Thursday, March 31, 2022

डिब्रूगढ़ की पहली यात्रा

दिल्ली से उड़कर डिब्रूगढ़ एयरपोर्ट पर लैंड किया तो जहाज की खिड़कियों पर पानी की बून्दों ने चित्रकारी कर दी थी। बाहर झाँकने पर एहसास हुआ कि यहाँ दिल्ली जैसी गर्मी का नामो-निशान नहीं है, बल्कि बादलों की मेहरबानी से मौसम गुलाबी नमी से महक उठा है।
हवाई अड्डे से बाहर निकलने तक हमें अगले ही दिन की वापसी के निर्णय पर पछतावा हो रहा था। द्वार पर आयोजकगण स्वागत के लिए तैयार खड़े थे। हवाई अड्डे से शहर की ओर बढ़े तो चाय के बागानों की ख़ूबसूरती और ख़ुशगवार मौसम की हरितिमा आँखों के रास्ते मन में आक्सीजन भर रही थी।
डिब्रूगढ़ शहर की मुख्य सड़क के बीचोबीच ट्रेनलाइन बिछी हुई है। लाइन के एक ओर ट्रैफिक चलता है और दूसरी ओर छोटे-छोटे लेकिन ख़ूबसूरत घर हैं। आम और रुद्राक्ष के पेड़ों पर आया हुआ बौर माहौल के हरेपन को और आकर्षक बना रहा है। हवा की आर्द्रता के कारण प्रत्येक वृक्ष के तने और शाखाओं पर छोटी लताओं जैसे कुछ शैवाल उग आए हैं, जिनसे हर पेड़ की लकड़ी ने हरी चूनरी से अपना तन ढँक लिया है। इस श्यामला प्रकृति को गाड़ी की खिड़की से अपनी आँखों में भरता हुआ मन अघाता ही न था कि गाड़ी अचानक मुख्य सड़क छोड़कर एक गली में मुड़ गयी और पार्किंग में खड़ी हो गयी।
आयोजक हमें गाड़ी से उतारकर एक बांध की सीढ़ियां चढ़ने लगा। ज्यों ही हमने अंतिम सीढ़ी पार की तो हम एक ऐसे स्थान पर पहुँच गये जहाँ से हमारे और क्षितिज के मध्य जल ही जल दिखाई देता था। यह ब्रह्मपुत्र का वैभव था। अथाह जलराशि का मार्ग बना यह महानद अब से पूर्व केवल चित्रों में ही देखा था। एकाध बार गुवाहाटी में इसके दर्शन हुए लेकिन हर बार शाम के धुंधलके में ही इसके दर्शन हुए इसलिए इसकी भव्यता का सही अनुमान न हो सका था। आज अनेक देशों से गुज़रने वाले ब्रह्मपुत्र के साक्षात्कार का सौभाग्य मिल रहा था। नदी के विशाल पाट को लेकर जितनी कल्पनाएँ की जा सकती थीं, सब छोटी पड़ रही थीं। 
कुछ देर इस दृश्य का भोग करके हम वापस गंतव्य की ओर बढ़ चले। साथ चल रही ट्रेन लाइन का डेड एन्ड आ गया। आयोजक ने बताया कि इसके आगे रेलमार्ग समाप्त हो जाता है। ठीक इस डेड एन्ड के सामने डिब्रूगढ़ जिमखाना क्लब था।
चेकइन करने का बाद भोजन आदि करके हमने एक घण्टा विश्राम किया। बारिश की हल्की फुहारें अनवरत जारी थीं। शाम को तिनसुखिया से कुछ मित्र मिलने आ गये और फिर कवि-सम्मेलन के लिए बुलावा आया गया। सवा आठ बजे से सवा दस बजे तक लगातार ठहाकों और तालियों का लास्य हुआ। तकनीक का सुफल यह था कि जिस शहर में मैं पहली बार गया था, वहाँ भी श्रोतादीर्घा से कविताओं की फरमाइश आ रही थी। आयोजकों ने हमें बताया कि इस क्लब में इतनी बड़ी संख्या में श्रोता पहली बार आए हैं और इतनी देर तक पहली बार कोई कार्यक्रम चला है। हमने भी हँसते हुए उन्हें बताया कि हमने भी बहुत दिन बाद इतना लम्बा-लम्बा काव्यपाठ किया है।
एक ओर अरुण जी सेल्फियों से घिरे हुए थे, दूसरी ओर मेरे साथ भी फ़ोटो खिंचवाने वाले पर्याप्त संख्या में जुटे हुए थे। थोड़ी-सी देर का यह सेलिब्रिटिज़्म जीने के बाद हम अपने कमरे में आकर सोने की तैयारी करने लगे। 
सामने खिड़की के शेड से टपकती पानी की बून्दों और शेड पर पड़ती बारिश के संगीत से माहौल रूमानी हो चला था। बरसाती रात के गहरे अंधेरे में दूर किसी हैलोजन पिलर पर झिलमिलाती बरखा से रूसी उपन्यासों की फीलिंग आ रही थी।
इस बरसाती ख़ुशबू को आँखों से भोगते हुए न जाने कब आँख लग गयी। सुबह अलार्म ने बताया कि हवाई अड्डे का जहाज हमारे मूड की परवाह किये बिना उड़ सकता है। अरुण जी ने नाश्ता ऑर्डर किया और हम दोनों जल्दी-जल्दी तैयार होकर हवाईअड्डे पहुँचे।
अभी अड़तीस हज़ार फीट की ऊँचाई पर मेरे दाहिनी ओर हिमालय का वैराट्य बाँहें फैलाए खड़ा है। सूर्य की किरणों ने हिमशिखरों को चूमकर गुलाबी कर दिया है। बादलों की अनेक परतों को पार कर हिमगिरि के उत्तुंग शिखर ऊपर निकल आए हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो कोई लजीला किशोर उचक-उचक कर अपनी प्रियतमा रश्मियों को देखने की कोशिश कर रहा है। प्रकृति की इस असीम अनुभूति में मैं इंडिगो के जहाज की खिड़की वाली सीट पर बैठा मनुष्य के बौने सामर्थ्य को अनुभूत करते हुए विज्ञान की कोशिशों का धन्यवाद कर रहा हूँ। 

