Sunday, February 14, 2021

प्रेम : पावनता का द्वार

एक पहर ठहरी सखी, कान्हा जी के ठौर।
पहुँची कोई और थी, लौटी कोई और।।
योगेश छिब्बर जी का यह दोहा भारत में प्रेम के उत्कर्ष को समझने के लिये पर्याप्त हैं। भारत में प्रेम का चरम यह है कि मीरा ने जो प्रेमगीत रचे, वे भक्ति की मानक कविताएँ बनकर जग में प्रसिद्ध हुए। यह भारतीय संस्कृति ही है कि यहाँ प्रेम और भक्ति के बीच की योजक रेखा पर सर्वश्रेष्ठ साहित्य रचा जाता है।
यहाँ साकार और निराकार के भेद को समझने के लिये अकेले राधा का प्रेम समझना पर्याप्त हो सकता है। यहाँ सुभद्रा और अर्जुन के प्रेम का सम्मान करने के लिये स्वयं कृष्ण अपने वंश की परंपरा को तोड़ने का बीड़ा उठाते हैं। यहाँ शबरी का प्रेम, प्रतीक्षा की गहरी नदी में खड़े-खड़े इतना निश्छल हो जाता है कि स्वयं श्रीराम उसके कौतूहल का सम्मान करते हुए अतिथि सत्कार की टूटती हुई परंपरा को अनदेखा कर देते हैं।
यहाँ भक्ति कब प्रेम बन जाए और प्रेम कब भक्ति बन जाए, इसका अनुमान लगाना कठिन है।
हमारे यहाँ वसन्त का मौसम प्रेम का मौसम माना गया है, साथ ही वसन्त पंचमी का दिन ज्ञान की देवी सरस्वती को भी समर्पित है। मदनोत्सव के साथ सरस्वती के पूजन का यह संयोग भारतीय संस्कृति के संतुलन प्रमुख होने का सबसे बड़ा प्रमाण है।
प्रेम, मनुष्य होने की पहली अर्हता है, अतएव प्रेम के अभाव में मनुष्यता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रेम और पवित्रता का अनुप्रास हमारे देश की अधिकतम प्रेम कथाओं में सहज ही घटित हो जाता है।
राधा और कृष्ण को प्रतीक मानकर रचा गया श्रृंगार हमारे प्रेम को सगुण और निर्गुण के मध्य ऐसे नखत की तरह जड़ देता है कि एक भी पंक्ति अपनी मर्यादा की धुरि से रंचमात्र भी इधर-उधर नहीं हो पाती।
प्रेम से आपूरित हृदय स्वयं तो सुन्दर होता ही है, साथ ही वह अपने आसपास के वातावरण को भी सुन्दर बनाता चलता है। वह पारिजात के उस वृक्ष के समान होता है जो अंधियारी रात जैसे जीवन में भी इस विश्वास के साथ भरपूर खिलता है कि यदि अंधियारे के कारण उसके सौंदर्य को कोई न भी भोग सका, तो भी उसकी सुवास से कुछ पहर तो रात का वीराना सँवर ही जाएगा। यही निस्पृहता हमारे प्रेम को विशेष बना देती है।
एक बात और, प्रेम कभी घटता-बढ़ता नहीं है। वह तो जब अपने पूरे सौष्ठव के साथ किसी सम्बन्ध में रम जाता है तो फिर धरती में गड़े किसी बीज के समान उस पर अपनत्व, अधिकार, विश्वास और दायित्व-बोध के फूल खिलते हैं। यह लौकिक प्रेम की सहज नियति है। जो लोग इस नियति को स्वीकार न करके इन फूलों को अनदेखा करके, उसी बीज की तलाश में सम्बन्ध की जड़ खोदने लगते हैं, वे सब कुछ खो बैठते हैं।
प्रेम, जीवन में घटित होनेवाली सबसे स्वाभाविक, सहज और सुन्दर घटना है। इसकी शाखाओं का विस्तार इसके बीज के अस्तित्व का साक्षी है, इसका पल्लवन इसके बीज के समर्पण का गवाक्ष है। इसे केवल समय और स्थान की आवश्यकता होती है, अपने हिस्से का धूप-पानी यह प्रकृति से स्वतः जुटा लेता है।
देह से विदेह तक विस्तृत प्रेम को अभिव्यक्त करता एक कबीराना दोहा और उद्धरित करना चाहूंगा-
जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि हैं, मैं नाय।
प्रेम गली अति साँकरी, जा में दो न समाय।।

© चिराग़ जैन

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