गाँवों का अंदाज़ा नहीं होगा।
वहाँ ऐसे भी आंगन हैं
कि जिनके घर नहीं बाक़ी।
जहाँ खंडहर से भी बदतर घरों में
जी रहे हैं लोग
सुना है, कुछ जगह तो
खंडहरों के भी महज खंडहर बचे हैं।
समझ पाना दिनोंदिन और मुश्किल हो रहा है
कि उन मिट्टी के दड़बों में दुबककर
जो कुछेक परिवार रहते हैं
उन्हें कच्ची दीवारों से ज़ियादा क्यों तलब है
बिखर जाने की!
वहाँ कितनी ही बूढ़ी हड्डियां
ख़ुद को ही अपनी उम्र काफी कम बताती हैं।
वहाँ कितनी ही आँखें
नौकरी की चाह में घर से गए बड़के की
अब तक मुन्तज़िर हैं।
वहाँ पूरा नहीं होता किसी का ख़्वाब अब
भरपेट रोटी का!
वहाँ पर जिन घरों के लोग
झरकर गिर चुके हैं
वो घर दिन रात रस्ता देखते हैं;
कोई उन पर कभी कब्ज़ा जमाने भी नहीं आता!
वहाँ ऐसी भी बस्ती है,
कि जिसने एक मुद्दत से
बिना लाठी के सीधा चल रहा मानुष नहीं देखा।
मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ के खेत पानी को तरस कर मर चुके हैं।
मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ खेतों की लाशों पर खड़े पेड़ो की लाशों पर
कई लाशें लटकती हैं।
मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ उतरी हुई इक बाढ़ की कीचड़ में
इक नन्हीं परी
कुछ ढूंढ़ने की जिद्द लिए घण्टों मचलती है।
मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ गुज़रे हुए तूफ़ान से बाक़ी बचे
कुछ बदनसीबों को
अभी तक ख़ुद के जिंदा बच निकलने का
बहुत अफसोस होता है।
मेरे हिन्दोस्तां का एक टुकड़ा
आज भी वो है,
जहाँ वीरान रेगिस्तान में
मीलों की अपनी मिल्कियत लेकर
कोई बुढ़िया अकेली घूमती है।
ठहरकर जब कभी ये लोग
ऊपर देखते हैं,
इन्हें भगवान से अब डर नहीं लगता।
बड़ी मुद्दत से ख़ुद भगवान
छिपता फिर रहा है इन ग़रीबों से!
उसे इनकी हिक़ारत से भरी आहों का
अंदाज़ा नहीं होगा।
शहर में बैठकर गाँवों का अंदाज़ा नहीं होगा।
शहर में बैठकर गाँवों का अंदाज़ा नहीं होगा।
© चिराग़ जैन
No comments:
Post a Comment