© चिराग़ जैन

Monday, March 28, 2022

सनातन धर्म और सहिष्णुता

सनातन संस्कृति की सबसे ख़ूबसूरत बात यही है कि यहाँ भक्त और भगवान के मध्य जो बातचीत होती है, वह केवल भक्तिरस तक ही सीमित नहीं है। बल्कि उसमें काव्य के अन्य सभी रसों की सृष्टि सम्भव है।
विश्व के अन्य किसी धर्म में यह चमत्कार सम्भव नहीं है। किसी अन्य धर्म के आराध्य की होली खेलते, रास रचाते, गोपियों के वस्त्र चुराते, जूठे बेर खाते आप कल्पना नहीं कर पाएंगे। किसी अन्य धर्म के पास ठिठोली करता ईश्वर नहीं मिलेगा। किसी अन्य धर्म का आराध्य हनुमान की तरह अशोक वाटिका उजाड़ कर किसी पेड़ से फल तोड़कर खाने लगे तो यह उसके व्यक्तित्व को सूट नहीं करेगा।
यह सब केवल सनातन परम्परा में संभव है। यहाँ ईश्वर को जीवन के प्रत्येक क्षण में सम्मिलित किया गया है। सनातन परम्परा ईश्वर को किसी धर्मस्थल विशेष तक सीमित करने की पक्षधर नहीं है। यहाँ तो ईश्वर को साथ लेकर घूमने का रिवाज़ है।
घर में विराजमान लड्डू गोपाल बाक़ायदा घर के सदस्य की तरह रहते हैं। वे परिवार के साथ उठते हैं, सोते हैं, खाते-पीते हैं, नहाते हैं और घूमने भी जाते हैं। वे नाराज़ भी होते हैं और मानते भी हैं। पारलौकिक से ऐसा लौकिक संबंध अन्यत्र कहीं सम्भव नहीं है।
यही कारण है कि हमारा ईश्वर हमारे साथ हँसता है। खिलखिलाकर हँसता हुआ ईश्वर अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। यह केवल हमारे पास सम्भव है।
माँ अनुसूया के पालने में त्रिदेव के खेलने की घटना इस बात की प्रमाण है कि सनातन परंपरा का ईश्वर वात्सल्य का सम्मान करता है। जसुमति मैया से झूठ बोलता कन्हैया ईश्वर के वात्सल्यबोध का परिचायक है। शबरी के जूठे बेर खाते राम और विदुरानी के हाथों से केले के छिलके खाते कृष्ण प्रेम की प्रतीति के उदाहरण हैं। रास रचाते कृष्ण संयोग सिंगार के प्रतिमान हैं और विकल होकर वन्य-वनस्पति से सीता का पता पूछते राम वियोग शृंगार के प्रतीक हैं। रुक्मणि के कृष्ण सदेह प्रेम की स्वीकारोक्ति हैं और मीरा के गिरिधर विदेह प्रेम के बिम्ब हैं। प्रह्लाद की आस्था पर खम्भ से उत्पन्न नृसिंह जब अपने नख से हिरण्यकश्यप का वध करते हैं तो भयानक रस साकार हो उठता है, और सती के आत्मदाह से क्रुद्ध शिव जब ताण्डव करते हैं तो रौद्र रस की सर्जना होती है। वामन अवतार में राजा बलि की समस्त सम्पदा नाप लेने वाले ईश्वर ने अद्भुत रस का उदाहरण प्रस्तुत किया। आँसुओं से सुदामा के चरण पखारते कृष्ण करुणरस का निमित्त हैं और नारद को हरिमुख देकर परिहास का पात्र बनाने वाले विष्णु हास्यरस की स्वीकृति हैं। युद्धक्षेत्र में भी उग्र न होकर संयत रहनेवाले राम शान्तरस का प्रमाण बन गए हैं।
सनातन परंपरा का ईश्वर जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में हमारे साथ हो सकता है। यही कारण है कि विवाह के लिए सजती दुल्हन को गौरी का स्वरूप मानकर उसकी पूजा की जाती है और बारातियों को शिव के गण मानकर गारी गायी जाती है। कन्या के पिता को जनक मानकर गीत गाने का चलन आज भी हमारे समाज में है।
हमने ईश्वर की अनुभूति के ताने को दिनचर्या के बाने के साथ ऐसे बुन दिया है कि गर्भाधान से लेकर अंतिम संस्कार तक हर जगह किसी न किसी पौराणिक सन्दर्भ का प्रतीक मानकर जीव को ईश्वर के समतुल्य मान लिया जाता है।
अन्य लगभग सभी धर्मों की कट्टरता या अदृश्य कट्टरता ने उनके ईश्वर को केवल धर्मस्थलों तक सीमित कर दिया है। यही कारण है कि उनके ईश्वर के साथ केवल भक्ति का सम्बंध बनता है। प्रेम, क्रोध, वात्सल्य और हास-परिहास के संबंध की कल्पना तक नहीं की जा सकती। ऐसा कुछ करते ही उनकी भावनाएँ आहत हो जाती हैं। ऐसा कुछ करते ही वे असहिष्णु हो जाते हैं।
लेकिन सनातन परम्परा में यह सब कुछ सम्भव था। इसीलिए हमारे यहाँ ईश्वर को प्रतीक मानकर ख़ूब काव्य रचा गया। यदि हमारे यहाँ भी कट्टरता का रोग होता तो कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन करनेवाले सूरदास को सूली पर चढ़ा दिया गया होता। कृष्ण की प्रेम लीलाओं का चित्रण करनेवाले रसखान की गर्दन काट दी गयी होती। बिलखते हुए राम से परिचय करानेवाले तुलसी लोकनिंद्य हो चुके होते। शिव की बारात का बखान करनेवाले पुराण निषिद्ध हो चुके होते।
यह सनातन परम्परा का ही कनवास है कि यहाँ नारद मुनि के हास्यबोध और परशुराम तथा दुर्वासा सरीखे क्रोधित ऋषियों की कथा एक साथ स्वीकार्य है। जहाँ इंद्र तक को उसकी ग़लती का एहसास कराने के लिए कृष्ण गौवर्द्धन उठाने से नहीं हिचकते। गौवर्द्धन की घटना ईश्वर की ओर से मनुष्यता को यह संदेश देती है कि देवराज होने से ही कोई हमेशा सही सिद्ध होने का अधिकारी नहीं बन जाता।
शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करनेवाले कृष्ण जिस धर्म के पास हैं, उनको यदि ऐसा लगने लगे कि कोई बात, कोई परिहास, कोई उपालम्भ, कोई तर्क, कोई चर्चा उनके ईश्वर का अपमान कर सकती है तो यह उनकी नासमझी से अधिक कुछ नहीं है।
ईश्वर तो मान-अपमान से काफ़ी दूर निकल गया है। वह भक्त के निश्छल अपनत्व का छोर पकड़कर कठौती तक चला आता है। यह अपनत्व किसी भी भाव से पूर्ण हो सकता है। यहाँ तो शत्रुभाव से ईश्वर का स्मरण करने वाले रावण और कंस तक को तारने का रिवाज़ रहा है।
इसलिए इन दिनों जो लोग ईश्वर के सम्मान के ठेकेदार बने घूम रहे हैं, उनको स्मरण हो कि जब तक कट्टरता से बचा हुआ है तब तक सनातन धर्म का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता; और बाक़ी रही ईश्वर के सम्मान की बात तो उसकी चिंता ईश्वर पर छोड़ दें।

