Tuesday, April 26, 2022

बाड़ और अराजकता

कोई मनुष्य अपने भीतर चल रहे प्रत्येक भाव को अभिव्यक्त कर दे, तो समाज उसे तत्काल ‘पागल’ घोषित कर देगा। इच्छाएँ उस मदमस्त गजराज की तरह होती हैं कि उन पर लोकभय का अंकुश न लगाया जाए तो वे पूरा वनप्रदेश तहस-नहस कर सकती हैं। आजकल कुछ लोग अपने मन के भीतर की इन समस्त उत्कंठाओं को अभिव्यक्त करने को आधुनिकता कहते हैं, जबकि अध्यात्म इन इच्छाओं को नियंत्रित करके शांत करने को संन्यास कहता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि ‘संन्यास’ इच्छाओं को नियंत्रित करने का मार्ग है और ‘मोक्ष’ इच्छाओं से पार पा जाने का बिंदु है, लेकिन इसके बावजूद इच्छाओं से उलझकर जीवन को सुलझाने की उत्कंठा रखनेवाले व्यक्ति के लिए नगर नहीं, वन उपयुक्त बताया गया है।
नगर में रहना है तो नगर के नियमों का पालन करना ही होगा, अन्यथा समाज में अराजकता फैल जाएगी। समाज को अराजकता से बचाने के लिए ही समाज को नियमों की बाड़ से बांधा जाता है। यह बाड़ समाज का विकास अवरुद्ध करने के लिए नहीं, अपितु समाज को सुंदर, सुव्यवस्थित तथा सुगढ़ बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
यह बहुत संभव है कि इस बाड़ की कोई कड़ी समाज के सुख को अवरुद्ध करके उसे चोटिल करने लगे तो उसे हटाकर उसका समाधान करने की व्यवस्था भी बाड़ बनानेवाले करते ही हैं। इसीलिए दुनिया के प्रत्येक संविधान में नियमों के बदलाव संबंधी नियम भी सम्मिलित होते हैं। एक सभ्य समाज इन्हीं नियमों का पालन करते हुए किसी सामाजिक नियम के परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करता है।
बाड़ की कोई डंडी आपको चुभी और आपने अपने समर्थकों की फौज जुटाकर पूरी बाड़ को ही ध्वस्त कर डाला तो आपने अपने नगर में जंगल बोने से अधिक कुछ नहीं किया।
कई बार राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण बाड़ की डंडियों का प्रयोग समाज की प्रताड़ना हेतु होने लगता है। ऐसे में पूरा समाज धीरे-धीरे संगठित होकर पुरानी बाड़ को उखाड़ फेंकता है और नई खपच्चियाँ लगाकर थोड़ी खुली बाड़ लगाने लगता है। बाद में इस नयी बाड़ के खुलेपन में जब गन्दगी सड़ने लगती है तो फिर उस बाड़ को काट-छाँटकर टाइट कर दिया जाता है और समाज व्यवस्थित रूप से मर्यादित हो जाता है।
कमोबेश, यही समाज के संचालन की सामान्य प्रक्रिया है। किंतु सोशल मीडिया के दौर में जब प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में अपना मनोभाव अभिव्यक्त करने का साधन आ गया है, ऐसे में ‘केवल ध्यानाकर्षण के उद्देश्य से’ कुछ लोग न केवल असंयत भावनाओं को ढिठाई से अभिव्यक्त करने लगे हैं बल्कि यह भी मान बैठे हैं कि उनसे बाड़ में वे जिस एक संटी को बदलना चाह रहे हैं, उसी से पूरी बाड़ का चरित्र बदलने की क्रांति हो जाएगी। जिसका जो मन होता है, वह बाड़ पर लिख जाता है। जो चाहे, जिस मर्ज़ी लकड़ी को कोसने लगता है। कोई इन खपच्चियों को आपस में रगड़कर आग लगाने पर उतारू है, तो कोई इन्हें अलग-अलग रंगों में रंगकर रंगदारी वसूलने में लगा है। कोई इन डंडियों को हथियार बना लेना चाहता है तो कोई इन डंडियों पर पाँव रखकर अपना क़द ऊँचा करने में व्यस्त है।
सोशल मीडिया के कारण पूरा समाज इस बाड़ पर अपनी-अपनी क्षमतानुसार प्रहार कर रहा है, किन्तु यह प्रहार किसी आवश्यक क्रांति के लिए लोकतांत्रिक प्रयास न होकर कुछ लाइक्स, कुछ कमेंट और कुछ व्यक्तिगत लाभ बटोरने का उद्देश्य से किये जा रहे कुत्सित आघात हैं। इनके परिणामस्वरूप मर्यादा की बाड़ जगह-जगह से जर्जर हो गयी है। और यदि सोशल मीडिया पर बौराए फिर रहे उन्मादियों के इन आघातों को नहीं रोका गया तो इस बाड़ के उस पार खड़ा जंगल, सूनामी के वेग से समाज में घुस आएगा और उस वेग में सबसे पहले वे लोग ध्वंस होंगे जो अनवरत इस सामाजिक बाड़ को जर्जर कर रहे हैं।
...और तब, अराजकता बो रहे इन मूढ़ों के अस्तित्व की लाश पर सैड वाली इमोजी भी पोस्ट करने कोई नहीं आएगा, क्योंकि इनकी पोस्ट लाइक करने वाला समाज तब अराजकता की सुनामी से जूझ रहा होगा।

