Sunday, May 30, 2021

मशहूर कविता, गुमनाम कवि

रचना और रचनाकार का सम्बन्ध पिता और सन्तति का सम्बन्ध होता है। यह किसी रचनाकार की सफलता का उत्कर्ष है कि उसकी कोई पंक्ति जनभाषा के मुहावरे में शुमार हो जाये। ‘अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो’ से लेकर ‘पोशम्पा भई पोशम्पा’ तक का हमारा बचपन ऐसी ही सौभाग्यशाली कविताओं की उंगली थामकर चला है। किन्तु इन कविताओं के साथ एक दुर्भाग्य भी जुड़ा हुआ है कि इनके रचनाकार का नाम इनकी लोकप्रियता के वेग में कहीं गुम हो गया है। यदि मेरे जीते जी विज्ञान ने टाइम मशीन बना ली तो ऐसी उपयोगी कविताओं के कवि को तलाशने की इच्छा ज़रूर पूरी करूंगा।
कभी-कभी लगता है कि अपने कवि के नाम के बिना दुनिया भर में घूम रही इन कविताओं के रचनाकारों के साथ अनजाने में ही सही, लेकिन बड़ा अन्याय हो गया है। मैंने अपने आसपास के भाषाई मुहावरे की पड़ताल की, तो पाया यह अन्याय आज भी बदस्तूर जारी है। बल्कि सोशल मीडिया के दौर में तो इसमें ख़ासी वृद्धि देखने को मिलती है।
कोई एक काव्यप्रेमी कवि की वॉल से कविता कॉपी करता है तो न जाने क्यों उसका माउस कविता के नीचे लिखा कवि का नाम कॉपी नहीं कर पाता। फिर वही रचना व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और न जाने किन-किन मुहल्लों में बिना नाम के घूमती-फिरती है और एक दिन कोई अन्य काव्यप्रेमी उसका ख़ूबसूरत वॉलपेपर डिज़ाइन करके उसके नीचे ग़ालिब, बच्चन या गुलज़ार का नाम चिपका देता है। इस यात्रा में और भी अनेक पड़ाव आते हैं, लेकिन उनकी चर्चा फिर कभी करूंगा।
फिलहाल मैं आपको कुछ ऐसी कविताओं से परिचित करा रहा हूँ जिन्हें आप अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए सहज ही प्रयोग कर लेते हैं। कभी मुहावरा बनकर तो कभी लोकोक्ति बनकर ये कविताएँ हमारी बोलचाल में इतनी रच बस गयी हैं कि इनके रचनाकार का नाम जानने का हमें ख़्याल ही नहीं आता। कबीर इस प्रवृत्ति के सर्वाधिक शिकार रहे हैं। उनके कुछ दोहों की पंक्तियाँ तो बाक़ायदा मुहावरा बन चुकी हैं। आइए आपको कुछ दोहों से परिचित करवाया जाये -

आछे दिन पाछे गए, हरि से किया न हेत
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत

और

करता था तो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय
बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय

शायद ही हमारे आसपास कोई ऐसा व्यक्ति मिल पाये, जिसे इन दोनों रचनाओं की पहली पंक्ति याद हो। और शायद ही हमारे आसपास कोई ऐसा व्यक्ति मिल पाए, जिसे इन दोनों रचनाओं की दूसरी पंक्ति याद न हो। यद्यपि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आम जनजीवन में सर्वाधिक उद्धृत किये जानेवाले कवियों में कबीर अग्रणी हैं। कबीर का ही एक और दोहा है जिसकी पहली पंक्ति प्रसिद्धि को प्राप्त हुई और दूसरी गुमनामी को -

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैंठ
मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ

उर्दू शायरी में भी अनेक ऐसे मिसरे मिल जाते हैं, जो इतनी तेज़ी से लोकभाषा का मुहावरा बन गये कि उनका अपना दूसरा मिसरा ही उनकी गति का साथ न दे सका। ऐसे में ये मिसरे अकेले ही प्रचलन में आ गये। इस मुआमले में उर्दू के ग़ालिब की स्थिति भी लगभग वैसी ही है जैसी हिन्दी में कबीर की है। मिर्ज़ा ग़ालिब के कुछ मिसरे देखें -

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के

इसी तरह जिगर मुरादाबादी का ये शेर देखिए -

ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

उर्दू में ऐसे और भी अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहाँ कोई एक ही मिसरा दूर तक पहुँचा और दूसरा मिसरा अपने शायर के नाम के साथ गुमनाम रह गया। मसलन मुज़फ्फर रज़्मी का एक मिसरा लगभग रोज़ ही कहीं न कहीं पढ़ा जा रहा होता है -

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई

इसी तरह फै़ज़ अहमद फै़ज़ की नज़्म का एक मिसरा हर नुक्कड़-चौपाल पर सुनने को मिल जाता है -

और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा

दिल्ली के बाशिंदे अक्सर ज़ौक़ साहब के इस शेर का एक ही मिसरा दोहराते देखे जाते हैं -

इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर

कभी कोई काव्यांश किसी फिल्मी गीत में प्रयुक्त हो गया तो फिर उसके मूल रचनाकार और रचना को तलाशना और कठिन हो जाता है। मसलन तुराब ककोरबी के इस शेर का एक मिसरा ज्यों ही फिल्मी गीत में जा मिला तो अस्ल शेर याद करने की न तो किसी को फुरसत मिली न ज़रूरत ही महसूस हुई -

शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी
कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को

