हे कुण्ठेश!
जिसकी कविता में कमी न निकाल सको, उसकी प्रस्तुति पर प्रश्न खड़े कर दो। जिसकी प्रस्तुति भी परफेक्ट हो, उसकी कविता की विषयवस्तु को कठघरे में घसीट लो। जो इस मोर्चे पर भी अंटे में न आए, उसके चरित्र पर कीचड़ उछाल दो। जिसका चरित्र भी कीचड़ से बच जाए, उसके निजी जीवन की समस्याओं को मिर्च-मसाला लगाकर सार्वजनिक कर दो। जहाँ यह वार भी बेकार जाए, उसकी ड्रेसिंग सेंस और रंग-रूप का मखौल बना लो... कुल मिलाकर हर सफल रचनाकार के लिए कोई न कोई ऐसा तीर ढूंढ ही लाओगे कि उसकी एकाग्रता भंग कर सको। और जिस पर सारे वार बेकार हो जाएँ, उसकी रचनाओं की मात्राएँ गिनने बैठ जाओ।
कितने ठाली हो बे! जो सरल भाषा में कविता सुनाए, उसे सतही कहते हो, और जिसकी भाषा परिष्कृत हो उसे क्लिष्ट कहते हो। किसी मानसिक चिकित्सक को क्यों नहीं दिखा लेते हो यार? इतनी बड़ी परंपरा में कोई एक तो ऐसा होगा, जो सही भी हो और सफल भी हो। कभी फूटे मुँह से उस एक की ही प्रशंसा की होती।
महाभारत में इतने सारे पात्र हैं। एक शिशुपाल से ही इतने प्रभावित क्यों हो गये हो? और भी कुछ नहीं तो शकुनि ही बनकर देख लो। कम से कम उसकी कुण्ठा के मूल में कोई कारण तो था। कर्ण ही बन जाओ, अर्जुन से स्पर्धा करने के लिये अर्जुन को गाली देने की बजाय उसके समकक्ष प्रतिभा जुटाकर उससे सामना होने की प्रतीक्षा तो कर के देखो।
जितना श्रम गाली देने में झोंक कर शिशुपाल बने फिरते हो, उसका दसवां हिस्सा भी गीत लिखने में लगाया होता तो सूरदास बनकर कृष्ण के नाम से मशहूर हो गए होते।
ऋषियों को तंग करनेवाले बाली को ऋष्यमूक पर्वत से तड़ीपार होकर जीवन बिताना पड़ता है। नल-नील ही बन गए होते कि ऋषि के शाप को भी सेतुनिर्माण में वरदान की तरह प्रयोग करना सीखते। लेकिन तुमने तो शपथ उठा रखी है हिरण्यकश्यप बनने की। वरदान की देहरी पर से भी अभिशाप ही उठाने की भीष्म प्रतिज्ञा किये बैठे हो।
याद करो बे! कथाओं ने हमेशा सीता के साथ वनवास स्वीकारा है, कोई भी कथा कभी धोबी के पीछे-पीछे उसके आंगन तक नहीं आयी।
बहुत सुंदर है रे ये बगिया। इसकी क्यारियों में फूल बनकर खिलने का शऊर नहीं सीख सको तो इसके खिले हुए फूलों को टिड्डीदल की तरह नष्ट न करो। क्योंकि जब भी टिड्डियों ने बगीचे पर धावा बोला है तो अंततः टिड्डियों का ही अस्तित्व नष्ट हुआ है। बगीचे का क्या है, वह तो अगले मौसम में फिर खिल उठेगा।
© चिराग़ जैन
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