© चिराग़ जैन

Monday, April 25, 2022

अश्लीलता के मआनी

अधिकारों की ओट में छिपकर उच्छृंखल हो जाना भी उतना ही अश्लील है, जितना संस्कृति की ओट में छिपकर शालीन बनने का ‘दिखावा’ करना। नैतिकता की परिभाषा, काल-पात्र-स्थान के अनुरूप बदल जाती है। शालीनता केवल यौन आचरण तक ही सीमित नहीं है। समय तथा परिस्थिति के अनुरूप आचरण न करते हुए किया गया कोई भी आचरण अश्लील कहलाता है।
लहंगे, जेवर और फूलों से सजी-धजी स्त्री सबको स्वीकार है; किंतु यही स्त्री यदि किसी मातम में ऐसे साज-सिंगार के साथ उपस्थित हो तो असभ्य कही जाएगी। चिड़चिड़ा व्यक्ति कोई यौन दुराचार न भी कर रहा हो तो भी अपने उत्सव-टेलों में उसकी अकारण चढ़ी त्योरियाँ बर्दाश्त नहीं की जा सकेंगी।
कोई बहुत मिलनसार तथा हेल्पफुल मनुष्य भी यदि किसी की सहमति के बिना उसकी देह को स्पर्श करें तो उसे अश्लील कहा जाएगा। उस समय उसके अन्य व्यवहार के कारण उसकी इस अश्लीलता को अनदेखा नहीं किया जा सकेगा। किन्तु चिकित्सक, दर्जी, जिम ट्रेनर या कभी-कभी कोई सहकर्मी भी अनजाने में अथवा विवशता में आपसे स्पर्श हो जावे और आप उसे यौन-शोषण कहकर हंगामा कर दें, तो यह बर्बरता है। आपके बॉस ने आपकी बात नहीं मानी और आपने उसको सेक्सुअल हरासमेंट के पचड़े में घसीट लिया... यह दुराचार है।
हमने दुराचार और अश्लीलता की परिभाषा को सीमित करके बड़ा अपराध किया है। कोकशास्त्र, कामसूत्र तथा खजुराहो के आधार पर जिस समाज की प्रशंसा की जाती है, वहाँ किसी यौन समस्या पर उठे विमर्श को किसी स्त्री के चरित्र का मापदण्ड बना देना भी अश्लीलता है।
हर विमर्श में व्हिसल ब्लोअर ही सही नहीं होता। किन्तु जिसने विमर्श उठाया है, उसकी चरित्र हत्या करनेवाले न तो विमर्श के हित में हैं, न ही समाज के हित में। और तो और, ऐसे लोग जो इस प्रकार का विमर्श उठानेवाली स्त्री को चरित्रहीन कहकर उसकी निजता में प्रवेश कर रहे हैं, ये लोग सभ्यता की ओट में छिपकर अपनी यौन कुंठाओं को तुष्ट करने के लिए प्रयासरत असभ्य बर्बर हैं।
उस समस्या के पक्ष में और विपक्ष में अपना मत सबको देना चाहिए किन्तु ‘आइये हमसे ले लीजिए चरम सुख’; ‘यार बहुत सुंदर है इसको तो मैं ही संतृष्ट कर दूंगा’; ‘बहुत गर्म है यार, इसे मैं ही ठण्डा कर सकूंगा’ -जैसी टिप्पणियाँ करनेवाले अश्लील यौनकुंठितों की मानसिकता इस समाज के लिए किसी भी अश्लीलता से अधिक भयावह है।
सोशल मीडिया पर उपलब्ध स्त्रियों से पूछो तो आपको पता चलेगा कि उनके इनबॉक्स में ऐसे कितने ही संस्कृति और सभ्यता के ठेकेदारों की अश्लील कुंठाएँ नंगा नाच करती हैं।
मैं उन स्त्रियों का कतई पक्षधर नहीं हूँ जो आज़ादी के नाम पर नंगेपन की सीमा तक सड़क पर घूमने की हिमायत करती हैं। शौच तथा संभोग हमारे जीवन का हिस्सा ही नहीं अपितु सृष्टि के संचालन हेतु आवश्यक भी हैं, किन्तु इन क्रियाओं को यदि हम भरे बाज़ार में सड़क पर करने लगें तो हम दोपायों की काया में चौपायों का आचरण कर रहे होंगे।
प्रेम अनुभूति का विषय है जिसकी दैहिक अभिव्यक्ति नितांत निजी होती है। उसे सार्वजनिक करके फेसबुक पर लाइक्स बटोरने की कुत्सित चेष्टा का मैं समर्थक नहीं हूँ। अपनी प्री-वेडिंग शूट पर निर्वसन हो जाने की आधुनिकता मुझे समझ नहीं आती किन्तु ऐसा कर रही लड़की को भी सर्वभोग्या अथवा वेश्या करार देकर, उसके विषय में घृणित बातें लिखने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता।
हमें कम से कम इतना विवेक तो जागृत करना ही होगा कि हम किसी प्रश्न का उत्तर देते समय अपनी भाषा तथा शालीनता का उत्तरदायित्व निभा सकें। किसी की गाली का उत्तर गलौज से देने वाला व्यक्ति भी गाली देनेवाले से कम अशिष्ट नहीं है।
हर यौनाचार अश्लीलता नहीं होता और हर अश्लीलता यौनाचार नहीं होती। किन्तु सोशल मीडिया के युग में किसी महिला द्वारा किसी यौन-समस्या पर चर्चा करने भर से पूरे समाज की जो नंगी आवाज़ें कमेंट्स और ट्रोल-प्लेटफार्म्स पर गूंज रही हैं उनसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि हम मुँह में घास के तिनके दबाए बैठे रंगे सियारों को देवदूत मान बैठे हैं, जो ज़रा सी हुआँ-हुआँ सुनते ही भूल जाते हैं कि वे देवदूत बनकर भाषण झाड़ने निकले थे।

