अपराध करने जा रहे व्यक्ति को सबसे ज़्यादा डर अपने-आपसे लगता है। यही कारण है कि चोर, हत्यारे, जेबकतरे, झूठे, षड्यंत्रकारी, मिलावटखोर, रिश्वतखोर, बलात्कारी और अन्य प्रकार के अपराधी अपराध करने के लिए एकांत तलाशते हैं। यह एकांत अन्य किसी से नहीं, बल्कि स्वयं से चाहिए होता है।
चोरी करते व्यक्ति को यदि कोई हल्की-सी आहट भी सुनाई दे जावे तो वह भयभीत हो जाता है। उसका यह भय लोगों के जाग जाने का भय नहीं होता, अपितु अपनी आत्मा के जाग जाने का भय होता है। वह जानता है, कि यदि ज़मीर जाग गया तो खुली तिजोरी में से भी वह एक तिनका न उठा सकेगा। वह आश्वस्त है कि आत्मा ने करवट ली, तो सब बटोरा हुआ सामान वापस वहीं रखना पड़ेगा। इसलिए हर अपराधी आहट सुनकर पसीना-पसीना हो जाता है।
पूरी दुनिया का साहित्य समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के लिए इसी आहट की भूमिका अदा करता है। एक बार इस आहट से चेतना कुलबुला जाए, फिर किसी दण्ड संहिता की आवश्यकता न रह जाएगी। बलात्कार को उन्मत्त व्यक्ति बलात्कृता का मुँह नहीं, अपनी आत्मा के कान भींच रहा होता है। उसे भय रहता है कि कहीं इसकी दर्द भरी आवाज़ ने उसकी आत्मा को छू लिया तो फिर वह कुछ न कर सकेगा। वह जानता है कि उसके भीतर का मनुष्य जाग गया, तो फिर उसके सिर पर सवार पशु मूक हो जाएगा।
यही कारण है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ किसी समस्या का समाधान सौंपने का प्रयास नहीं करतीं, बल्कि समस्या की आत्मा का द्वार झखझोरकर मौन हो जाती हैं। यही कारण है कि श्रेष्ठ फिल्मों में ‘हैप्पी एंडिंग’ या ‘ट्रेजिक एंडिंग’ की आवश्यकता नहीं होती। वे तो समस्या को पूरी ताक़त से दहला कर फेड आउट हो जाती हैं। समस्त व्यंग्य साहित्य समस्या के ज़मीर पर चोट करता है। समस्त हास्यरस समस्या की चेतना को गुदगुदाकर जगाना चाहता है।
उमराव जान फ़िल्म के समापन पर नायिका यह भाषण नहीं देती की अन्यान्य परिस्थितियों के कारण कोठों तक पहुँची लड़कियाँ निरपराध हैं, यदि वे कभी लौट आएँ तो उनके आंगनों को उनका स्वागत करना चाहिए, न कि तिरस्कार..! यह संदेश तो झीनी चिक में से झाँकती नायिका की आँखों पर स्पष्ट लिखा है। फ़िल्म का कुल उद्देश्य यही है कि समाज की आत्मा जागकर इन आँखों का दर्द पढ़ने योग्य बने।
गाय की पूँछ पकड़कर स्वर्ग जानेवाला होरी सामाजिक रूढ़ियों पर चोट करके केवल समाज की आत्मा को जगाना चाहता है। वह गोदान के पक्ष अथवा विरोध में कोई फैसला सुनाता नहीं दिखाई देता।
साहित्यकार से सामाजिक अथवा राजनैतिक समस्याओं समाधान मांगनेवाले लोग न तो साहित्य से परिचित हैं, न ही समाज से। जिस साहित्यिक कृति को गाली देने का उन्हें कोई स्कोप नहीं मिलता, वहाँ वे समाधान का पुछल्ला उठा लाते हैं।
साहित्यकार केवल समस्या को रेखांकित करके समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है। किसी अन्याय के अनदेखा रह जाने की स्थिति से जूझकर उसे सार्वजनिक पटल पर उपस्थित करता है। उसे देखकर कोई अपनी आत्मा को जगाने की बजाय, उल्टे साहित्यकार का ही पंचनामा करने लगे तो यह ऐसे ही है ज्यों किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुँचानेवाले की थाने में पेशी होना।
साहित्यकार समाधान का मार्ग बता सकता है, उस पर चलना तो समाज को स्वयं ही होगा। निराला इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती महिला से समाज का साक्षात्कार ही करा सकते हैं। यदि समाज यह कहने लगे कि निराला उसे पत्थर तोड़ते देखकर कविता लिखने क्यों बैठ गए, उसकी सहायता क्यों नहीं की। तो यह उलाहना समष्टि के पथ पर बढ़ चले रचनाकार को व्यष्टि तक सीमित कर देने का कुप्रयास होगा।
बाबा तुलसी ने रामकथा में राम का चरित्र समाज के सामने रखा। उससे अर्थ ग्रहण करके रामराज की स्थापना का कार्य तुलसी का नहीं, समाज का है। वेदव्यास ने द्वापर में घटित महायुद्ध के कारण तथा मानसिकता समाज के सम्मुख प्रकट की। अब उन स्थितियों से अपने समाज को बचाए रखना समाज का काम है।
कबीर की सभी रचनाएँ कर्मकाण्ड और ढोंग पर चोट करती हुई आगे बढ़ जाती हैं। वे किसी मुल्ला या किसी पण्डित को प्रवचन नहीं देते, बल्कि उनकी क्रियाओं पर कटाक्ष करके उनके ज़मीर का द्वार खटखटाते हैं।
साहित्यकार समाज को विवेकी बनाना चाहता है। यदि समाधान भी साहित्यकार ही सौंप देगा तो समाज अपने विवेक का प्रयोग करने की क्षमता खो बैठेगा। फिर समाज की दशा उन मवेशियों की तरह हो जाएगी जो किसी के हाँकने पर किसी दिशा में बढ़ जाते हैं। फिर साहित्यकार और प्रवचनकार में कोई अंतर न रह जाएगा। फिर आत्मा को जगाने की बजाय भीड़ जुटाने को वरीयता दी जाने लगेगी। फिर सभ्यता के विकास की बजाय अपने-अपने दोपाये मवेशियों के क़बीले लेकर प्रत्येक साहित्यकार ‘लीडर’ बना बैठा होगा।
© चिराग़ जैन
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