© चिराग़ जैन

एक सुबह पतझड़ की...

मौसम बदल रहा है। जो हरापन पेड़ की शाखा से नीचे नहीं उतरता था, वह सूखकर ज़मीन पर आ गिरा है। मुसाफ़िरों के पैरों तले कुचलकर चूरा हुए जाते इस युग को रोज़ सवेरे एक झाड़ू से सकेरकर ढेर घोषित कर दिया जाता है।
हवा का कोई झोंका इन्हें छेड़ देता है तो इनसे सरगम नहीं फूटती, बल्कि खड़खड़ाहट का चिड़चिड़ा शोर गूंजता है।
कोई सूखा पत्ता अपनी दुर्दशा से नज़र बचाकर डाल की ओर देख ले तो उसे वहाँ अपनी जगह कोई नया शोहदा बैठा दिखाई देता है। ऐसा जान पड़ता है जैसे कोई कल का छोकरा लाल कमीज़ पहनकर उसके तख़्त पर धरा गया है। उसके इस लाल जलवे से डाल झूम उठी है। बल्कि यूँ कहें कि डाल भी उसके रंग में रंगकर लाल हो उठी है। डाल ही क्यों, पूरा पेड़ लाल हो उठा है। सूखे पत्ते की आँखें भी लाल हो गयी हैं।
डाल पलटकर अपने अतीत की ओर देखने को भी तैयार नहीं है। वह नये पत्तों की ख़ुशबू से प्रसन्न है। संवेदना ने कान लगाकर सुना तो सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट में आक्रोश और करुणा से भरी एक चीख़ सुनाई दी। मैंने इस चीख़ का लिप्यान्तरण करने की कोशिश की तो ‘खच... खच... खच...’ जैसा शब्द काग़ज़ पर उतर आया।
डाल के लाल सिंगार और धरती से टकराती इस करुण पुकार से साक्षात्कार करके लौटने लगा तो वर्मीकम्पोस्ट का एक प्लांट दिखाई दिया। जहाँ लाल रंग से त्रस्त इन सूखे पत्तों को लाल-लाल केंचुओं के हवाले कर दिया जाता था। एक होदी में तैयार खाद भरी हुई थी, मानो प्रकृति ने सूखे पत्तों की राख किसी कलश में भरकर रखी हो।
इस खाद को कल कोई माली उन्हीं पेड़ों की जड़ों में डाल देगा, जिनकी डाल पर कभी इनका शासन चलता था। और तब ये छोटे-छोटे कण, सूखे पत्तों को बताएंगे कि जब तुम लाल कमीज़ पहनकर डाल पर इतरा रहे थे तब हम ज़मीन पर घिसटते हुए तुम्हें अपलक निहार रहे थे। इसलिए जाओ, खाद बनो और अपने आपको इन जड़ों में समर्पित कर दो ताकि कल फिर किसी डाल पर लाल हरियाली बनकर इतरा सको!
विचार की इस यात्रा से मेरे मन में पनपा अवसाद धुल गया और मैं डाल पर थिरकते लाल-लाल पत्तों की चमक में ज़मींदोज़ पत्तों का भविष्य देखकर खिल उठा। मेरे पैरों के नीचे अब भी कुछ सूखे पत्ते दब रहे थे, लेकिन अब उनसे आवाज़ आ रही थी- ‘सच...सच...सच...!’