© चिराग़ जैन

Wednesday, April 20, 2022

साहित्य और समाधान

अपराध करने जा रहे व्यक्ति को सबसे ज़्यादा डर अपने-आपसे लगता है। यही कारण है कि चोर, हत्यारे, जेबकतरे, झूठे, षड्यंत्रकारी, मिलावटखोर, रिश्वतखोर, बलात्कारी और अन्य प्रकार के अपराधी अपराध करने के लिए एकांत तलाशते हैं। यह एकांत अन्य किसी से नहीं, बल्कि स्वयं से चाहिए होता है।
चोरी करते व्यक्ति को यदि कोई हल्की-सी आहट भी सुनाई दे जावे तो वह भयभीत हो जाता है। उसका यह भय लोगों के जाग जाने का भय नहीं होता, अपितु अपनी आत्मा के जाग जाने का भय होता है। वह जानता है, कि यदि ज़मीर जाग गया तो खुली तिजोरी में से भी वह एक तिनका न उठा सकेगा। वह आश्वस्त है कि आत्मा ने करवट ली, तो सब बटोरा हुआ सामान वापस वहीं रखना पड़ेगा। इसलिए हर अपराधी आहट सुनकर पसीना-पसीना हो जाता है।
पूरी दुनिया का साहित्य समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के लिए इसी आहट की भूमिका अदा करता है। एक बार इस आहट से चेतना कुलबुला जाए, फिर किसी दण्ड संहिता की आवश्यकता न रह जाएगी। बलात्कार को उन्मत्त व्यक्ति बलात्कृता का मुँह नहीं, अपनी आत्मा के कान भींच रहा होता है। उसे भय रहता है कि कहीं इसकी दर्द भरी आवाज़ ने उसकी आत्मा को छू लिया तो फिर वह कुछ न कर सकेगा। वह जानता है कि उसके भीतर का मनुष्य जाग गया, तो फिर उसके सिर पर सवार पशु मूक हो जाएगा।
यही कारण है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ किसी समस्या का समाधान सौंपने का प्रयास नहीं करतीं, बल्कि समस्या की आत्मा का द्वार झखझोरकर मौन हो जाती हैं। यही कारण है कि श्रेष्ठ फिल्मों में ‘हैप्पी एंडिंग’ या ‘ट्रेजिक एंडिंग’ की आवश्यकता नहीं होती। वे तो समस्या को पूरी ताक़त से दहला कर फेड आउट हो जाती हैं। समस्त व्यंग्य साहित्य समस्या के ज़मीर पर चोट करता है। समस्त हास्यरस समस्या की चेतना को गुदगुदाकर जगाना चाहता है।
उमराव जान फ़िल्म के समापन पर नायिका यह भाषण नहीं देती की अन्यान्य परिस्थितियों के कारण कोठों तक पहुँची लड़कियाँ निरपराध हैं, यदि वे कभी लौट आएँ तो उनके आंगनों को उनका स्वागत करना चाहिए, न कि तिरस्कार..! यह संदेश तो झीनी चिक में से झाँकती नायिका की आँखों पर स्पष्ट लिखा है। फ़िल्म का कुल उद्देश्य यही है कि समाज की आत्मा जागकर इन आँखों का दर्द पढ़ने योग्य बने।
गाय की पूँछ पकड़कर स्वर्ग जानेवाला होरी सामाजिक रूढ़ियों पर चोट करके केवल समाज की आत्मा को जगाना चाहता है। वह गोदान के पक्ष अथवा विरोध में कोई फैसला सुनाता नहीं दिखाई देता।
साहित्यकार से सामाजिक अथवा राजनैतिक समस्याओं समाधान मांगनेवाले लोग न तो साहित्य से परिचित हैं, न ही समाज से। जिस साहित्यिक कृति को गाली देने का उन्हें कोई स्कोप नहीं मिलता, वहाँ वे समाधान का पुछल्ला उठा लाते हैं।
साहित्यकार केवल समस्या को रेखांकित करके समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है। किसी अन्याय के अनदेखा रह जाने की स्थिति से जूझकर उसे सार्वजनिक पटल पर उपस्थित करता है। उसे देखकर कोई अपनी आत्मा को जगाने की बजाय, उल्टे साहित्यकार का ही पंचनामा करने लगे तो यह ऐसे ही है ज्यों किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुँचानेवाले की थाने में पेशी होना।
साहित्यकार समाधान का मार्ग बता सकता है, उस पर चलना तो समाज को स्वयं ही होगा। निराला इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती महिला से समाज का साक्षात्कार ही करा सकते हैं। यदि समाज यह कहने लगे कि निराला उसे पत्थर तोड़ते देखकर कविता लिखने क्यों बैठ गए, उसकी सहायता क्यों नहीं की। तो यह उलाहना समष्टि के पथ पर बढ़ चले रचनाकार को व्यष्टि तक सीमित कर देने का कुप्रयास होगा।
बाबा तुलसी ने रामकथा में राम का चरित्र समाज के सामने रखा। उससे अर्थ ग्रहण करके रामराज की स्थापना का कार्य तुलसी का नहीं, समाज का है। वेदव्यास ने द्वापर में घटित महायुद्ध के कारण तथा मानसिकता समाज के सम्मुख प्रकट की। अब उन स्थितियों से अपने समाज को बचाए रखना समाज का काम है।
कबीर की सभी रचनाएँ कर्मकाण्ड और ढोंग पर चोट करती हुई आगे बढ़ जाती हैं। वे किसी मुल्ला या किसी पण्डित को प्रवचन नहीं देते, बल्कि उनकी क्रियाओं पर कटाक्ष करके उनके ज़मीर का द्वार खटखटाते हैं।
साहित्यकार समाज को विवेकी बनाना चाहता है। यदि समाधान भी साहित्यकार ही सौंप देगा तो समाज अपने विवेक का प्रयोग करने की क्षमता खो बैठेगा। फिर समाज की दशा उन मवेशियों की तरह हो जाएगी जो किसी के हाँकने पर किसी दिशा में बढ़ जाते हैं। फिर साहित्यकार और प्रवचनकार में कोई अंतर न रह जाएगा। फिर आत्मा को जगाने की बजाय भीड़ जुटाने को वरीयता दी जाने लगेगी। फिर सभ्यता के विकास की बजाय अपने-अपने दोपाये मवेशियों के क़बीले लेकर प्रत्येक साहित्यकार ‘लीडर’ बना बैठा होगा।