इसी तरह मियाँ दाद खां सय्याह के इस शेर का एक मिसरा अक्सर वक़्त-ए-शाम सुनने को मिल जाता है -

कैस जंगल में अकेला है, मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता ‘बबूता का जूता’ की एक पंक्ति फिल्मी गाने से जुड़ गई और मूल कवि का ज़िक्र तक करने की नैतिकता नहीं निभाई गई। जब यह फिल्म आयी थी तो इस विषय को लेकर शायद कुछ कानूनी विवाद भी हुआ था लेकिन सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी की ओर से लड़नेवालों की इतनी पहुँच नहीं थी कि फिल्मी गुलज़ारों से टक्कर ले पाते -

इब्नबतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई, घुस गई थोड़ी कान में

बुल्लेशाह के लेखन पर तो ऐसी फिल्मी डकैती ख़ूब पड़ती रहती है। उनके लिखे को अपनी शायरी में फिट करके कई लोगों के चमन गुलज़ार हुए जा रहे हैं। अब बात करते हैं उन रचनाओं की जो उद्धृत तो कविता के रूप में ही होती हैं लेकिन उनके रचनाकार की सुधि किसी को नहीं आती।
एक गीत जो झण्डा फहराते समय ख़ूब गाया जाता है। बचपन में विद्यालय के महोत्सवों से लेकर दफ़्तर में स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण करने तक यह गीत हर भारतीय ने दर्जनों बार सुना भी है और गाया भी है। इस भूमिका से ही गीत के बोल आपको याद आ गये होंगे- ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।’ लेकिन इस गीत के रचयिता का नाम जाननेवाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। यह अमर गीत रचा है श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ ने।
लगभग इतनी ही प्रसिद्धि प्राप्त करनेवाली दो पंक्तियाँ ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटनेवालों का यही बाकी निशां होगा’ भी जगदम्बिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ जी के नाम को पीछे छोड़कर बहुत आगे निकल गईं।
इतनी शक्ति हमें देना दाता’ गीत देश भर के विद्यालयों में रोज़ सुबह प्रार्थना की तरह गाया जाता है। यह दरअस्ल एक फिल्मी गीत है, जो अभिलाष जी ने अंकुश फिल्म के लिये लिखा था। इसके बावजूद किसी विद्यालय में विद्यार्थी तो क्या अध्यापकों तक के भीतर यह जिज्ञासा नहीं उपजती कि जिसकी रचना से दिन की शुरुआत की जाती है उसे रचनेवाला शख़्स कौन है! जो गीत भजन बन गया उसके रचनाकार का नाम ग़ायब हो जाना तो लगभग निश्चित ही है। कीर्तन मंडलियाँ और जागरण की आर्केस्ट्रा पार्टियाँ किसी भी भजन को गाते समय उसमें अपना नाम इतनी बेहूदगी के साथ घुसेड़ती हैं कि यदि मूल रचनाकार सुन ले तो स्वयं अपनी रचना पर दावा करने का विचार त्याग दे। इस प्रवृत्ति ने मीराबाई की रचना ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो’ तक को नहीं छोड़ा। ‘मीरा के प्रभु गिरिधर नागर’ वाली पंक्ति गाते समय ‘मीरा’ शब्द को न जाने किस-किस के नाम से बदल दिया जाता है और प्रभु गिरिधर नागर चुपचाप देखते रह जाते हैं।
कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जो किसी प्रसिद्ध व्यक्ति ने किसी सन्दर्भ में उद्धरित कर दें तो लोग उन्हें उन्हीं व्यक्तित्वों के नाम से जानने लगे। इस क्रम में नरसी भगत की रचना ‘वैष्णव जन ते तेने कहिये’ सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यह गीत महात्मा गांधी का प्रिय गीत था, किन्तु एक बहुत बड़ा तबका इसे गांधी जी का गीत ही मान बैठा है। इसी प्रकार शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जी की रचना ‘ना हार में ना जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं’ किसी सभा में श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने उद्धृत की तो लोग इसे अटल जी की रचना ही मानने लगे।
इसी तरह एक ग़ज़ल है, जो भारतीय क्रांति के इतिहास में रह-रहकर याद की जाती है। ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ -यह ग़ज़ल आज़ादी के दीवानों का मंत्र बन गयी, लेकिन इसके शायर, बिस्मिल अज़ीमाबादी को इसका श्रेय मिलने की बजाय इसे क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से जाना जाता है।
श्री सोहनलाल द्विवेदी जी का एक गीत भी ऐसे ही किसी भ्रम के कारण श्री हरिवंशराय बच्चन जी के नाम से मशहूर हो गया। और यहाँ तक मशहूर हुआ कि बाद में श्री अमिताभ बच्चन ने सार्वजनिक मंच पर इस बात का स्पष्टीकरण दिया कि ‘कोशिश करने वालों की हार नहीं होती’ श्री सोहनलाल द्विवेदी जी की ही रचना है।
इसी प्रकार श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध की रचना ‘उठो लाल अब आँखें खोलो’ कहीं सोहनलाल द्विवेदी जी के नाम से लिखी मिलती है तो कहीं द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी के नाम से।
श्री गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ जी का एक काव्यांश ‘जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।’ इस रचना को अपने भाषण आदि में प्रयोग करने वाले लोग भी सनेही जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना अक्सर भूल जाते हैं।
राजेन्द्र राजन जी का एक क़त्अ है जो राजनैतिक तथा सामाजिक जलसों में अक्सर प्रयोग किया जाता है:

वतन की जो हालत बताने लगेंगे
तो पत्थर भी आँसू बहाने लगेंगे
कहीं भीड़ में खो गई आदमीयत
जिसे ढूंढने में ज़माने लगेंगे

इसी प्रकार जयशंकर प्रसाद जी की ये पंक्तियाँ भी जाने किस-किसके नाम से यत्र-तत्र लिखी मिल जाती हैं -

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत-नग पगतल में
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में

प्रसाद जी की ही यह कविता भी भरपूर उद्धृत की जाती है-

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतन्त्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पन्थ है बढ़े चलो, बढ़े चलो

सुमित्रानन्दन पन्त जी का भी एक काव्यांश भरपूर प्रयोग किया जाता है। यद्यपि अधिकतर यह कवि के नाम के बिना ही प्रयोग किया जाता है, लेकिन इसके रचनाकार के नाम की गवाही देने वाले लोग अभी जीवित हैं-

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान

इसी क्रम में श्री गोपालदास नीरज जी के गीत का यह मुखड़ा भी ख़ूब सुनने को मिलता है-

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये

दुष्यंत कुमार का एक शेर ख़ूब रेखांकित किया जाता है, लेकिन उसे बिल्कुल सही पढ़ने वाले लोग बहुत कम हैं। कोई आकाश की जगह आसमान या अम्बर पढ़ने लगता है तो कोई सूराख को छेद पढ़कर शेर की जान निकाल देता है। शब्दों का क्रम बिगाड़कर शेर को बेबह्रा पढ़नेवाले तो बहुतायत में हैं ही। बहरहाल, यहाँ वह शेर अपने मूल स्वरूप में प्रस्तुत है-

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!

इन सब रचनाओं के इतर यहाँ ऐसी अनेक रचनाओं की सूची दी जा रही है, जो या तो अपने रचनाकार के नाम के बिना प्रयुक्त हो रही हैं, या किसी अन्य के नाम से चल रही हैं या फिर आधी-अधूरी और ग़लत-सलत तरीक़े से उद्धृत की जा रही हैं-

जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है
-रामधारी सिंह दिनकर

सदियों की ठण्डी बुझी आग सुगबुगा उठी
मिट्टी, सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन ख़ाली करो, कि जनता आती है
-रामधारी सिंह दिनकर

देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग्य के दुःख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो, किन्तु उकताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
-अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

चार हाथ, चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूकै चौहान
-चन्द बरदाई

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटि तानी थी
बूढ़े भारत में भी आयी, फिर से नयी जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
ख़ुब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी
-सुभद्राकुमारी चौहान

जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
-महादेवी वर्मा

यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता जमुना तीरे
मैं भी इस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे
-सुभद्राकुमारी चौहान

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ
चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूँ, भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक
-माखनलाल चतुर्वेदी

होंगे क़ामयाब, हम होंगे क़ामयाब एक दिन
मन में विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे क़ामयाब एक दिन
-गिरिजाकुमार माथुर

ऐसे और भी अनेक काव्यांश हैं, जिनके मूल रचयिता का नाम कहीं समय की परतों के नीचे खो गया है। हाल ही में एक राजनैतिक दल ने एक नारा देकर देश की राजनीति का रंग-रूप बदल दिया। इस नारे के प्रचार से सत्ता परिवर्त्तन जैसा बड़ा उद्देश्य हासिल कर लिया गया। यद्यपि दावा किया गया कि यह नारा इस अभियान के मुख्य क़िरदार के मुख से अनायास ही निकला, लेकिन पुरानी कविताओं को खंगालते हुए उस नारे के दर्शन एक गीत के मुखड़े में हो गये।

जब दुःख पर दुःख हों झेल रहे, बैरी हों पापड़ बेल रहे
हों दिन ज्यों-त्यों कर ढेल रहे, बाक़ी न किसी से मेल रहे
तो अपने जी में यह समझो
दिन अच्छे आने वाले हैं
-गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’