© चिराग़ जैन

Saturday, March 26, 2022

महीयसी महादेवी

बचपन में पाठ्यक्रम में एक रेखाचित्र पढ़ा था- ‘गौरा’। इसे पढ़कर गाय के प्रति तो मन आकृष्ट हुआ ही; महादेवी जी के प्रति भी मन प्रेम से भर उठा। फिर तो मैंने खोज-खोजकर महादेवी जी को पढ़ना शुरू कर दिया। उनका गद्य मेरे लिए प्रेरणास्रोत बनता गया और उनका पद्य मेरे संवेदी तंतुओं की ख़ुराक़ बन गया।
महादेवी जी से मेरा प्रथम परिचय शब्दों के माध्यम से ही हुआ था। कई वर्ष तक उन्हें पढ़ता रहा किन्तु कभी उन्हें देखने की उत्कंठा उत्पन्न नहीं हुई। हाँ, ज्यों-ज्यों उन्हें पढ़ता; उनके प्रति प्रेम और प्रगाढ़ होता जाता था।
मैंने उन्हें पढ़-पढ़कर उनकी एक छवि अपने मन में बना ली थी, जिसमें सिर पर पल्ला किये एक सम्भ्रांत महिला का आकार-सा तो था किंतु चेहरे के नैन-नक्श की कोई मूर्ति नहीं थी। यूँ कहें कि मन इतना जुड़ गया था कि चेहरे की कभी आवश्यकता ही महसूस न हुई। उन दिनों गूगल नहीं था, इसलिए किसी साहित्यकार का चित्र देखना इतना सरल नहीं था, जितना अब है।
बहुत वर्ष बाद, एक दिन पुस्तक मेले में महादेवी जी की तस्वीर एक एलबम में देखी। देखकर मुझे कोई आश्चर्य न हुआ। बल्कि अनुभूति हुई कि दैव ने सौंदर्य के एक-एक तत्व का समावेश उनके मन के निर्माण में कर दिया, अतएव देहयष्टि के लिए सौंदर्य का कोष बचा ही न रहा होगा।
उस दिन महादेवी जी की तस्वीर को बहुत देर तक निहारा और उनकी तमाम रचनाओं को उस मुखाकृति के साथ पुनः अनुभूत किया... उस दिन से मुझे महादेवी जी से और अधिक प्रेम हो गया।
एक दिन श्री रामनिवास जाजू जी की पुस्तक डिज़ाइन करते समय मोहन गुप्त जी ने मुझे महादेवी जी का खिलखिलाता हुआ चित्र दिया। उस दिन मैंने महीयसी को पहली बार खिलखिलाते हुए देखा... मैं और अधिक प्रेम से भर उठा। उनकी खिलखिलाहट में उनकी पीड़ा और भव्य हो उठी थी। वह चित्र आज भी मेरे कोष में सुरक्षित है और उस चित्र की खिलखिलाहट आज भी पीड़ा की उस साकार मूर्ति के प्रति मुझे सम्मोहित कर देती है।
आज सब महादेवी जी के विषय में कुछ-कुछ लिख रहे हैं। मेरा भी मन हुआ... तो उनके प्रति अपनी मनोदशा यथावत लिख डाली। और हाँ, यह लिखते हुए मैं महादेवी जी के प्रति और भी अधिक प्रेम से भर उठा हूँ!


~चिराग़ जैन

Thursday, March 17, 2022

होली : एक अवसर

होली; मनुष्य को भीतर से बाहर तक एकरूप कर देने का त्योहार। होली; अलग-अलग रंगों के एकरंग हो जाने का अवसर। होली; शालीनता और नैतिकता के बोझ को किनारे रखकर कुछ क्षण स्वाभाविक हो जाने का पर्व। होली; सभ्यता के आडम्बर से मुक्त होकर सहजता की धारा में डुबकी लगाने का रिवाज़।
नियम और नीतियों ने नाप-तोलकर जिस मनुष्य को सभ्यता के शोकेस में सजा रखा है, उसको कुछ क्षण के लिए मन से जीने का अवसर देता है, होली का त्योहार। विवशता के रिंग मास्टर ने जिस शेर को सर्कस का जोकर बनाकर छोड़ दिया है, उसे एक बार पूरे सिंहत्व के साथ जंगल में दहाड़ने का मौक़ा देता है होली का पर्व।
नीतियों के इशारे पर किसी मशीन की तरह जिये जा रहे इंसान को एक बार उच्छृंखल होने का निमंत्रण देता है होली का दिन। अपने भीतर घुट रहे पागलपन को बाहर निकाल फेंकने का महोत्सव है होली।
हज़ारों वर्ष तक सभ्यता लपेटे घूम रहे व्यवस्थितों को देखकर शनैः-शनैः हमारा पूरा समाज सभ्यता लपेटकर घूमने लगा। जो पदार्थ कम उपलब्ध हो उसकी क़ीमत बढ़ने लगती है। प्राकृतिक रूप से जी रहे मानव ने जब करीने के परिधान से सज्ज मानव देखे होंगे तो उन जैसा बनने की होड़ लग गई होगी। यह होड़ बहुत ख़तरनाक होती है। इसका परिणाम यह हुआ कि पूरा समाज सभ्यता ओढ़कर घूमने लगा।
मानव इस हद्द तक सभ्य हो गया कि सभ्यता से ऊब होने लगी। इसलिए ज्यों ही होली पर कोई शंकर जी का बाराती बना बेलौस दिखाई देता है तो हम तुरंत उसकी देखादेखी अपना सभ्यता का आवरण उतार फेंकते हैं।
सभ्य से सभ्य मनुष्य भी जिस क्षण झिझक का खोल तोड़ता है ठीक उसी क्षण वह पूर्णतया प्राकृतिक हो उठता है। शादी-ब्याह में जब नाचने का अवसर आता है तो सभ्यता की झिझक से बंधे लोग किनारे खड़े तरसते रहते हैं और झिझक छोड़कर सहज हुए मनुष्य बेतरतीब नाचने लगते हैं। इस झिझक ने हमें अनेक आनन्दों से वंचित किया है।
होली इस झिझक के खोल से बाहर निकलने का महोत्सव है। चुटकी, रंगबाज़ी, हुड़दंग, ठिठोली, छेड़छाड़, मज़ाक़, गाली-गलौज... ये सब सभ्यता और नैतिकता के व्यामोह को ग़ायब कर देते हैं। हाइजीन-कॉन्शियस लोग जब रंगे हुए हाथों और पुते हुए दाँतों से गुंजिया खाते हैं तो मैनर्स का भूत किसी फटे हुए गुब्बारे-सा ज़मीन पर लोटता दिखाई देता है।
अनावश्यक संबोधनों पर अपनत्व की गालियाँ हावी होने लगती हैं। कल्फ़ लगे कपड़े पहननकर एटिकेट्स के साथ साइलेंटली चलने-फिरने वाले पुतले यकायक भीगे, फटे और रंगे हुए कपड़ों में नाचते हुए सड़कों पर जीवंत हो उठते हैं।
मोबाइल के स्पीकर को होंठों से चिपकाकर न्यूनतम स्वर में बात करने वाले जेंटलमैन अपने गले को लाउडस्पीकर बनाकर जब हो-हल्ला करते हैं तो आवाज़ अपना वास्तविक अर्थ ग्रहण करती है।
होली का यह अवसर हँसने का अवसर होता है। जो दिखे, उस पर हँसी छूट जाती है। और आनन्द यह कि जब हम उस पर हँसने के लिए दाँत निकालते हैं तो हमारे दाँतों की शेड देखकर वह हम पर हँसने लगता है। उसे स्वयं पर हँसते देखकर हम और हँसते हैं।
अपमान, उपहास, बेइज़्ज़ती, इन्सल्ट और ईगो जैसे शब्द इस समय बेमआनी हो जाते हैं। नियमों की क़ैद से मुक्त होकर पूरा वातावरण ठहाके लगाने लगता है। छद्म शालीनता रंगों की बरसात में धुल जाती है। हवा में उड़ता गुलाल बालों के बीच विराजने लगता है तो सिर पर चढ़ चुका ‘लोग क्या कहेंगे’ का भय भाग जाता है।
कदाचित भारत के अतिरिक्त भी कुछ समाज, मनुष्य के भीतर के पागलपन को बाहर निकालने के लिए कोई आयोजन करते हैं; किन्तु संबंधों के भीतर पनप गयी कुंठाओं को उखाड़ फेंकने के लिए होली से बेहतर कोई अन्य अवसर किसी के पास नहीं है।
अगर आपने अब तक होली से परहेज किया है और आज तक स्वयं को इस उत्सव-धारा से अछूता रखा है तो मुट्ठी में अबीर लेकर अपनी ही उंगलियों से ख़ुद के गालों पर लगा लो... आपको ख़ुद से मुहब्बत हो जाएगी।