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 19, 2022

शांति बनाम उन्माद

जो शांति का उपाय खोजने के लिए अन्तिम प्रयास तक जूझता रहे, उसे शांतिदूत कहा जाता है। जब दोनों ही पक्ष ख़ून-ख़राबे के उन्माद में हों तथा किसी तरह शांति का उपाय न सूझ रहा हो, उस समय भी शांति का उपाय खोजना ऐसा ही है, ज्यों सींग भिड़ाए खड़े दो बिजारों को लड़ने से रोकना हो। इस स्थिति में स्वयं के लहूलुहान होने का संकट रहता है।
हमारे पौराणिक साहित्य में शांति के ऐसे प्रयासों के दो विशिष्ट उदाहरण मिलते हैं। प्रथम, राम की सेना लंका को घेरे खड़ी है और सीता की खोज, लंका दहन तथा सेतुनिर्माण सरीखी अविश्वसनीय घटनाओं से रावण का मनोबल टूटा हुआ है। वानर सेना आत्मविश्वास से भरी हुई है। ऐसे में भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अंगद को शांतिदूत बनाकर लंका की राजसभा में भेजा। अंगद ने जब राघव का प्रस्ताव रावण के सम्मुख रखा तो रक्ष-शक्ति के बलाभिमान से उन्मादी हुए रावण को लगा कि राम युद्ध से डरकर शांति की बात कर रहे हैं। इसी उन्माद में रावण ने शांतिदूत अंगद का अपमान किया किन्तु अंगद ने अपना बल प्रदर्शित कर रावण के अहंकार को चूर कर दिया। ध्यान से देखें तो समझ आता है कि रावण के दरबार में पैर जमाने वाले अंगद कोई करतब नहीं कर रहे थे, अपितु वे उन्मादी अहंकार को यह जताना चाह रहे थे कि जिस रक्षशक्ति के बूते वह युद्ध में विजयी होने का दम्भ भर रहा है, उसके सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं को अकेला एक अंगद परास्त करके जा रहा है। अंगद रावण को यह बताना चाह रहे थे कि शांति की बात करनेवाले को कायर नहीं, दूरदर्शी समझना चाहिए। उसका धन्यवाद करना चाहिए कि वह उस महाविनाश को देखकर, उससे एक युग को बचा लेना चाहता है, जिसे उन्मादी आँखें नहीं देख पा रही हैं।
दूसरे, जब यह तय हो गया कि अब कौरव और पाण्डव कुरुक्षेत्र में घात-प्रतिघात से पूरे द्वापर को लहूलुहान कर देंगे, तब स्वयं नारायण श्रीकृष्ण ने यह निर्णय लिया कि इस युद्ध को रोकने का एक प्रयास और किया जाना चाहिए। युगनायक वासुदेव श्रीकृष्ण स्वयं ‘शांतिदूत’ बनकर हस्तिनापुर पहुँचे और पाण्डवों की ओर से संधि का उपाय सुझाया। किन्तु इस क्षण भी अपने बाहुबल के मद से ग्रसित सुयोधन ने न केवल शांतिदूत का अपमान किया अपितु श्रीकृष्ण को बंदी बनाने की भी चेष्टा की। इस स्थिति में भी श्रीकृष्ण ने विराट स्वरूप प्रदर्शित कर उसके उन्माद की गति को विराम देने का ही प्रयास किया था। नारायण सरीखे व्यक्तित्व को आत्मश्लाघा की डींगें हाँकने की कोई आवश्यकता नहीं थी, वे तो युद्धोन्मत्त मूढ़ों को यह बताना चाहते थे कि जिस बाहुबल पर वह बौराये फिर रहे हैं, उससे अधिक शक्तिशाली होकर भी हम शांति की भाषा बोल रहे हैं।
शांति की बात करने के लिए अधिक बल की आवश्यकता होती है। युद्ध की राह पर धकेलने के लिए तो केवल बाहुबल चाहिए, जबकि शांति की राह पर लाने के लिए बाहुबल के साथ-साथ बुद्धिबल तथा आत्मबल भी आवश्यक होता है। इसीलिए शांति की राह सुझाने वाला युद्धोन्मत्त उन्मादी से तीन गुना अधिक बलवान होता है।
यही कारण है कि जिसने शांति की बात करनेवाले को कायर समझकर उसका अपमान किया है, उसे समूल नाश की दुर्दशा झेलनी पड़ी है।
युद्ध से रक्तरंजित हुए समाज पर मातम और वैधव्य का जो सन्नाटा पसरता है, वह किसी शकुनि या मंथरा से यह प्रश्न नहीं करता कि लाशों की उस अतिवृष्टि को जन्म देनेवाले बादल किस कुचक्र के आकाश में निर्मित हुए थे, वह तो हमेशा भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर और कृष्ण से ही पूछता है कि जब वे बादल घुमड़ रहे थे तब इनकी छतरियाँ क्या कर रही थीं!
सड़क पर भिड़ने जा रहे दो बिजारों को दूर करनेवाला व्यक्ति करुणा से उत्पन्न साहस से संचालित होता है। उसके शांतिप्रयासों का अपमान करके उसी पर धावा बोलनेवालों को या तो अहंकारी रावण कहा जाएगा, या अशिष्ट सुयोधन या फिर उसे कोरा जानवर कहा जाएगा... ‘जानवर’!

© चिराग़ जैन

Sunday, April 17, 2022

मुबारक हो, मुहब्बत मर रही है

सभी की आँख में
अंगार बोये जा चुके हैं
सभी की बोलियों में ख़ार बोये जा चुके हैं।
सभी की मुट्ठियाँ भिंचने लगी हैं
लकीरें बेसबब खिंचने लगी हैं
सभी के दाँत अब पिसने लगे हैं
पुराने ज़ख़्म फिर रिसने लगे हैं
ये जलवा भी सियासत कर चुकी है
हर इक दिल में शिक़ायत भर चुकी है
सुना है आदमीयत डर रही है
मुबारक हो
मुहब्बत मर रही है 

वो जो हमको बताते फिर रहे हैं
कई नश्तर चुभाते फिर रहे हैं
जो जज़्बातों से खेले जा रहे हैं
लपट में घी उंडेले जा रहे हैं
समझ लोगे तुम उनकी आदतों से
उन्हें हँसना मना है मुद्दतों से
जिन्हें रहबर बताया जा रहा है
उन्हीं को बरगलाया जा रहा है
हमीं से आग लेकर नफ़रतों की
हमारा घर जलाया जा रहा है
जो पत्थर मारने को चल पड़े हैं
उन्हीं की अक्ल पर पत्थर पड़े हैं
मगर सबको बताया जा रहा है
सबक़ ऐसा सिखाया जा रहा है
सुनो, पत्थर नहीं हैं, फूल हैं ये
बुजुर्गों की पुरानी भूल हैं ये
इन्हें लपटें उठाकर भस्म कर दो
अदा तुम भी ज़रा-सी रस्म कर दो
तुम्हें भगवान की सोहबत मिलेगी
इसी रस्ते तुम्हें जन्नत मिलेगी
दया का भूलकर मत नाम लेना
उठे हाथों को मत तुम थाम लेना
क्षमा के दायरे से दूर रहना
उबलते-खौलते भरपूर रहना
अहिंसा की ज़रा मत फ़िक्र करना
न ही इंसानियत का ज़िक्र करना
डगर करुणा की हरगिज़ मत पकड़ना
कोई नारा लगाकर कूद पड़ना
तुम्हारी ही ज़रूरत पड़ रही है
मुबारक हो
मुहब्बत मर रही है


हमारी क़ौम को शैदा किया है
जिन्होंने इश्क़ को पैदा किया है
ज़माने से यही बस कर रहे थे
चमन में खुशबुएँ ही भर रहे थे
पराए आँसुओं से भीगते थे
पराई हर हँसी पर रीझते थे
सभी की पीर में शामिल रहे थे
वो सब विश्वास के क़ाबिल रहे थे
न ऐसा दौर अब आगे रहेगा
चमन कुछ और अब आगे रहेगा
ज़माने को नयी हम सोच देंगे
चमन से खुशबुओं को नोच देंगे
ज़हर के बीज फलने लग गए हैं
सुनो, त्योहार जलने लग गए हैं
सभी साँचे में ढलने लग गए हैं
बिना मतलब उबलने लग गए हैं
हर इक पोखर में कीचड़ भर रही है
मुबारक हो
मुहब्बत मर रही है