इसी तरह वंशीधर शुक्ल जी का लिखा ‘उठ जाग मुसाफ़िर भोर भयी’ भी रोज़ कहीं न कहीं रेखांकित किया जाता है, लेकिन कवि का नाम लेने को यहाँ भी कोई तैयार नहीं होता। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी का क़दमताल गीत ‘क़दम-क़दम बढ़ाये जा, ख़ुशी के गीत गाये जा, ये ज़िन्दगी है क़ौम की, तू क़ौम पे लुटाये जा’ भी मूल गीतकार के नाम के बिना ही दुनिया भर में जोश भरने का काम कर रहा है। इस गीत का अनेक फिल्मों में भी प्रयोग किया गया है।
देश की एक प्रमुख विचारधारा की नियामक संस्था में तो यह नियम ही है कि वह जिस भी रचना का प्रयोग करेगी, उसके रचनाकार का नाम नहीं बतायेगी। इस नियम में भी एक बेईमानी झलकती है। क्योंकि उस संस्था के संस्थापकों की किताबें छापते समय इस नियम का ध्यान नहीं रखा जाता और माननीयों की किताबें सुरुचिपूर्वक उनके नाम के साथ ही छापी जाती हैं। इस संस्था के इस नियम के कारण ही राष्ट्रीय महत्व की अनेक रचनाएँ अपने रचयिता की पहचान खो चुकी हैं। समझ नहीं आता कि सर्जक का कृतज्ञता ज्ञापन करने से कौन सी नैतिकता भंग हो जाती है!
बहरहाल, जयशंकर प्रसाद की रचना ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे’; बालकृष्ण शर्मा नवीन की रचना ‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये, एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये’; अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की रचना ‘सबसे ख़तरनाक़ होता है सपनों का मर जाना’; भारतेन्दु हरिश्चंद की ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’; संत रविदास की ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’; भगवती चरण वर्मा की ‘हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले’; द्वारका प्रसाद माहेश्वरी की ‘वीर तुम बढ़े चलो’; श्याम नारायण पाण्डेय की ‘हल्दीघाटी’; भवानी प्रसाद मिश्र की ‘गीतफ़रोश’; हरिवंश राय बच्चन की ‘अग्निपथ’, ‘मधुशाला’ और ‘जो बीत गयी सो बात गयी’; मैथिलीशरण गुप्त की ‘नर हो न निराश करो मन को’ तथा ‘सखि, वे मुझसे कहकर जाते’; रघुवीर सहाय की ‘रामदास’; अल्लामा इक़बाल का क़ौमी तराना ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा’; सोहनलाल द्विवेदी की ‘खड़ा हिमालय बता रहा है’; कुम्भनदास जी की ‘सन्तन को कहा सीकरी सों काम’; मजरूह सुल्तानपुरी का शेर ‘मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मग़र, लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया’; बशीर बद्र का शेर ‘दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है, जो भी गुज़रा है, उसने लूटा है’; मीर का शेर ‘देख तो दिल कि जां से उठता है, ये धुआँ-सा कहाँ से उठता है’; रबीन्द्रनाथ टैगोर का ‘एकला चलो रे’; नवाज़ देवबन्दी का शेर ‘उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था, मेरा नम्बर अब आया, मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं अगला नम्बर आपका है’; रहीम का दोहा ‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय’; कबीर के दोहे ‘निन्दक नियरे राखिये’, ‘प्रेम गली अति साँकरी’ और ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’; तुलसीदास की ‘सकल पदारथ हैं जग माही, कर्महीन नर पावत नाही’ मलूकदास जी का दोहा ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सबके दाता राम’ जैसी अनेक रचनाओं ने जनता की अभिव्यक्ति को रोचक तथा प्रभावी बनाने में महती भूमिका निर्वाह की है, लेकिन हमने इन रचनाकारों को श्रेय देने में पूरी ईमानदारी नहीं दिखाई।
सोशल मीडिया के इस दौर में यदि इस श्रेय देने की परम्परा का प्रादुर्भाव इस लेख के बाद हो सका, तो सृजन की इस बगिया में जड़ों की देखभाल करने वाले लोगों को अपने मिट्टी सने हाथों को देखकर क्षोभ न होगा। एक बार हमें ठहरकर यह विचार करना चाहिए कि रचनाकार को ‘कर्त्ताभाव’ से मुक्त करने के चक्कर में कहीं हम स्वयम् तो ‘कृतज्ञताभाव’ से मुक्त होकर कृतघ्न नहीं हो गये।

© चिराग़ जैन

Friday, May 21, 2021

तहख़ाना

विचारों के भाजी बाज़ार से दूर,
मस्तिष्क के
पिछवाड़े वाले तहख़ाने में
भरे पड़े हैं
ऐसे हज़ारों बिम्ब
जिन्हें आँखों ने
चित्त के शिकंजे से बचाकर
यहाँ छिपा दिया था।

जब कभी
सहजता की सवारी करके
प्रिविष्ट हुआ हूँ
इस तहख़ाने में
बस तभी
बटोर लाया हूँ
...ढेर सारे बिम्ब
...ढेर सारी कविताएँ!

आपके भीतर भी होगा
ऐसा ही इक तहख़ाना;
बस इसमें
कभी मुखौटा लगाकर
मत जाना!

© चिराग़ जैन

Saturday, May 15, 2021

गंगा और शव

कौन कहता है कि गंगा में लाशें बह रही हैं
अब तो लाशों में गंगा बह रही है।

कौन कहता है कि प्रशासन
साम्प्रदायिक भेदभाव करता है
प्रशासन तो सब लाशों से
एक जैसा बर्ताव करता है।

कौन कहता है
नदी किनारे मानव सभ्यता पनपती है
अब तो नदी तट पर
मानवता की रूह दहलती है।

साहेब!
एक बात बताओगे
अगर हर घाट पर मुर्दे दफ़्न होंगे
तो अगली दिवाली पर
दीये कहाँ जलाओगे?

© चिराग़ जैन

Friday, May 14, 2021

सूक्ति

सत्य के आधार पर खड़े
चार-चार शेर भी
झूठ बोलने वालों को 
कुछ नहीं कहते। 

देश की हर सरकारी मुहर पर
एक झूठ लिखा है - 
'सत्यमेव जयते'।

© चिराग़ जैन

Thursday, May 13, 2021

अकेला

हर दिन बढ़ता ही जाता है मेरे आंगन का वीराना
और अकेला कर जाता है हर दिन कोई यार मुझे

~ चिराग़ जैन

Tuesday, May 11, 2021

मदद की होड़

रेगिस्तान की दोपहर में
पानी को तरस रहा एक प्यासा
तपती हुई रेत में पड़ा था;
ऊपर से सूरज का भी रुख कड़ा था।
उसको पानी देने के लिए
केंद्र सरकार ने बिल पास किया;
राज्य सरकार ने भी
उसका स्वतः संज्ञान लिया।

लेकिन ज्यों ही
राज्य सरकार का कारिंदा
मदद लेकर प्यासे की ओर बढ़ा,
उसके सद्भाव को लगा
एक जोरदार झटका;
क्योंकि पीछे केंद्र सरकार
लेकर आ रही थी
पानी से भरा मटका।

उधर केंद्र सरकार की नज़र भी
राज्य सरकार की मदद योजना पर पड़ी
तो उसके मटके की
आँखें हो गयी बड़ी।

अब प्यासा हो गया था गौण
दोनों एक-दूसरे से पूछने लगे-
"तू कौन? तू कौन?"