© चिराग़ जैन

Tuesday, March 15, 2022

पत्नी से सच

होली के हुड़दंग में
रंग में भंग पड़ गयी
इधर ठण्डाई गले से नीचे उतरी
उधर भांग सिर पर चढ़ गई

भोले की बूटी ने ऐसा झुमाया
कि हाथ को लात
और सिर को पैर समझ बैठा
चूहा भी ख़ुद को शेर समझ बैठा

नशे की झोंक में लफड़ा बड़ा हो गया
पत्नी के सामने तनकर खड़ा हो गया
पत्नी ने आँखें दिखाई
तो डरने की बजाय अकड़ने लगा भाई
तू क्या समझती है
तेरी आँखों से डर जाऊंगा
तू जो कहेगी, वो कर जाऊंगा
ख़ुद को बड़ी होशियार समझती है
मुझे अनाड़ी, मूरख, गँवार समझती है
अरे, तेरी बेवकूफियों को हज़ारों बार इग्नोर कर चुका हूँ
क्योंकि तुझसे शादी करके
सबसे बड़ी बेवकूफी तो मैं ख़ुद कर चुका हूँ

जब नशा उतरा
तो उसकी दुनिया का पूरा भूगोल डोल गया
लेकिन मन ही मन ख़ुश था
कि नशे में ही सही
एक बार तो पत्नी से सच बोल गया।

~चिराग़ जैन

Friday, March 11, 2022

चुनाव के बाद

जीत और हार के शोर-शराबे के बाद यकायक राजनैतिक गलियारों में सन्नाटा पसर गया है। जीतनेवाले इतने स्पष्ट बहुमत से जीते हैं कि मीडिया के पोस्ट इलेक्शन अलायंस और हॉर्स ट्रेडिंग जैसे कैप्सूल धरे के धरे रह गये हैं।
यही स्पष्ट बहुमत वर्तमान लोकतंत्र की दरकार है। आरोप-प्रत्यारोप जैसे तमाम हो-हल्ले पर चुनाव परिणाम ने पूर्णविराम लगा दिया है।
इसका यह कतई अर्थ नहीं है कि अब जीतनेवाले सरकार चलाएँ और बाक़ी सबकी ज़िम्मेदारी ख़त्म हो गयी। जो नहीं जीत सके हैं, उनका उत्तरदायित्व अब और अधिक हो गया है। विपक्ष लोकतंत्र को आकार देनेवाली हथेली है। यदि विपक्ष अपना काम ठीक से न करे तो सत्ता के चाक पर घूमती सरकार बेतरतीब आकार लेने लगेगी।
वर्तमान राजनैतिक चर्चाओं में विपक्ष को सरकार का शत्रु मानने की परंपरा चल निकली है, जबकि विपक्ष लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण अंग होते हुए प्रकारांतर से सरकार का हिस्सा ही है।
विपक्ष को यह समझना होगा कि उसकी भूमिका चाक पर घूमती मिट्टी को लोई को आवश्यक छुअन और दबाव से सार्थक आकार देने तक सीमित है। यदि हथेली मिट्टी की लोई को हटाकर स्वयं चाक पर घूमने का प्रयास करेगी तो स्वयं भी घायल होगी और भविष्य के निर्माण को भी ध्वस्त कर देगी।
इसी प्रकार सरकार को भी यह समझना होगा कि तेज़ गति से घूमती लोई पर यदि कोई अंगुली का दबाव महसूस होने लगा है तो इसका अर्थ है कि अब तंत्र के एक निश्चित आकार में ढलने का समय आ गया है।
हथेली मिट्टी से स्वयं को रिप्लेस न करे और मिट्टी हथेली की छुअन से परहेज न करे तो लोकतंत्र के चाक की गति निर्माण का कारण बन जाएगी।
जनता ने विधायिका की नियुक्ति कर दी है। अब इसके बाद जनता का भाजपाई, कांग्रेसी, सपाई, बसपाई, आपिया या अकाली होना समीचीन नहीं है। अब जनता को भी जनता होकर हर जीते हुए प्रत्याशी को अपना प्रतिनिधि मानकर उसे तंत्र के प्रचालन का अधिकार देना होगा। अब हर जीते हुए प्रत्याशी को भी जनता को ‘पाँच वर्ष के लिए अनावश्यक’ समझने की बजाय सर्वाेच्च सत्ता समझते हुए प्रत्येक निर्णय से पूर्व इस सर्वाेच्च सत्ता के प्रति उत्तरदायित्व बोध से युक्त रहना होगा।
-सत्ता को यह मानना होगा कि सवाल पूछनेवाला हर व्यक्ति सरकार का विरोधी नहीं है।
-विपक्ष को यह मानना होगा कि सरकार के प्रत्येक निर्णय का विरोध आवश्यक नहीं है।
-जनता को यह जानना होगा कि विपक्ष के अभाव में कोई भी सत्ता जनता की बात नहीं सुन सकती।
-मीडिया को यह समझना होगा कि हर बुलेटिन में शोर भर देने का नाम पत्रकारिता नहीं है।
-साहित्य को यह स्वीकारना होगा कि नारे, जयकारे, आरती, चालीसा और गाली को कभी साहित्य नहीं कहा जाएगा।