© चिराग़ जैन

मुनाफ़े का रन-वे

विमानन सेवाओं ने मुनाफ़े को वरीयता देते हुए यात्रियों के कष्टों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। आप जब कोई फ्लाइट बुक करते हैं तो उसके हिसाब से आगे का कार्यक्रम तथा बुकिंग भी प्लान करते हैं। जब सब कुछ तय हो जाता है तब अचानक पता चलता है कि एअरलाइंस को सवारी कम मिली, इसलिए उसने आपसे बिना पूछे आपको किसी अन्य फ्लाइट में शिफ्ट कर दिया है। इस बदलाव से आपका यात्रा का उद्देश्य, आपकी आगे की यात्रा तथा आपका सुख-चैन ध्वस्त होता हो तो होता रहे। जब आप एयरलाइंस के ऑफिस में फोन करके इस असुविधा की शिकायत करते हैं तो वहाँ आईवीआर की तरह रटे हुए वाक्य बोलनेवाले मनुष्य आपसे कुल तीन वाक्यों में बात करते हैं:
1. आपको हुई असुविधा के लिए हमें खेद है।
2. आप यदि यात्रा नहीं करना चाहते तो आपको फुल रिफण्ड मिलेगा।
3. सॉरी, सर यह कंपनी पॉलिसी है, इसमें हम आपकी कोई सहायता नहीं कर सकते।
इन तीन वाक्यों के बल पर वे आपका रक्तचाप अपने हवाई जहाज से भी ऊँचा पहुँचाकर फोन काट देते हैं।
फ्लाइट कैंसिलेशन के कारण बताते हुए ‘ऑपरेशनल रीज़न’ लिखकर काग़ज़ की ख़ाना-पूर्ति कर दी जाती है।
आप परेशान होकर अन्य फ्लाइट विकल्प देखते हैं तो अन्य एयरलाइंस की टिकट ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए दो-तीन गुनी बढ़ चुकी होती है। अब आपको समझ नहीं आता कि फुल रिफण्ड देनेवाली एयरलाइंस का धन्यवाद किन शब्दों में ज्ञापित करें!
मैं ऐसी ही एक एयरलाइंस से फुल रिफंड लेने की ख़़ुशी मनाता हुआ, तीन गुना किराया और चार गुना समय नष्ट करके वाराणसी से चेन्नई जा रहा हूँ। रास्ते में चार घण्टे बंगलोर हवाई अड्डे पर बैठकर इतनी दयावान विमानन सेवाओं के प्रति कृतज्ञ महसूस करूंगा।
न्यायालय में इस प्रकार के मुक़द्दमों के भाग्य में सिवाय धूल के कुछ नहीं है। प्राधिकृत नियामकों को नैतिक-अनैतिक तरीक़े से विमानन सेवाओं से उगाही करने से फ़ुर्सत नहीं मिलती। लोक कल्याणकारी सरकारों ने ये सब सेवाएँ निजी हाथों में बेचकर अपना पल्ला झाड़ ही लिया है।
चूँकि सरकार सर्वज्ञ होने के साथ-साथ स्थितप्रज्ञ भी है, अतः वह यह सारा खेल जानते हुए भी अपनी वेदी पर चढ़नेवाले चढ़ावे से आगे देखने का प्रयास नहीं करती। जनता के दुःख-दर्द में यदि सरकार हस्तक्षेप करेगी तो जनता अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने की इम्यूनिटी नहीं जुटा पाएगी, इसलिए सरकार जनता को मुनाफ़ाखोरों के आगे फेंककर अपने हिस्से का चढ़ावा चबाते हुए जनता के संघर्ष का खेल देखती रहती है।
हाल ही में जिस सरकारी एयरलाइंस को निजी हाथों में बेच दिया गया है, उसमें नए मालिक ने आरटीआई और जन-शिकायतों की सारी फाइलें नष्ट करके ये दोनों विभाग बंद कर दिए हैं। जनता के प्रति उत्तरदायित्व का इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिल सकता।
आम नागरिक इस बात से ख़ुश है कि विमानन सेवाओं के किरायों से लेकर मनमानी तक, कहीं कोई अवरोधक नहीं है... देश सही दिशा में विकास कर रहा है।

