वर्क किया

फिर चुनाव सिर पर आए
सारे लीडर हर्षाए
ठीक इलेक्शन से पहले
टीम सलेक्शन से पहले
ट्रैक्टर मांगा रेल मिली
अमित शाह की मेल मिली
जीवन का अद्भुत क्षण था
भजपा का आमंत्रण था

किन्तु वफ़ा को ढाल किया
राहुल जी को कॉल किया
थककर चूर हुआ भाई
लेकिन बात न हो पाई
आख़िर वो मजबूर हुआ
पंजे का लव दूर हुआ
हाथ के हाथों छला गया
बीजेपी में चला गया

© चिराग़ जैन

ऐसी-तैसी हो गयी

तुमने कैसी फसल लगाई, सत्ता कैसी हो गयी
पूरे लोकतंत्र की भाई, ऐसी तैसी हो गयी

बीजेपी ने जीएसटी का खेल खिलाया ऐसा
बाज़ारों की लुटिया डूबी, बगलें झाँके पैसा
ये जीएसटी तुमसे पाई, ऐसी तैसी हो गयी

जिस ईवीएम के घपले को कोस रहे कांग्रेसी
अब उसके नुक़सान उठाओ, इसमें लज्जा कैसी
ईवीएम तुमने चलवाई ऐसी तैसी हो गयी

सरकारी सिस्टम का सत्ता ने मिसयूज़ किया है
अपने हित में तुमने भी तो टेम्पर लूज़ किया है
तोता बन गयी सीबीआई, ऐसी तैसी हो गयी

मनमोहन की इज़्ज़त का इन सबने किया कबाड़ा
तुमने तो उस बेचारे का ऑर्डिनेंस भी फाड़ा
तुम उनके अपने थे भाई, ऐसी तैसी हो गयी

आंदोलन पर पानी छिड़के सत्ता की मनमानी
रामदेव के आंदोलन में तुमने क्या थी ठानी
सोतों पर लाठी बरसाई, ऐसी तैसी हो गयी

निजीकरण के तुमने इन पर प्रश्न अनूठे दागे
ये वाले हैं तुमसे केवल चार कदम ही आगे

© चिराग़ जैन
तुम लाए थे एफडीआई, ऐसी तैसी हो गयी

Saturday, December 19, 2020

एक टुकड़ा हिंदुस्तान

शहर में बैठकर 
गाँवों का अंदाज़ा नहीं होगा।

वहाँ ऐसे भी आंगन हैं
कि जिनके घर नहीं बाक़ी।
जहाँ खंडहर से भी बदतर घरों में
जी रहे हैं लोग
सुना है, कुछ जगह तो
खंडहरों के भी महज खंडहर बचे हैं।

समझ पाना दिनोंदिन और मुश्किल हो रहा है
कि उन मिट्टी के दड़बों में दुबककर
जो कुछेक परिवार रहते हैं
उन्हें कच्ची दीवारों से ज़ियादा क्यों तलब है
बिखर जाने की!

वहाँ कितनी ही बूढ़ी हड्डियां
ख़ुद को ही अपनी उम्र काफी कम बताती हैं।
वहाँ कितनी ही आँखें
नौकरी की चाह में घर से गए बड़के की
अब तक मुन्तज़िर हैं।
वहाँ पूरा नहीं होता किसी का ख़्वाब अब
भरपेट रोटी का!

वहाँ पर जिन घरों के लोग
झरकर गिर चुके हैं
वो घर दिन रात रस्ता देखते हैं;
कोई उन पर कभी कब्ज़ा जमाने भी नहीं आता!
वहाँ ऐसी भी बस्ती है,
कि जिसने एक मुद्दत से
बिना लाठी के सीधा चल रहा मानुष नहीं देखा।

मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ के खेत पानी को तरस कर मर चुके हैं।

मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ खेतों की लाशों पर खड़े पेड़ो की लाशों पर
कई लाशें लटकती हैं।

मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ उतरी हुई इक बाढ़ की कीचड़ में
इक नन्हीं परी
कुछ ढूंढ़ने की जिद्द लिए घण्टों मचलती है।

मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ गुज़रे हुए तूफ़ान से बाक़ी बचे
कुछ बदनसीबों को
अभी तक ख़ुद के जिंदा बच निकलने का
बहुत अफसोस होता है।

मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ वीरान रेगिस्तान में
मीलों की अपनी मिल्कियत लेकर
कोई बुढ़िया अकेली घूमती है।

ठहरकर जब कभी ये लोग
ऊपर देखते हैं,
इन्हें भगवान से अब डर नहीं लगता।
बड़ी मुद्दत से ख़ुद भगवान
छिपता फिर रहा है इन ग़रीबों से!

उसे इनकी हिक़ारत से भरी आहों का 
अंदाज़ा नहीं होगा।
शहर में बैठकर गाँवों का अंदाज़ा नहीं होगा।

© चिराग़ जैन

Friday, December 11, 2020

यह देश की पालकी है?