© चिराग़ जैन

Monday, March 7, 2022

बिटिया की विदाई

चल पड़ी ससुराल बिटिया सज-सँवर के
मन बिलखकर रह गया इस पल अचानक
देहरी की आँख नम होने लगी है
मौन रहने लग गयी साँकल अचानक 

याद आता है अभी कल ही हमारी
गोद में इक पाँखुरी सी आई थी तुम
बस अभी कल ही कोई साड़ी पहनकर
देखकर दर्पण बहुत इतराई थी तुम
लांघकर बचपन, हुई थी तुम सयानी
याद आने लग गया वो पल अचानक 

जो चहकती थी सुबह से शाम घर में
आज वो चिड़िया पराई हो रही है
ख्वाहिशें घूंघट के नीचे छिप गयी हैं
नाज-नखरों की विदाई हो रही है
साध ली सिंदूर ने कलकल समूची
और गुमसुम हो गयी पायल अचानक 

लाड़ इक विश्वास के आगे झुका है
भाग्य के हाथों तुम्हारा हाथ है अब
उम्र भर का पुण्य जो कुछ है हमारा 
हर क़दम पर वह तुम्हारे साथ है अब
दिल बिना धड़कन, ठिठककर थम गया है
आँख से चोरी हुआ काजल अचानक 

सात फेरों का सफ़र पूरा हुआ है
है पराया आज अपनापन हमारा
एक नग अधिकार पीछे रह गया है
घर तुम्हारा, बन गया पीहर तुम्हारा
याद की गठरी टटोले जा रहे हम
हो गई तुम आँख से ओझल अचानक

© चिराग़ जैन

Thursday, March 3, 2022

गोल-गोल गोलगप्पा

पानी के बतासे, पुचका, गुपचुप, टिकिया और न जाने क्या-क्या नाम हैं इस चटखारे का। हर गली-नुक्कड़ पर कोई चाट का ठेला इस अनोखे व्यंजन के बिना पूरा नहीं होता।
सूजी और आटे की छोटी-छोटी करारी पूरियों को फोड़कर उनमें आलू-चने और सोंठ का मसाला भरकर जब तक गोलगप्पे वाला उसे किसी बर्तन की तरह चटपटे पानी में डुबोकर आपके दोने में रखता है तब तक उस गोलगप्पे जितना ही पानी आपके मुँह में भी आ चुका होता है।
अपनी पूरी क्षमता से मुँह फाड़कर आप इस चटक स्वाद को मुख के भीतर तक ले जाते हैं और फिर बाहर टपकती पानी की बून्द को तेज़ी से भीतर सुड़कते हुए पुचके का पूरा-पूरा आनंद उठाते हैं।
इस क्षण में गोलगप्पे का करारा खोल आपके मुँह में किसी टेस्ट-बम की तरह फट जाता है... उसके भीतर भरा मसाला और पानी सूनामी की तरह आपके टेस्ट-बड्स को सराबोर करने लगता है... आपकी जीभ के अग्रभाग में पानी का तीखापन, पार्श्व में सोंठ की मिठास और जीभ के नीचे इमली और अमचूर की खटास एक साथ ताण्डव करने लगती है। इस महोत्सव की धमक आपके चेहरे को लाल कर देती है और आँखों में एक चटपटी नमी उतर आती है।
शायद विश्व की अन्य कोई भी डिश एक साथ सारे टेस्ट बड्स को इतनी जल्दी एक्टिव नहीं कर पाती। यही कारण है कि हमारे देश में कहीं भी चले जाओ, गोलगप्पे लड़कियों की पहली पसंद हैं। हर चाट के ठेले पर हर उम्र की महिला आपको गोलगप्पाज़ खाती दिख जाएंगी।
पुरुषों को भी गोलगप्पे ख़ूब लुभाते हैं, लेकिन मैं ऐसे कुछ पुरुषों को जानता हूँ जिन्हें बाज़ार में ठेले पर खड़े होकर पुचका खाते संकोच होता है इसलिए वे जब भी किसी विवाह-पार्टी में जाते हैं तो सबसे पहले ‘पानी के बतासे’ का काउंटर लपक लेते हैं।
कुल मिलाकर, गोलगप्पा एक समग्र स्वाद का उदाहरण है। यह गोल होता है और गप्प से न खाएँ तो मुँह के बाहर ही फूट सकता है; इसलिए इसे गोलगप्पा कहा जाता है। मुँह में पहुँच कर यह पुचक कर फूटता है, इसलिए इसे पुचका कहा गया होगा। इसमें पानी भरा जाता है इसलिए इसे पानी का बतासा कह देते होंगे और इसमें सभी स्वाद गुपचुप रहकर यकायक आपके मुख में प्रविष्ट होते हैं, इसलिए इसे गुपचुप कहा जाता होगा।
बहरहाल, गोलगप्पा स्वाद का एक कम्प्लीट पैकेज है। सो, अपनी जीभ के नीचे उफन रहे पानी को दबाने की बजाय बाज़ार जाइये और इतराते हुए कहिए - ‘भैया ट्वेंटी रुपीज़ के गोलगप्पाज़ दे दीज्ये प्लीज़!’