© चिराग़ जैन

Friday, April 15, 2022

पाड़ ले मेरी पूँछ

जन्तर-मन्तर पर एक आन्दोलन उपजता है। युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, अमीर, ग़रीब सब एक बूढ़ी काया में तन्त्र के सुधार की उम्मीद देखने लगते हैं। कोई राजनैतिक आधार नहीं, कोई प्रोपेगेंडा नहीं, कोई ग्लैमर नहीं... पीछे बैनर पर महात्मा गांधी का भव्य चित्र, आगे श्वेत वसन धारी अन्ना हजारे, माइक पर जनता को आंदोलन का अर्थ समझाते कुमार विश्वास और अनशनकारी के साथ बैठे अरविंद केजरीवाल तथा मनीष सिसोदिया।
कांग्रेस शासन के अहंकार से त्रस्त मीडिया ने अपने सारे कैमरे जन्तर-मन्तर की ओर घुमा दिए। एक शब्द यकायक पूरे देश में आग की तरह फैल गया - ‘जनलोकपाल’। जिस तरह की तहरीरें हुईं, उनसे जन-समर्थन का आकार बढ़ता गया। जिसे देखो वही ‘मैं भी अन्ना’ की टोपी लगाए जन्तर-मन्तर की ओर बढ़ चला।
उधर दस वर्ष से सत्ता पर क़ाबिज़ कांग्रेस की मनमानियों का विरोध करनेवाले बुद्धिजीवी तथा सामाजिक व्यक्तित्व भी आंदोलन के मंच पर आ पहुँचे। शांतिभूषण, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, आशुतोष, किरण बेदी और न जाने कितने ही लोकप्रिय चेहरे आन्दोलन के मंच पर दिखने लगे। जनता का सैलाब उमड़ रहा था। ‘जनलोकपाल’ बिल गीत, संगीत, नुक्कड़ नाटक, नारेबाज़ी, कविता पर सवार होकर पूरे माहौल पर छा गया था।
कांग्रेस के तत्कालीन विरोधी राजनेताओं ने भी इस मंच पर चढ़ने की कोशिश की, लेकिन आंदोलन की कोर कमेटी ने किसी भी राजनैतिक व्यक्तित्व को मंच पर चढ़ने की अनुमति नहीं दी। इस निर्णय के कारण उमा भारती और ओमप्रकाश चौटाला सरीखे जनप्रतिनिधियों को आंदोलन तक पहुँच कर बैरंग वापस लौटना पड़ा।
इस निर्णय से जनता का विश्वास और बढ़ा। मीडिया ने इस निर्णय को ख़ूब हाइलाइट किया और जन्तर-मन्तर पर जनता की सूनामी आ गयी।
सबको यक़ीन हो गया कि यह ‘जनलोकपाल बिल’ भारतीय तन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की इति कर देगा। उन दिनों अचानक से जनता में भी ईमानदारी के अंकुर फूटने लगे थे। मैंने देखा कि जो लोग सौ-पचास रुपये ले-देकर निकल लेने के अभ्यस्त थे, उन्होंने भी चालान होने पर बाक़ायदा चालान भरना शुरू कर दिया था। यह सब देखकर महसूस हुआ कि यदि सिस्टम का करप्शन दूर हो जाए तो जनता स्वतः नियमों का सम्मान करने लगती है।
जो लोग भारत की जनता को भ्रष्टाचारी कहकर ‘इस देश का कुछ नहीं हो सकता’ टाइप के डायलॉग बोलते हैं, उन्हें मैं यह बात पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि राजनीति, ब्यूरोक्रेसी और उद्योगों के आधार पर पनप रहे मध्यस्थों को छोड़ दें तो बाक़ी जनता को किसी भी प्रकार के नियम का उल्लंघन करने में कोई रुचि नहीं है। यदि जनता आश्वस्त हो कि उसके टैक्स का पैसा स्विस बैंकों के आंकड़ों में तब्दील नहीं होगा या राजनैतिक हित साधने के लिए प्रकारांतर से वोट ख़रीदने का अस्त्र न बनेगा तो उसे टैक्स देने में कोई आपत्ति नहीं होगी। इसलिए जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार के लपेटे में जनता को समान रूप से शामिल करता है, वह परिस्थिति को सुलझाने और समझने की बजाय पीड़ित को दोषी सिद्ध करने में अधिक विश्वास रखता है।
अन्ना आंदोलन के समय जनता की उम्मीदें जाग उठी थीं और ‘सिविल सोसाइटी’ नामक अवधारणा पुनः अस्तित्व में आई थी। जेपी आंदोलन के बाद जनता का ऐसा संगठित रूप पहली बार दिखाई दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है, उन दिनों अन्ना की हर हरक़त सरकारी तंत्र की नींद उड़ा देती थी।
इसी अवसर का लाभ उठाकर बाबा रामदेव ने भी काले धन के खि़लाफ़ मोर्चा खोल दिया। रामलीला मैदान में पहुँचने का आह्वान हुआ और बाबा रामदेव जब दिल्ली हवाईअड्डे पर उतरे तो पाँच-पाँच कैबिनेट मिनिस्टर उनकी मनुहार के लिए एयरपोर्ट पर हाथ बांधे खड़े थे।
उधर अन्ना आंदोलन जनलोकपाल की हठ पर अड़ा था। रामलीला मैदान में आधी रात को लाठीचार्ज हुआ और बाबा का आंदोलन कुचल दिया गया। इधर कई दौर की बातचीत के बाद भी सरकार और अन्ना आंदोलन के मध्य कोई सहमति नहीं बनी तो एक दिन मीटिंग के बाद तत्कालीन कानून मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने मीडिया के सामने झुंझलाकर कहा कि - ‘चुनाव लड़ें ना, बिल बनाना है तो चुनाव लड़कर सरकार में आओ और बनवा लो बिल।’
इससे पूर्व राजनेताओं को मंच न दिए जाने के मुआमले में अरविन्द केजरीवाल अन्ना के मंच से यह घोषणा कर बैठे थे कि न तो हम किसी राजनैतिक दल को अपने मंच पर आने देंगे और न ही राजनीति में पदार्पण करेंगे। लेकिन सिब्बल की चुनौती के बाद कोर कमेटी में यह सुगबुगाहट होने लगी थी कि राजनैतिक पार्टी बनाई जावे या नहीं।