सभी राजनैतिक दल एक साथ मिलकर देश को एक निश्चित दिशा में ले जा रहे हैं। मीडिया वाच डॉग बनकर इस कारवां के पीछे दौड़ रहा है, ताकि देश द्रुतगति से उस दिशा में बढ़ता रहे। जनता अपने भविष्य को दाँव पर लगाकर इस कारवां में जीत-हार तलाश रही है।
यह तय करने की फ़ुरसत किसी के पास नहीं है कि सियासत ने पालकी कहकर अपने कंधों पर जो उठा रखा है, वह कहीं चकडोल तो नहीं है।
जब दर्शक-दीर्घा का उत्साह शांत होने लगता है तो कंधा दे रहा दल, जनता को जनार्दन कहकर संबोधित कर देता है। जनता, मूकदर्शक के पद से इस्तीफा देकर, पुनः शोरगुल करने लगती है। सब स्वयं को कंधा समझकर, देश का बोझ स्वयं पर महसूस करने लगते हैं और किसी न किसी दल का नाम लेकर चिल्लाने लगते हैं।
उत्साह बढ़ने पर कभी-कभार दर्शक-दीर्घा में हंगामा हो जाता है। हंगामे को दंगे में तब्दील करने के लिए दर्शक-दीर्घा में बैठे भावी राजनेता पूरी ऊर्जा झोंक देते हैं। इससे उपजे धर्मयुद्ध में जो शव गिरते हैं, उनका अंतिम संस्कार करने के लिए कारवां में बढ़ रहे कर्णधार, देश का बोझ वहीं छोड़कर दर्शक-दीर्घा में प्रकट होते हैं। अपने-अपने समर्थकों की चिताएँ सजाकर, वे परस्पर विरोधियों की चिताओं पर जाकर दंगा करनेवालों को लताड़ते हैं। इस डाँट-डपट के बीच, जेब से टोटकों की लोई निकालकर, वे वोटों की रोटियाँ भी सेंक लेते हैं।
इस समय उत्तरदायी मीडिया भी मुख्य कारवां का लालच छोड़कर, दर्शक-दीर्घा के इस घटनाक्रम की कवरेज कर रहा होता है।
हंगामा थमते ही देश के मुद्दों, देश की जनता और देश की हालत को वहीं छोड़ते हुए, सभी दल पुनः देश का बोझ लेकर उसी दिशा में बढ़ने लगते हैं। मीडिया पुनः उनके पीछे दौड़ने लगता है। जनता पुनः दर्शक-दीर्घा में बैठकर इसे देश की पालकी समझकर दाँव लगाने लगती है।

© चिराग़ जैन

Thursday, December 10, 2020

किसान आंदोलन

सड़कों पे आया रे किसान, देखे संसद को
पलकों पे आँसू के निशान, देखे संसद को

अपनी सियासत तुम ही संभालो
पैरों में चुभा बस काँटा निकालो
रूठ गए हैं जो, उनको मना लो
इनसे न बनो अनजान, देखे संसद को

अपनों से अपनों की कैसी लड़ाई
जनता है छोटी, तुम हो बड़ भाई
उनकी अड़ाई, तुम्हारी कड़ाई
ऐसे न होगा समाधान, देखे संसद को

सही और ग़लत के न पेंच लड़ाओ
घर की लगी है जो उसको बुझाओ
वो रूठे हैं तो तुम मान जाओ
किसी का न होगा नुक़सान, देखे संसद को

© चिराग़ जैन

धरना पुरुष

दिल्ली के द्वारे आकर जब धरना दिया किसानों ने
करवट तो बदली ही होगी, सरजी के अरमानों ने

भीड़ जुटी तो आँखों में फुलझड़ियां छूट रही होंगी
हाथों में खुजली, मन में झुरझुरियाँ फूट रही होंगी
अपनापन-सा दिखता होगा लाठी छाप निशानों में
करवट तो बदली ही होगी, सरजी के अरमानों ने

दिल की धड़कन बढ़ती होगी, आंदोलन के नारों से
मुँह में पानी आता होगा, पानी की बौछारों से
जन्नत का सुख मिलता होगा, फटे गलों के गानों में
करवट तो बदली ही होगी, सरजी के अरमानों ने

बैरिगेट पुलिस के जिनके क़द से छोटे पड़ते थे
रह-रहकर जो दिल्ली की सड़कों पे लोटे पड़ते थे
कैसे रोक लिया सरजी को घर पर चार जवानों ने
करवट तो बदली ही होगी, सरजी के अरमानों ने


2)
सर जी से कह दो देश में धरने का मौसम
धरने का मौसम आ गया
जंतर-मंतर पे शोरगुल करने का मौसम
करने का मौसम आ गया

सड़कों पे बहारें आई है
फिर बिल की बदली छाई है
धरनों के चरणों में तुमने
दिल्ली की सियासत पाई है
पीएम की कुर्सी बाँह में भरने का मौसम
भरने का मौसम आ गया

हे रायते के एक्सपर्ट जगो
हे धरनों के सरताज जगो
मफलर की गेट अप में आओ
जनता की सुनो आवाज़ जगो
अड़कर सत्ता के शीर्ष से लड़ने का मौसम
लड़ने का मौसम आ गया

© चिराग़ जैन