दोनों ही मदद करने के
मूल लक्ष्य से भटक गए
और एक-दूसरे से ऐसे भिड़े
कि दोनों के मटके चटक गये।

फिर राज्य सरकार ने भरी हुंकार
और प्यासे की विरुद्ध दर्ज की
नामज़द एफआईआर।
"कि राज्य सरकार को बदनाम करने के लिए
प्यासा व्यक्ति
नाटक कर रहा है
और जनता में
राज्य की व्यवस्था के विरुद्ध
घृणा भर रहा है।"

केंद्र सरकार ने
इस एफआईआर की
पूरी ही पैमाइश कर दी
और प्यासे की प्यास की
सीबीआई जाँच की फरमाइश कर दी।

घंटों तक चलता रहा यह ड्रामा
मीडिया से लेकर
अदालतों तक पसर गया हंगामा
आस के मटके फूट चुके थे
समाधान का पानी बिखर चुका था
और प्यासा, दो घूँट पानी के इंतज़ार में
रहनुमाओं की ओर देखते-देखते
कबका मर चुका था!

© चिराग़ जैन 

Friday, May 7, 2021

श्मशानों में चहल-पहल है

सबके एकाकी मन में हैं
जाने कितनी शोक सभाएँ
पीपल के पेड़ों ने पूछा
इतने घण्ट कहाँ लटकाएँ

हर पल पर डर का कब्ज़ा है, हर क्षण पर दहशत के पहरे
घाव दिलों पर इतने गहरे, हँसना भूल चुके हैं चेहरे
आँखें रोकर पूछ रही हैं
कितने आँसू और बहाएँ
पीपल के पेड़ों ने पूछा
इतने घण्ट कहाँ लटकाएँ

कितना भीषण प्रश्न खड़ा है, उत्तर खोज रही हैं सदियाँ
क्रंदन झेल रहे हैं आंगन, तर्पण झेल रही हैं नदियाँ
लहरें रो-रो पूछ रही हैं
इतनी राख कहाँ ले जाएँ
पीपल के पेड़ों ने पूछा
इतने घण्ट कहाँ लटकाएँ

साँसों तक की लाचारी है, तन बेबस है, मन घायल है
बाज़ारों में सन्नाटा है, शमशानों में चहल-पहल है
कितने दिन से भभक रही हैं
ठण्डी होती नहीं चिताएँ
पीपल के पेड़ों ने पूछा
इतने घण्ट कहाँ लटकाएँ

