मुझे प्यार करनेवालों का कहना है कि मैं बहुत अच्छा लिखता हूँ। सुनकर अच्छा लगता है। मेरे अपनों का मानना है कि मैं सबसे अच्छा लिखता हूँ। सुनकर आश्वस्ति होती है कि मेरे पास मुझे ‘अपना’ माननेवाले ख़ूब लोग हैं। मेरे पाठकों का कहना है कि मुझ जैसा कोई नहीं लिख सकता। सुनकर एक मीठा-सा अहंकार उपजता है।
इस अहंकार में जब मैं अन्य ‘अच्छा लिखनेवालों’ की वॉल पर जाता हूँ तो मेरे भीतर उपजता अहंकार का अंकुर क्षण भर में सूख जाता है। आयु में मुझसे दस-बारह वर्ष कम रहकर भी कुछ लोग इतना श्रेष्ठ लेखन करते हैं कि कई बार अपना समस्त लेखन निरर्थक जान पड़ता है।
पिछले दिनों फेसबुक पर संजू शब्दिता को पढ़ा। उनकी वॉल विचार के खोजियों के लिए ख़ज़ाना हाथ लगने जैसा अनुभव है। हर पोस्ट में दो मिसरे हैं और हर मिसरे में आपको सुखद आश्चर्यबोध से भर देने का सामर्थ्य है। चूँकि मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ अतः यह तो नहीं लिख सकता कि वे इस दौर की सर्वश्रेष्ठ शायरा हैं, लेकिन इतना अवश्य लिख सकता हूँ कि किसी विचार को जिस नज़रिए से संजू ग़ज़ल तक लाती हैं, वैसा नज़रिया मेरे संज्ञान में अन्यत्र कहीं नहीं मिला। पीड़ा की ख़ुद्दारी और निर्वेद की स्थिति तक दार्शनिक होती हुई इनकी शायरी बड़े-बड़े सुख़नवरों के लिए सोच के नये रास्ते खोलती है। ईमानदारी से कहूँ तो संजू शब्दिता वे पहली लेखिका हैं, जिनके कुछ अशआर से मुझे ईर्ष्या हुई कि काश यह बात मैंने कही होती।
उधर एक रचित दीक्षित हैं। ये शख़्स इस दौर का औघड़ है। कबीर जैसा बेलाग। मन के भीतर जो बात, जिस शब्दावली में उतरती है; उसे जस का तस काग़ज़ पर उतार देता है। तेवर ऐसा कि उसकी छोटी सी कविता बिना म्यान के नश्तर की तरह सीधे अवधान के आर-पार हो जाती है। नैतिकता और सामाजिकता की रस्म निभाती मान्यताएँ यकायक मनुष्यता की एक सपाटबयानी के आगे बौनी सिद्ध हो जाती हैं। बहुत समय बाद रचित के रूप में एक ऐसा कवि पढ़ने को मिला है, जो जन-मान्यता के अनुरूप नहीं मन-मान्यता के अनुरूप शब्द गढ़ता है।
एक नन्हीं-सी बालिका है इति शिवहरे। भाषा के जिस मुहावरे से स्वयं भाषाविद पल्ला झाड़ चुके थे, उस प्रांजल शब्दावली को बहते पानी की रवानी बना देती है अपने गीत में। उसे पढ़ता हूँ तो अनुभूत कर पाता हूँ कि क्लिष्ट शब्दावली से रसास्वादन करनेवाला मेरे भीतर का पाठक इस समय में कहीं पूर्ण तृप्त हो सकता है तो वह इति की लेखनी है। फोन पर बात की तो पाया कि उसकी आवाज़ ने अभी बचपन की देहरी पार नहीं की है लेकिन उसकी शब्दावली प्रौढ़ता की भी दूसरी पीढ़ी के पार पहुँच गयी है। इति को पढ़कर हमेशा यही दुआ की है कि काश ईश्वर समाज के भाषा संस्कार को इस योग्य बनाए कि इस बच्ची को अपनी भाषा का सरलीकरण करके साहित्य रचने पर विवश न होना पड़े।
एक स्वधा रवीन्द्र जी हैं। उनकी लेखनी से साक्षात्कार किया तो एकाध गीत तक तो ऐसा लगा कि हाँ, हो गया होगा किसी पुण्य के फल से कोई एकाध गीत। लेकिन ज्यों-ज्यों स्क्रोल करता गया... मन किसी अदृश्य शिकंजे में जकड़ता चला गया। भाव की ऐसी तरलता कि गीत यकायक पढ़नेवाले के चेहरे की भंगिमा से अठखेलियाँ करने लगे। अलक, भृकुटि, ओष्ठ-अन्त, नथुने, कण्ठ, नयनकोर... एक-एक अंग-उपांग उनके गीत की भावभूमि के पर्यटन पर निकल जाए। वे अक्सर मुझे ‘बालक’ कहकर संबोधित करती हैं। लेकिन उन्हें पढ़कर लगता है कि उन पर सरस्वती की जितनी कृपा है उसके अनुरूप उनका यह संबोधन ही मुझे वाग्देवी से कुछ आशीष दिला देता होगा।
एक वाशु पाण्डेय। शायरी करता है। ग़ज़ल के व्याकरण और कथ्य दोनों को पूरी शिद्दत से साधता हुआ यह नौजवान ज़िन्दगी में सर्वाधिक मुहब्बत क़लम से ही करता है। उससे कभी बतियाने की कोशिश करेंगे तो उसकी हर बात में शायरी मिल जाएगी। जज़्बा ऐसा कि जैसे एक दिन पूरे ज़माने को अपने जैसा बनाकर ही दम लेगा। तबीयत ये कि जो बात हमारे दिल में आ गयी उसे ठीक वैसे ही न कहा तो काहे के शायर। वाशु के ढेर सारे अशआर कब मेरी बातचीत को प्रभावी बनाने के काम आने लगे... मुझे पता ही नहीं चला। उसकी शायरी को पढ़ते हुए ऐसा कई बार लगा है कि इस उम्र में ये हाल है तो दस-बीस साल बाद ये लड़का क्या करेगा!
आप भी कभी फ़ुर्सत निकालकर इन सबको पढ़ लें और फिर मुझे बताएँ कि इनमें से किसी के विषय में ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर तो नहीं लिख दिया। तब तक मैं अपने अहंकार को ध्वस्त करने के लिए क़लम के और सितारों की तलाश जारी रखूंगा।
- चिराग़ जैन
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