एक धड़ा कहता था कि इतने बड़े जन-समर्थन को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। लोकतंत्र में चुनाव लड़ना सभी का अधिकार है और अच्छे चरित्र के लोगों को राजनीति में सक्रिय होना भी चाहिए। उधर, दूसरे पक्ष का यह मानना था कि यदि हमने राजनीति में पदार्पण किया तो यह आंदोलन भी पिछले आंदोलनों की भाँति अपने सत्व का चुम्बकत्व खो देगा। सिविल सोसाइटी की अवधारणा ध्वस्त हो जाएगी और भविष्य में जनता ऐसे जन-आंदोलनों से जुड़ने से पहले हज़ार बार विचार करेगी।
इस दूसरे पक्ष में स्वयं अन्ना हजारे भी शामिल थे। दिल्ली का चुनाव सामने था और आंदोलनकारियों को बहुत जल्दी कोई बड़ा निर्णय लेना था। इस स्थिति में राजनीति में जाने के समर्थकों ने अन्ना की बात को अनदेखा करके ‘आम आदमी पार्टी’ की घोषणा कर दी।
जिस कोर कमेटी ने राजनेताओं को आंदोलन का मंच नहीं लेने दिया था, वही कोर कमेटी आंदोलन का मंच छोड़कर राजनीति के अखाड़े में दाँव लगाने लगे। अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, संजय सिंह, योगेन्द्र यादव और तमाम चेहरे जनसभाएँ करके वोट जुटाने में लग गए।
किरण बेदी सरीखे व्यक्तित्व अन्ना के समर्थन में राजनैतिक पार्टी से दूर रहे और केजरीवाल आदि की राजनैतिक महत्वाकांक्षा की भर-भर निंदा करने लगे।
आंदोलन पार्श्व में चला गया और राजनीति की बिसात बिछ गयी। आम आदमी पार्टी का कुछ लोग मखौल बनाने लगे और कुछ इसे उम्मीद की किरण कहकर समर्थन में आ जुटे।
प्रारम्भिक स्थिति यह थी कि पार्टी के पास चुनाव लड़ने के लिए कुल सत्तर प्रत्याशी नहीं थे। ‘जो मिला उसे टिकट दे दिया’ -की नीति पर प्रत्याशी घोषित किये गए। उधर भारतीय जनता पार्टी ने उन्हीं किरण बेदी को मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर दिया, जो राजनीति में उतरने पर केजरीवाल की निंदा कर रही थीं।
देश का राजनैतिक परिप्रेक्ष्य बदल गया। कांग्रेस का बड़ा किला यकायक ध्वस्त होने लगा। शीला दीक्षित जैसी सफल राजनेत्री कांग्रेस की अहमन्यता की भेंट चढ़ गयी और दिल्ली विधानसभा से कांग्रेस ग़ायब हो गयी। उधर केन्द्र की कांग्रेस सरकार भी लोकनिंद्य हुई और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सुशोभित कर दिया।
राजनीति का चरित्र पूरी तरह बदल गया। इसके बाद राजनैतिक बैनर्स का रंग-रूप बदलने लगा। भारतीय जनता पार्टी के पोस्टर्स से अटल-आडवाणी युग समाप्त हो गया और दिल्ली की गद्दी पर बैठे केजरीवाल ने अपने साथियों से एक-एक करके किनारा कर लिया। जो पार्टी से बाहर जाता, वही केजरीवाल को महत्वाकांक्षी बताकर आलोचना करता।
कुछ जो ज़्यादा आहत हुए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में ठीया बना लिया। कुछ येन-केन-प्रकारेण राजनीति में बने रहने के लिए कुछ-कुछ उछलकूद करते रहते हैं।
जन्तर मन्तर पर जो पौधा बोया गया था, उसके एक-एक पत्ते को झाड़ दिया गया और जिन अन्ना को आगे रखकर आन्दोलन खड़ा किया गया, वे पिछले कुछ वर्षों से अदृश्य हैं। बाबा रामदेव राजनैतिक गतिविधियों से लोकप्रियता बटोरकर पतंजलि के प्रोडक्ट्स के व्यापार को शानदार तरीके से चला रहे हैं। कंपनियों की ख़रीद-फ़रोख़्त करके उन्होंने अपने टर्न ओवर को आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा लिया है। उनसे आजकल कोई कालेधन संबंधी उनके दावों पर प्रश्न करता है तो वे उसको कहते हैं कि ‘मेरी पूँछ पाड़ ले!’
इधर आंदोलन के प्रभाव से बनी पार्टी ने पंजाब में भारी सफलता प्राप्त की और नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री भगवंत मान ने यह आदेश पारित किया है कि पंजाब के सरकारी दफ्तरों में अब सरदार भगतसिंह और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की ही तस्वीर लगाई जाएगी। महाराज रणजीत सिंह, महात्मा गांधी और विवेकानन्द के चित्र सरकारी दफ्तरों से हटा दिए गए हैं। इस निर्णय से यह सिद्ध होता है कि राजनीति में श्रद्धा तथा सम्मान भी गणित की पुस्तकों के अनुसार तय किया जाता है।
महात्मा गांधी की तस्वीर अन्ना आंदोलन की आखि़री याद थी। उसे हटाकर पंजाब सरकार ने यह बता दिया है कि जिसके नाम पर जितने समय तक समर्थन मिलेगा, उसकी तस्वीर उतने समय तक मुस्कुराती रहेगी।
सबके अपने-अपने मार्गदर्शक मंडल हैं... सबके अपने अपने रालेगण सिद्धि हैं और सबके अपने-अपने महात्मा गांधी हैं। सबके अपने आदर्श हैं और सबकी अपनी राजनीति है... जनता कुछ पूछे तो कह दिया जाएगा - ‘जा मेरी पूँछ पाड़ ले।’