© चिराग़ जैन

Thursday, May 6, 2021

नया धर्म : सेंड टू ऑल

आज मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश में कोई आम आदमी है ही नहीं। हर नागरिक के दुनिया के बड़े से बड़े आदमी से डायरेक्ट कॉन्टेक्ट हैं। और सबको ही कोई कल्पवृक्ष टाइप की सिद्धि प्राप्त है। यही कारण है कि जब उन्हें पैनडेमिक से संबंधित कोई पुख्ता जानकारी चाहिए होती है तो उनके व्हाट्सएप पर सीधे डब्ल्यूएचओ से मेसेज प्रकट हो जाता है। वे उस मेसेज को पढ़ते हैं और तुरंत अपने मोबाइल से जुड़े एक-एक जनसामान्य को फॉरवर्ड करके उन्हें अज्ञान के अंधेरे से बाहर निकाल लेते हैं।
कुछ तो इतने परोपकारी होते हैं कि स्वयं पूरा मेसेज पढ़ने में समय नष्ट करने की बजाय, सीधे औरों तक भेजकर परोपकार में जुट जाते हैं।
कई बार ऐसा लगता है कि अमरीका, जर्मनी, कनाडा, चीन और ब्रिटेन जैसे देशों के साथ-साथ यूएनओ और नासा जैसी संस्थाएं रोज़ सुबह अपनी दुकान का शटर उठाते ही भगवान के आगे अगरबत्ती जलाने से पहले यह चैक करती होंगी कि आज उनके आका को कौन-सी इन्फॉर्मेशन चाहिए। और फिर जो बिडेन से लेकर बोज़कर तक अपनी लुंगी फोल्ड करके इन्फॉर्मेशन के पुलाव बनाने पर जुट जाते हैं और एक-एक कर सारी इन्फॉर्मेशन इस देश के व्हाट्सएप यूज़र्स के पास पहुँचा देते हैं।
‘भारत सरकार में अंदरख़ाने क्या चल रहा है’ से लेकर ‘शनि के पास से गुज़रते हुए जुपिटर क्या कहेगा’; तक की हर छोटी-बड़ी सूचना इनके पास उपलब्ध होती है। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों में भारत को लेकर क्या रणनीति बनाई जा रही है, पाकिस्तान और चीन गली के नुक्कड़ पर खड़े होकर भारत के खि़लाफ़ क्या खुसर-फुसर कर रहे हैं; यह चौबीस घण्टे इनके ट्रांसमीटर पर रेकॉर्ड होता रहता है। कई बार तो शक होता है कि पाकिस्तान और चीन नेकर पहनकर दो उंगली आगे करके पहले इनसे परमिशन मांगने तो नहीं आते कि- ‘मैडम जी, क्या हम भारत के खि़लाफ़ कानाफूसी कर सकते हैं?’
पूरी दुनिया के देशों की विदेश नीति इनके लिए बच्चों के घर-घर खेलने से ज़्यादा कुछ नहीं है। अमरीका ने पाकिस्तान को कह दिया है कि तू चीन से कुट्टा हो जा तो मैं तुझे इंग्लैंड से अब्बा करवा दूंगा। समझ ही नहीं आता कि ये देश हैं या नोबिता और शिनचैन!
भारत सरकार का सूचना प्रसारण मंत्रालय, बीबीसी, एएनआई और इतने सारे मीडिया संस्थानों की टुच्ची इन्फॉर्मेशन इन लोगों की पर्सनेलिटी को सूट नहीं करती। आत्मनिर्भरता इनके ख़ून में शामिल है इसलिए अमरीका, जापान, चीन, नासा जैसे इनके योग्य मजदूर इन्हें कोई सूचना उपलब्ध नहीं करा पाते तो ये पुरातन भारतीय पद्धति का प्रयोग करते हुए गहरे ध्यान में उतरकर स्वयं सूचनाएं निर्मित कर लेते हैं। इस प्रक्रिया में प्राप्त हुई सूचनाओं में पूरा ब्रह्मांड और स्वयं ईश्वर भी इनकी दृष्टि से अछूता नहीं रहता।
माता वैष्णोदेवी के दरबार से चला मेसेज फॉरवर्ड करने पर कितने लोगों की लॉटरी खुल गयी इसका पूरा हिसाब इनके लेजर में उपलब्ध होता है। यह और बात है कि भारत में लॉटरी बैन है।
ऐसे ही गहरे ध्यान में उतरकर प्राप्त हुई सूचना के दम पर उत्तर प्रदेश में एक बाबा ने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग समेत पूरे देश को सोने का भण्डार खोजने के काम में लगा दिया था। और अंत में सोना न मिलने पर वे बाबा, पुरातत्व विभाग और हम सब बेशर्मी के साथ अन्य फर्स्ट हैंड इंफोर्मेशन्स फारवर्ड करने में जुट गए, क्योंकि ज़मीर, आत्मा और शर्म जैसे शब्द इन सूचनाओं के वेग में कहीं ग़ुम हो चुके हैं।

© चिराग़ जैन

Tuesday, May 4, 2021

कितनी मुहब्बतें

नोएडा से एक फोन आया। फोन करनेवाला व्यक्ति स्वयं पॉजिटिव होकर अपने डेढ़ साल के बच्चे के साथ घर पर क़ैद था और उसकी पत्नी अस्पताल में कोविड से लड़ रही थी। बीमारी, चिंता, नन्हें बच्चे का लालन-पालन, अर्द्धांगिनी का रोग, अर्थ, अभाव...!
उस दिन मन बहुत उदास था। मदद की गुहार बढ़ती जा रही थीं और समाधान के स्रोत निचुड़ते जा रहे थे। अंधाधुंध फॉरवर्ड की समस्या के कारण अधिकतर नम्बर बन्द हो गए थे। न जाने कौन से डर के कारण प्लाज़्मा डोनर्स घर से निकलने को तैयार नहीं हो रहे थे। ऑक्सीजन भरनेवाले जो नम्बर्स हमारे पास थे वहाँ धीरे-धीरे निराशा छाने लगी थी। इस बीच कुछ नयी समस्याएँ भी सामने आने लगी थीं। कहीं किसी गाँव में कोई कोरोना पीड़ित परिवार ऑक्सिमीटर नहीं जुटा पा रहा था, तो कहीं किसी शहर में कोई ऑक्सीजन कन्सन्ट्रेटर होते हुए भी उसे ऑपरेट नहीं कर पा रहा था।
समस्याओं का वेग बढ़ने लगे और समाधान का द्वार खुल न पा रहा हो तो हिम्मत का बांध डगमगाने लगता है। ऐसी ही मनोदशा में मैंने एक आखि़री कोशिश के रूप में अपनी फेसबुक पर यह अपील की कि जो भी व्यक्ति, जिस भी क्षेत्र में, जो भी सहायता करने में सक्षम हो; वह मुझे इनबॉक्स में सम्पर्क करे। अपील पोस्ट करने के शुरुआती कुछ घण्टों में केवल इक्का-दुक्का मेसेज ही आए, लेकिन ये एकाध मेसेज मेरे टूटे मन को मज़बूती देने के लिये पर्याप्त थे। छत्तीसगढ़ से एक सज्जन ने बताया कि वे कोविड से गुज़रकर स्वस्थ हो चुके हैं लेकिन चाहते हैं कि उनका ऑक्सिमीटर किसी के काम आ जाए। एकाएक यह संदेश सामान्य लग सकता है, लेकिन इसे पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि इस संक्रमण की त्रासदी से निकला परिवार यदि इतना आत्मविश्वास जुटा पाया है कि अब उसे ऑक्सिमीटर की ज़रूरत नहीं पड़ेगी; यदि वह स्वयं समस्या से निकलकर दूसरे परिवारों की इस मूलभूत समस्या का विचार कर सकता है तो इस देश में सद्भाव और आत्मविश्वास की फसल लहलहाने में अधिक समय शेष नहीं है।
वायरस के आतंक के बावजूद अगर कोई इतनी हिम्मत कर पा रहा है कि वह अपने शहर में किसी की भूख मिटाने जाना चाहता है, तो इस बात के लिए आश्वस्त हुआ जा सकता है कि स्वार्थ की परत के नीचे पनप रहा करुणा का अंकुर फूट आया है।
अपने घर में हुई मौत को भूलकर भी अगर कोई किसी की साँसों के लिए ‘कुछ सहायता’ करने के लिए हमसे जुड़ने की पेशकश करता है तो इस बात की आश्वस्ति होती है कि किसी भी परिस्थिति में नैराश्य का वायरस इस मुल्क को संक्रमित नहीं कर सकेगा।
बस ये सब संदेश मेरा मानसिक उपचार कर गए। मेरी निराशा हवा हो गयी। भीतर कोई क्रांति घटित हुई, जिसने एक तरफ़ अपील की प्रतिक्रिया में प्राप्त हो रहे संदेशों को व्यवस्थित करना शुरू किया, दूसरी तरफ़ ज़रूरतमंद लोगों के संदेशों की सूची बनाई। और एक बार फिर मददगारों तथा ज़रूरतमंदों के बीच समन्वय में जुट गया।
आज किसी ने मेरे फेसबुक पर टिप्पणी की कि ये दौर समाप्त होने के बाद वह एक पीपल का पेड़ लगाएगा, उसकी देखभाल करेगा और उसका नाम रखेगा ‘चिराग़’।
मुझे अहमद फ़राज़ साहब का एक शेर याद आ गया-