© चिराग़ जैन

Tuesday, March 1, 2022

कविता की नयी पौध

मुझे प्यार करनेवालों का कहना है कि मैं बहुत अच्छा लिखता हूँ। सुनकर अच्छा लगता है। मेरे अपनों का मानना है कि मैं सबसे अच्छा लिखता हूँ। सुनकर आश्वस्ति होती है कि मेरे पास मुझे ‘अपना’ माननेवाले ख़ूब लोग हैं। मेरे पाठकों का कहना है कि मुझ जैसा कोई नहीं लिख सकता। सुनकर एक मीठा-सा अहंकार उपजता है।
इस अहंकार में जब मैं अन्य ‘अच्छा लिखनेवालों’ की वॉल पर जाता हूँ तो मेरे भीतर उपजता अहंकार का अंकुर क्षण भर में सूख जाता है। आयु में मुझसे दस-बारह वर्ष कम रहकर भी कुछ लोग इतना श्रेष्ठ लेखन करते हैं कि कई बार अपना समस्त लेखन निरर्थक जान पड़ता है।
पिछले दिनों फेसबुक पर संजू शब्दिता को पढ़ा। उनकी वॉल विचार के खोजियों के लिए ख़ज़ाना हाथ लगने जैसा अनुभव है। हर पोस्ट में दो मिसरे हैं और हर मिसरे में आपको सुखद आश्चर्यबोध से भर देने का सामर्थ्य है। चूँकि मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ अतः यह तो नहीं लिख सकता कि वे इस दौर की सर्वश्रेष्ठ शायरा हैं, लेकिन इतना अवश्य लिख सकता हूँ कि किसी विचार को जिस नज़रिए से संजू ग़ज़ल तक लाती हैं, वैसा नज़रिया मेरे संज्ञान में अन्यत्र कहीं नहीं मिला। पीड़ा की ख़ुद्दारी और निर्वेद की स्थिति तक दार्शनिक होती हुई इनकी शायरी बड़े-बड़े सुख़नवरों के लिए सोच के नये रास्ते खोलती है। ईमानदारी से कहूँ तो संजू शब्दिता वे पहली लेखिका हैं, जिनके कुछ अशआर से मुझे ईर्ष्या हुई कि काश यह बात मैंने कही होती।
उधर एक रचित दीक्षित हैं। ये शख़्स इस दौर का औघड़ है। कबीर जैसा बेलाग। मन के भीतर जो बात, जिस शब्दावली में उतरती है; उसे जस का तस काग़ज़ पर उतार देता है। तेवर ऐसा कि उसकी छोटी सी कविता बिना म्यान के नश्तर की तरह सीधे अवधान के आर-पार हो जाती है। नैतिकता और सामाजिकता की रस्म निभाती मान्यताएँ यकायक मनुष्यता की एक सपाटबयानी के आगे बौनी सिद्ध हो जाती हैं। बहुत समय बाद रचित के रूप में एक ऐसा कवि पढ़ने को मिला है, जो जन-मान्यता के अनुरूप नहीं मन-मान्यता के अनुरूप शब्द गढ़ता है।
एक नन्हीं-सी बालिका है इति शिवहरे। भाषा के जिस मुहावरे से स्वयं भाषाविद पल्ला झाड़ चुके थे, उस प्रांजल शब्दावली को बहते पानी की रवानी बना देती है अपने गीत में। उसे पढ़ता हूँ तो अनुभूत कर पाता हूँ कि क्लिष्ट शब्दावली से रसास्वादन करनेवाला मेरे भीतर का पाठक इस समय में कहीं पूर्ण तृप्त हो सकता है तो वह इति की लेखनी है। फोन पर बात की तो पाया कि उसकी आवाज़ ने अभी बचपन की देहरी पार नहीं की है लेकिन उसकी शब्दावली प्रौढ़ता की भी दूसरी पीढ़ी के पार पहुँच गयी है। इति को पढ़कर हमेशा यही दुआ की है कि काश ईश्वर समाज के भाषा संस्कार को इस योग्य बनाए कि इस बच्ची को अपनी भाषा का सरलीकरण करके साहित्य रचने पर विवश न होना पड़े।
एक स्वधा रवीन्द्र जी हैं। उनकी लेखनी से साक्षात्कार किया तो एकाध गीत तक तो ऐसा लगा कि हाँ, हो गया होगा किसी पुण्य के फल से कोई एकाध गीत। लेकिन ज्यों-ज्यों स्क्रोल करता गया... मन किसी अदृश्य शिकंजे में जकड़ता चला गया। भाव की ऐसी तरलता कि गीत यकायक पढ़नेवाले के चेहरे की भंगिमा से अठखेलियाँ करने लगे। अलक, भृकुटि, ओष्ठ-अन्त, नथुने, कण्ठ, नयनकोर... एक-एक अंग-उपांग उनके गीत की भावभूमि के पर्यटन पर निकल जाए। वे अक्सर मुझे ‘बालक’ कहकर संबोधित करती हैं। लेकिन उन्हें पढ़कर लगता है कि उन पर सरस्वती की जितनी कृपा है उसके अनुरूप उनका यह संबोधन ही मुझे वाग्देवी से कुछ आशीष दिला देता होगा।
एक वाशु पाण्डेय। शायरी करता है। ग़ज़ल के व्याकरण और कथ्य दोनों को पूरी शिद्दत से साधता हुआ यह नौजवान ज़िन्दगी में सर्वाधिक मुहब्बत क़लम से ही करता है। उससे कभी बतियाने की कोशिश करेंगे तो उसकी हर बात में शायरी मिल जाएगी। जज़्बा ऐसा कि जैसे एक दिन पूरे ज़माने को अपने जैसा बनाकर ही दम लेगा। तबीयत ये कि जो बात हमारे दिल में आ गयी उसे ठीक वैसे ही न कहा तो काहे के शायर। वाशु के ढेर सारे अशआर कब मेरी बातचीत को प्रभावी बनाने के काम आने लगे... मुझे पता ही नहीं चला। उसकी शायरी को पढ़ते हुए ऐसा कई बार लगा है कि इस उम्र में ये हाल है तो दस-बीस साल बाद ये लड़का क्या करेगा!
आप भी कभी फ़ुर्सत निकालकर इन सबको पढ़ लें और फिर मुझे बताएँ कि इनमें से किसी के विषय में ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर तो नहीं लिख दिया। तब तक मैं अपने अहंकार को ध्वस्त करने के लिए क़लम के और सितारों की तलाश जारी रखूंगा।