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 12, 2022

सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् की अनुगूंज : पशुपतिनाथ मन्दिर

शिव, जहाँ जीवन और मृत्यु दोनों के लिए समभाव है। शिव, जहाँ मनुष्य, पशु, भूत, गण, स्त्री, पुरुष, देव, दैत्य, सुर, असुर, सृजन, ध्वंस... सब कुछ स्वीकार है। जहाँ कुछ हेय नहीं है। जहाँ किसी नकार के लिए कोई स्थान नहीं है। जहाँ सब स्वीकृत हैं। जो सबके हैं। जहाँ मानव तन पर गजमुख भी स्वीकृत है और जीवित देह पर चिता भस्म से भी परहेज नहीं है।
कण्ठ में हलाहल और भोग में धतूरा, आसन में मृगछौना और जटाओं में गंगा, भुज पर भुजंग और गले में विषधर, हाथ में त्रिशूल और मस्तक पर रजनीश... अहा क्या अकल्पनीय स्वरूप है यह। त्रिपुण्ड, त्रिनेत्र, डमरू... कुछ भी तो ऐसा नहीं जिसका किसी अन्य से कोई सीधा सम्बन्ध स्थापित हो सके। सब एक दूसरे के धुर विरुद्ध। लेकिन शिव पर आकर सब एक-दूसरे के पूरक हो जाते हैं।
क्रुद्ध हुए तो ताण्डव का सृजन हो गया। आवेश की राह पकड़ी तो उसके अंत में गणेश का निर्माण हो गया। शोकग्रस्त हुए तो शक्तिपीठ प्रतिष्ठापित हो गए। और प्रसन्न हुए तो देव-मनुष्य तो दूर, भूत-पिशाच तक आह्लादित हो उठे।
किसी का ‘स्वीकार’ इतना विराट हो जावे तो उसका ‘महादेव’ हो जाना तय हो जाता है। यह स्वीकार इतना विराट है कि विषपान के लिए भी नकार नहीं है। यह स्वीकार इतना दिव्य है कि चिताभस्म भी अपावन नहीं है। यह स्वीकार इतना महान है कि नन्दी बैल से लेकर कार्तिकेय तक सब एक परिवार के सदस्य हैं। यह स्वीकार इतना निडर है रुद्राक्ष के कंगन से लेकर मुण्डमाल तक कुछ भी अजीब नहीं लगता।
काठमांडू में पशुपतिनाथ मन्दिर में शिव के इसी वैराट्य को जी भर भोगा। बागमती नदी के तट पर चिता जल रही थी। जीवन के ध्वंस की घोषणा करता धुआं ऊपर उठा आता था और पशुपतिनाथ मंदिर के पूर्वी द्वार के सम्मुख किसी की दुआओं की अगरबत्ती से उठते धुएँ की लकीर चिता के धुएँ में जाकर विलीन हुए जा रहा था। आह... लोक और परलोक का ऐसा विलय मैंने पहली बार देखा।
दृश्य देखकर मन अवाक हो गया। न आह शेष थी न अहो! क्षणांश के लिए दृष्टि धूम्रविलय के इस महासत्य से सम्मोहित हो गयी थी। विचार और चिंतन का अनवरत उपक्रम यकायक स्थिर हो गया। क्षण भर के लिए ही सही, किन्तु मैं खुली आँखों से ध्यान की उस अवस्था पर पहुँच गया था जहाँ तक विचार का शोर-शराबा नहीं पहुँचता... जहाँ केवल साक्षीभाव शेष रह जाता है। चिता... दुआ... और धुआँ! पूरी सृष्टि का सार इस दृश्य में समाहित था।
पशुपतिनाथ मंदिर में विग्रह स्वरूप शिवलिंग के ऊपर चौमुखी शिव विद्यमान हैं। गर्भगृह की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं। पूर्वी द्वार बागमती नदी की ओर खुलता है, जहाँ मसान में शवदाह होता है और नदी के पार पिण्डदान तथा इसी प्रकार के अन्य कर्मकाण्ड सम्पन्न किये जाते हैं। इस श्मशान में जहाँ दाह से पूर्व शवों को स्नान कराया जाता है उसके सामने मंदिर जैसे तीन शिखर बने हुए हैं। इन शिखरों का सबसे ऊँचा हिस्सा भी मंदिर की पूर्वी मुंडेर से बारह-पंद्रह फीट नीचे है। पशुपतिनाथ मंदिर के दर्शन करने के बाद जो श्रद्धालु इस मुंडेर तक आते हैं, उनका मानना है कि ये मंदिर-शिखर लक्ष्मीयन्त्र हैं। मंदिर की मुंडेर से इस यंत्र पर सिक्का फेंका जाए और वह यंत्र पर ही टिक जाए तो इसका अर्थ है कि लक्ष्मी ने आपकी भेंट स्वीकार कर ली है।
संपन्नता की आस में सैंकड़ों लोग सिक्का फेंकते हैं लेकिन अधिकतर सिक्के शिखर से टकराकर नीचे मसान में जा गिरते हैं। मुझे याद है एक बार शाम के समय नीचे मसान में स्नानोंपरांत एक शव रखा था और ऊपर से लक्ष्मी की आकांक्षा में फेंका गया सिक्का उस व्यक्ति के सिर पर लगा जिसने उस शव को मुखाग्नि देने के लिए सिर मुण्डवाया था। मैं ऊँचाई से उसके चेहरे पर आए भाव पूरी तरह तो नहीं पढ़ सका किन्तु उनमें घृणा के साथ कुछ नैराश्य अवश्य था। ...इस दृश्य को देखकर मन विचलित हुआ। मृत्यु के सम्मुख लक्ष्मी की आकांक्षा रखकर सिक्का फेंकते लोग श्रद्धालु कम, निष्ठुर ज़्यादा लगे।
मंदिर के उत्तर में माँ अन्नपूर्णा विद्यमान हैं। पश्चिमी द्वार के सम्मुख नन्दी अपने भव्य रूप में विराज रहे हैं और दक्षिण द्वार पर उन्मत्त भैरव का मंदिर है। भैरव का इतना रौद्र रूप मैंने अन्यत्र नहीं देखा।
परिसर में अन्य भी छोटे-छोटे बिम्ब तथा मन्दिर हैं। केदारनाथ, वासुकी, महालक्ष्मी और न जाने कितने ही आराध्य पशुपतिनाथ के साहचर्य में उपस्थित हैं।
लम्बी-लम्बी लाइनें लगी थीं। शनिवार होने का कारण उस दिन मन्दिर में अपार भीड़ थी। अगरबत्ती, धूपबत्ती और दीपक बालकर लोग एक नियत स्थान पर नारियल फोड़ते और फूल व प्रसाद की टोकरी लेकर लम्बी प्रतीक्षा के बाद किसी न किसी द्वार तक पहुँचते थे। पुजारी उनका प्रसाद महादेव तक पहुँचाता था और दर्शनार्थी चेहरे पर एक विजय स्मित लिए लौट आते।
नेपाली काष्ठ शैली में बना भव्य मंदिर अपने वास्तु से भी मन मोह लेता है। मुख्य प्रांगण के बाहर संन्यासी बैठे मिल जाते हैं। कभी-कभी कुछ अघोरी भी दिखाई दे जाते हैं। शिव तो सबके हैं ना। निर्धन और धनवान सभी समान रूप से भोले के दर्शनों की प्यास लिए यहाँ पहुँचते हैं। एक बड़े से चौबारे में लोग कबूतरों को चुग्गा डालते हैं। सेल्फी, फोटोग्राफी, विडियोशूट जैसे कार्य भी यहीं सम्पन्न होते हैं।
इस परिसर से बाहर एक बड़ा-सा बाज़ार है, जहाँ रुद्राक्ष और शालिग्राम की अनेक दुकानें हैं। नेपाल में रुद्राक्ष ख़ूब होता है। और शालिग्राम तो विश्वभर में मिलता ही नेपाल की काली गण्डक नदी में है।
मैं बाज़ार में खड़ा था और मसान देखकर आया था। जीवन का अन्तिम सत्य मसान में पसरा हुआ था। परिसर के मध्य में स्वयं शिव विराजित थे। और पूरे परिसर में आस्था से लेकर मानुष तक सब सुंदर ही सुंदर था। आज मैं समझ सका कि सत्यं-शिवं-सुन्दरं का वास्तविक अर्थ क्या है।

© चिराग़ जैन

शऊर

शऊर हो
तो नश्तर से भी
गुदगुदी की जा सकती है

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 5, 2022

भीतर-बाहर

ख़ुश होते तो आँख चमकती
मन हँसता तो देह दमकती
डर लगता तो दिल की धड़कन
ख़ुद चेहरे तक आन धमकती
क्या होंठों के खिंच जाने को हम सचमुच मुस्कान कहेंगे
क्या आँखों के मुंदने को ही जीवन का अवसान कहेंगे 

हाथ-पैर हिलते-डुलते हैं, पर मन में उत्साह नहीं है
साँसें आती हैं, जाती हैं पर जीने की चाह नहीं है
कैसी है ये हालत समझो
इसकी आज हक़ीक़त समझो
ये काया की आदत भर है
इसको ही जीवन मत समझो
बिन छत की दीवारें हैं ये, कैसे इन्हें मकान कहेंगे
क्या आँखों के मुंदने को ही जीवन का अवसान कहेंगे 

शब्द उगलना नित्य क्रिया है, मन कह पाना स्वर्गिक सुख है
कानों में जो शोर भरा है, उसमें केवल सत्य प्रमुख है
मेघ घिरे हैं, वृष्टि नदारद
आँख खुली हैं दृष्टि नदारद
जिसके भीतर मन टूटा हो
उसके हित यह सृष्टि नदारद
दो हाथों से छूने को ही क्या सच का अनुमान कहेंगे
क्या होंठों के खिंच जाने को हम सचमुच मुस्कान कहेंगे 

मुस्काना उसको कहते हैं, जिससे तन-मन खिल-खिल जाए
जीवन, जिसमें मन दीपक हो, रोम-रोम तक झिलमिल आए
कुंजगली अभिराम नहीं है
गोकुल है, घनश्याम नहीं है
उन महलों में सन्नाटा है
जिन महलों में राम नहीं है
जिसमें कोरी भौतिकता हो, उसको कब तक ज्ञान कहेंगे
क्या होंठों के खिंच जाने को हम सचमुच मुस्कान कहेंगे

© चिराग़ जैन