और ‘फ़राज़’ चाहियें कितनी मुहब्बतें तुझे
माओं ने तेरे नाम पर बच्चों के नाम रख दिये 

© चिराग़ जैन

Sunday, May 2, 2021

मददगारों के नाम पाती

सद्भावना युक्त मित्रो!
कोरोना की इस महामारी में आपके प्रयास स्तुत्य हैं। आपकी नीयत पर भी कोई संदेह नहीं है, लेकिन किसी को भी मदद भेजने से पहले कृपया निम्न बातों का ध्यान रखें-
1) संकट में फँसे व्यक्ति को केवल वही जानकारी भेजें, जिसकी आपकी टीम ने पिछले 24 घण्टे के भीतर स्वयं पड़ताल की है।
2) सोशल मीडिया पर चल रहे किसी भी फॉरवर्ड सन्देश को अग्रेषित करने से बचें, क्योंकि इन्हीं संदेशों की वायरल क्षमता का लाभ उठाकर ठग और मुनाफाखोर अपना काम कर रहे हैं।
3) यदि हर व्यक्ति स्वयं वेरिफाई करेगा तो वह नम्बर रेस्पॉन्स करना बंद कर देगा इसलिए इसके लिए अपनी टीम में एक व्यक्ति नियुक्त करें।
4) मरीज़ के साथ जीवन के लिए जूझ रहे लोग घबराए हुए हो सकते हैं, ऐसे में अपने विवेक को बचाए रखना आपकी ज़िम्मेदारी है। उनके रुदन से द्रवित होकर उतावलेपन में उन्हें अपुष्ट जानकारी भेजने की ग़लती न करें। उन्हें कहें कि आप अपने प्रयास जारी रखें, कोई कन्फर्म लीड मिलते ही आप उन्हें कॉल करेंगे।
5) अगर किसी अस्पताल की वैकेंसी के बारे में आपको जानकारी नहीं है तो भी किसी को उस अस्पताल का विकल्प बताते समय यह अवश्य बताएँ कि वहाँ क्या-क्या सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
6) चिकित्सा करना आपके अधिकार क्षेत्र में नहीं है, इसलिए किसी के लाख बार कहने पर भी किसी को कोई चिकित्सकीय सलाह न दें। बल्कि उसके लिए फोन पर कोई डॉक्टर उपलब्ध कराने का प्रयास करें।
7) सोशल मीडिया पर कोई लीड पोस्ट न करें। जिसे आवश्यकता हो उसे वेरिफाइड लीड इनबॉक्स में ही दें।
8) अपेक्षित सहायता पहुँचने के बाद अपने सोशल मीडिया हैंडल से उसकी अपील डिलीट करना न भूलें। यह बेहद आवश्यक है।
9) यदि आप किसी को कोई मदद करने की स्थिति में नहीं हैं तो उसको मना करना सीखें।
10) जो व्यक्ति आपको अपुष्ट फारवर्ड भेज रहा है उसे ऐसा करने के लिए मना करें।

बिना देखे, सौ मील का सफ़र तय करने से बेहतर है कि देखकर दस क़दम चला जाए।

Saturday, May 1, 2021

व्यवस्था और कोविड

इसने कहा कि उसकी वजह से व्यवस्था फेल हो गयी
उसने कहा कि इसकी वजह से व्यवस्था फेल हो गयी
लेकिन एक बात तो दोनों ने कही
कि व्यवस्था फेल हो गयी।