- चिराग़ जैन

शिव : साधना सहजता की

शिव... जहाँ पीड़ा और उत्स एकाकार हो जाते हैं।
शिव... जहाँ काव्य के नौ रस बिना किसी भेदभाव के एक साथ रहते हैं।
शिव... जहाँ सृष्टि के समस्त भावों को प्रश्रय मिल जाता है।
शिव... जिसके द्वार किसी के लिए भी बंद नहीं हैं। बल्कि यूँ कहा जाए कि जहाँ द्वार जैसा कुछ है ही नहीं। शिव तो द्वाररहित हैं। शिव तो मार्गरहित हैं। मार्ग, द्वार, यात्रा ये सब तो भौतिक शब्द हैं! शिव इन सबसे परे हैं। शिव कोई संज्ञा नहीं हैं, वे तो एक घटना हैं। वे तो घटित होते हैं।
और घटना का कोई मार्ग अथवा द्वार नहीं हो सकता। वह तो कहीं भी घटित हो जाए। उसके घटित होने का बाद उस स्थल का मार्ग अथवा द्वार अवश्य हो सकता है। किंतु वह उस वैराट्य का स्मारक मात्र होगा। द्वार और मार्ग से जहाँ कोई पहुँचेगा वहाँ उसे उस घटना के चिह्न मिल सकते हैं... घटना तो घटित हुई और विलीन हो गयी।
इसीलिए शिव तक पहुँचने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता ही नहीं है। इसीलिए शिव का स्वरूप किसी प्रदेश, लोक जाति, देश, वर्ण, नस्ल, वर्ग, ग्रह, योनि, काल अथवा धर्म तक सीमित नहीं है। शिव असीम हैं। उन्हें जो देखे वो उसे ‘अपने’ लगते हैं।
शिव किसी एक के हो भी कैसे सकते हैं। शिव तो सबके हैं। सबकी पीड़ा का निदान हैं। शिव किसी भी प्रकार के परहेज से परे हैं। भूत, प्रेत, व्यंतर, मनुष्य, नाग, नक्षत्र, पशु, नदी, पर्वत, सुर, असुर और यहाँ तक कि मसान तक को शिव से अपनत्व मिल जाता है।
शिव के अर्द्धांग में प्रतिष्ठित पार्वती प्रेम का अस्तित्व हैं तो शिव के कण्ठ में विद्यमान विष उनके वात्सल्य का द्योतक है। चिताभस्म का लेप वैभत्स्य को जीवंत करता है, त्रिशूल पर ओज विराजित है और जटाओं से प्रस्फुटित गंगा आश्चर्य उत्पन्न करती है। शिव के गणों में हास्य के दर्शन होते हैं और हृदय में करुणा वास करती है। त्रिपुण्ड के मध्य स्थित नेत्र उन्हें रौद्र कर देता है तो निमीलित नयनों से वे अपने निर्वेद होने की सूचना देते हैं।
शिव के चरण पर्वत पर हैं और शीश पर चंद्रमा विद्यमान है। यह स्वरूप शिव के वैराट्य का प्रमाण है। मृगछाल और गंगोद्गम उनके प्राकृतिक होने का उद्घोष है। शिव समाधान का पर्यायवाची है। वहाँ समस्या कोई है ही नहीं। सभी समस्याओं के समाधिस्थ हो जाने की स्थिति है शिव। इस अद्भुत स्वरूप में किसी परहेज की संभावना ही नहीं है। वहाँ सब स्वीकार्य है। शिव के लिए ‘कुछ’ बनना नहीं पड़ता। शिव को पाने के लिए कुछ ओढ़ना नहीं पड़ता।
वहाँ तो ठीक वैसे ही पहुँचा जा सकता है, जैसे आप हैं। जितने अधिक स्वाभाविक होते जाएंगे, शिव का नैकट्य उतना ही अधिक होता जाएगा। कृत्रिमता हटी और शिव घटित हो गये। बनावट का विलीन हो जाना ही शिव का घटित होना है। विश्व में जो-जो असम्भव है, वह सब भी शिव के यहाँ सम्भव हो जाता है। वहाँ नकार है ही नहीं। वहाँ तो सब कुछ साकार है। वहाँ सब कुछ सम्भव है।
शिव का स्वीकार इतना बड़ा है कि उसके आगे कोई अस्वीकार टिक ही नहीं पाता। वे संसार के समस्त भावों को एक सरीखा स्वीकार कर लेते हैं। अन्यत्र आपको ऐसा कहीं नहीं मिलेगा। अन्यत्र ऐसा कहीं तलाशने भी न लगना। मन के भीतर घट रहे हर ‘अजीब’ को शिव के अतिरिक्त कहीं व्यक्त किया तो पागल कहलाओगे। किन्तु शिव के यहाँ सब स्वीकार्य है। वहाँ मन को खोलकर रख देना। वहाँ हर आवरण हटा देना। वहाँ हर नियम के दायरे से बाहर निकल आना। वहाँ हर नैतिकता के खोल से ऊपर उठ जाना। क्योंकि वहाँ कुछ अनैतिक नहीं। वहाँ कुछ अराजक नहीं। वहाँ कुछ अनावृत नहीं... वहाँ तो सब सहज ही सहज है।
इसलिए शिव को पाने की तपस्या सहज हो जाने की तपस्या है। सहज होने के लिए सर्वाधिक तपस्या करनी पड़ती है। बनावट के लिए तो दुनिया भर के पार्लर खुले हुए हैं। बनावट के लिए तो दुनिया भर के मठ, धर्मस्थल, विद्यालय, संस्थान, इदारे खुले हुए हैं। लेकिन सहज होने के लिए कोई इंस्टीट्यूट नहीं है। इन सब संस्थानों और इदारों से बच निकले तो आप शिव के निकट आ जाएंगे। स्वाभाविक होना सबसे कठिन काम है। क्योंकि इसमें कुछ करना नहीं होता। सायास कुछ न करना सबसे कठिन है। क्योंकि जब-जब कुछ सायास किया जाएगा तो वह आपको कृत्रिमता की ओर ले जाएगा, किन्तु जब आपकी अंतःचेतना आपसे अनायास ही कुछ करा लेगी तो वह प्राकृतिक होगा। उसमें कुछ असत्य नहीं होगा। उसमें कुछ असुन्दर नहीं होगा। वह तो पूर्ण सत्य होगा। वह तो पूर्ण सुन्दर होगा। वह तो शिव होगा।

~चिराग़ जैन