मदद की गुहार

मनुष्यो!
हमारे साथ लगभग डेढ़-दो सौ युवा अनवरत गिलहरी की भूमिका में इस विपत्ति से लड़ रहे लोगों की सहायता का प्रयास कर रहे हैं। इन्हें न बदले में कोई धन्यवाद चाहिए न तमगा!
इनके प्रयासों ने विवशता के रेगिस्तान में खड़े कई प्यासे लोगों का गला तर भी किया है और कुछ तक बस एकाध बून्द ही पहुँचा सके हैं। कहीं-कहीं एक बून्द भी पहुँचाने में सफलता नहीं मिली है। लेकिन जिस भी दिशा से किसी मदद की गुहार आई, ये मरहम लेकर उस दिशा में दौड़े ज़रूर हैं।
मदद हो जाने के बाद हम उसके लिए पोस्ट की गई अपील भी अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से डिलीट कर देते हैं ताकि अंधाधुंध फॉरवर्ड करनेवालों की टोकरी में वह संदेश न चला जाए।
यह जटायु का रावण से संग्राम है। यह जुगनू की अंधेरे से जंग है। इस युद्ध में जुटे योद्धाओं की ताक़त देश के सामान्य परिवारों में बसनेवाले वो सद्भाव हैं जो किसी न किसी तरह से किसी की मदद करना चाहते हैं लेकिन वास्तविक ज़रूरतमंद तक पहुँचने का ज़रिया उनके पास नहीं है।
पिछले 12-15 दिन के दौरान इन नन्हीं गिलहरियों ने काफी हद्द तक आँसू और ग्लीसरिन में अंतर करना सीख लिया है। आप यदि कोई मदद करने के इच्छुक हैं तो हमसे सम्पर्क कीजिये।
ज़रूरी नहीं कि आपको स्वयं ही कोई मदद करनी होगी। आप अपने आस-पड़ोस में उपलब्ध कोविड सम्बन्धी किसी सेवा की ‘बिल्कुल सटीक’ जानकारी भी भेज देंगे तो भी उससे अनेक लोगों का लाभ होगा।
कृपया व्हाट्सएप और फेसबुक पर चल रहे किसी भी संदेश को बिना वेरिफाई किये न भेजें। आप केवल उसी सेवा की सूचना भेजें जो स्वयं आपके द्वारा उपलब्ध कराई जा रही हो अथवा जिसके विषय में आपने पूरी आश्वस्ति कर ली हो।
आपकी सेवा किस शहर के लिए है, यह अवश्य लिखें।
किसी भी मददगार का नम्बर सार्वजनिक नहीं किया जाएगा और आपके पास सीधे मरीज़ के परिजन का ही फोन आएगा।
सोशल मीडिया पर सेवा का कई क्विंटल कचरा घूम रहा है। इस कचरे के ढेर में से असली सूत्र ढूंढने में हमारी मदद करें।
और हाँ, हमें आर्थिक मदद के लिए तभी सम्पर्क करें जब हम इसके लिए कोई अपील पोस्ट करें।
एक लास्ट रिक्वेस्ट, व्हाट्सएप पर केवल आवश्यक सूचना ही भेजें। प्रशंसा के सन्देश पढ़ने में जो समय नष्ट होता है उसका सदुपयोग कर हम कोई लीड ढूंढ़ लेंगे।

क्या मृत्यु भी प्रतिशोध का अवसर है?

मन की विकलता ने आँखों से नींद छीन ली है। यद्यपि कठिन था, लेकिन मानव की मृत्यु के समाचार सुन-सुनकर भी मैं किसी तरह ख़ुद को थामे हुए था। लेकिन आज मैंने अपनी आँखों से मानवता की मृत्यु का दृश्य देखा। इन चीत्कारों के बीच कुटिल मुस्कान और अट्टहास के वैभत्स्य ने आत्मा को छलनी कर दिया।
आह! ये किस समाज में श्वास ले रहे हैं हम लोग! किसी की मृत्यु भी उपालम्भ, उपहास अथवा प्रतिशोध-प्रदर्शन का ‘अवसर’ हो सकता है... यह अविश्वसनीय सत्य आज मेरी आँखों के सामने था। हालाँकि लगभग ऐसा ही नंगा नाच हम गौरी लंकेश, इरफान, सुशांत सिंह राजपूत, ऋषि कपूर और राहत इंदौरी के निधन पर भी देख चुके हैं। तब भी संवेदनाएँ इस कृत्य से आहत हुई थीं; लेकिन न जाने आज क्यों यह दृश्य कुछ अधिक ही विदीर्ण कर गया।
आज पूरे देश में मातम पसरा है। मृत्यु किसी बवंडर की तरह सबको अपने आगोश में समेटे लिए जा रही है। चिता, लाश, श्मशान, श्रद्धांजलि जैसे शब्दों के हम नियमित प्रयोक्ता बन गए हैं। इस स्थिति में भी समाज प्रतिशोध की ज्वाला बचाए रख पाया है और वह भी इतनी वीभत्स की जिसको सोचने भर से जी घृणा से भर जाता है।
यदि इन्हीं सब मनुष्यों के बीच रहना मानव जीवन की विवशता है तो मुझे उन लोगों से ईर्ष्या हो रही है जो यह सब देखने से पहले ही चिरनिद्रा में लीन हो गए।
इस दुनिया में इतने सारे वाद, इतनी सारी विचारधाराएँ, इतने सारे धर्म, इतने सारे सम्प्रदाय, इतनी सारी जातियाँ, इतने सारे पंथ और इतने सारे रंग भर गए हैं कि बेचारी मनुष्यता के लिए जगह ही कहाँ बची है।
लेकिन आज एक बात बिल्कुल साफ हो गयी कि जो भी व्यक्ति किसी वाद, विचारधारा या अन्य किसी भी शब्द के नाम पर अकड़ कर खड़ा है, उसके पैर उस लाश पर जमे हुए हैं, जिसमें कभी उसकी मनुष्यता श्वास लेती थी।