कोई मनुष्य अपने भीतर चल रहे प्रत्येक भाव को अभिव्यक्त कर दे, तो समाज उसे तत्काल ‘पागल’ घोषित कर देगा। इच्छाएँ उस मदमस्त गजराज की तरह होती हैं कि उन पर लोकभय का अंकुश न लगाया जाए तो वे पूरा वनप्रदेश तहस-नहस कर सकती हैं। आजकल कुछ लोग अपने मन के भीतर की इन समस्त उत्कंठाओं को अभिव्यक्त करने को आधुनिकता कहते हैं, जबकि अध्यात्म इन इच्छाओं को नियंत्रित करके शांत करने को संन्यास कहता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि ‘संन्यास’ इच्छाओं को नियंत्रित करने का मार्ग है और ‘मोक्ष’ इच्छाओं से पार पा जाने का बिंदु है, लेकिन इसके बावजूद इच्छाओं से उलझकर जीवन को सुलझाने की उत्कंठा रखनेवाले व्यक्ति के लिए नगर नहीं, वन उपयुक्त बताया गया है।
नगर में रहना है तो नगर के नियमों का पालन करना ही होगा, अन्यथा समाज में अराजकता फैल जाएगी। समाज को अराजकता से बचाने के लिए ही समाज को नियमों की बाड़ से बांधा जाता है। यह बाड़ समाज का विकास अवरुद्ध करने के लिए नहीं, अपितु समाज को सुंदर, सुव्यवस्थित तथा सुगढ़ बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
यह बहुत संभव है कि इस बाड़ की कोई कड़ी समाज के सुख को अवरुद्ध करके उसे चोटिल करने लगे तो उसे हटाकर उसका समाधान करने की व्यवस्था भी बाड़ बनानेवाले करते ही हैं। इसीलिए दुनिया के प्रत्येक संविधान में नियमों के बदलाव संबंधी नियम भी सम्मिलित होते हैं। एक सभ्य समाज इन्हीं नियमों का पालन करते हुए किसी सामाजिक नियम के परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करता है।
बाड़ की कोई डंडी आपको चुभी और आपने अपने समर्थकों की फौज जुटाकर पूरी बाड़ को ही ध्वस्त कर डाला तो आपने अपने नगर में जंगल बोने से अधिक कुछ नहीं किया।
कई बार राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण बाड़ की डंडियों का प्रयोग समाज की प्रताड़ना हेतु होने लगता है। ऐसे में पूरा समाज धीरे-धीरे संगठित होकर पुरानी बाड़ को उखाड़ फेंकता है और नई खपच्चियाँ लगाकर थोड़ी खुली बाड़ लगाने लगता है। बाद में इस नयी बाड़ के खुलेपन में जब गन्दगी सड़ने लगती है तो फिर उस बाड़ को काट-छाँटकर टाइट कर दिया जाता है और समाज व्यवस्थित रूप से मर्यादित हो जाता है।
कमोबेश, यही समाज के संचालन की सामान्य प्रक्रिया है। किंतु सोशल मीडिया के दौर में जब प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में अपना मनोभाव अभिव्यक्त करने का साधन आ गया है, ऐसे में ‘केवल ध्यानाकर्षण के उद्देश्य से’ कुछ लोग न केवल असंयत भावनाओं को ढिठाई से अभिव्यक्त करने लगे हैं बल्कि यह भी मान बैठे हैं कि उनसे बाड़ में वे जिस एक संटी को बदलना चाह रहे हैं, उसी से पूरी बाड़ का चरित्र बदलने की क्रांति हो जाएगी। जिसका जो मन होता है, वह बाड़ पर लिख जाता है। जो चाहे, जिस मर्ज़ी लकड़ी को कोसने लगता है। कोई इन खपच्चियों को आपस में रगड़कर आग लगाने पर उतारू है, तो कोई इन्हें अलग-अलग रंगों में रंगकर रंगदारी वसूलने में लगा है। कोई इन डंडियों को हथियार बना लेना चाहता है तो कोई इन डंडियों पर पाँव रखकर अपना क़द ऊँचा करने में व्यस्त है।
सोशल मीडिया के कारण पूरा समाज इस बाड़ पर अपनी-अपनी क्षमतानुसार प्रहार कर रहा है, किन्तु यह प्रहार किसी आवश्यक क्रांति के लिए लोकतांत्रिक प्रयास न होकर कुछ लाइक्स, कुछ कमेंट और कुछ व्यक्तिगत लाभ बटोरने का उद्देश्य से किये जा रहे कुत्सित आघात हैं। इनके परिणामस्वरूप मर्यादा की बाड़ जगह-जगह से जर्जर हो गयी है। और यदि सोशल मीडिया पर बौराए फिर रहे उन्मादियों के इन आघातों को नहीं रोका गया तो इस बाड़ के उस पार खड़ा जंगल, सूनामी के वेग से समाज में घुस आएगा और उस वेग में सबसे पहले वे लोग ध्वंस होंगे जो अनवरत इस सामाजिक बाड़ को जर्जर कर रहे हैं।
...और तब, अराजकता बो रहे इन मूढ़ों के अस्तित्व की लाश पर सैड वाली इमोजी भी पोस्ट करने कोई नहीं आएगा, क्योंकि इनकी पोस्ट लाइक करने वाला समाज तब अराजकता की सुनामी से जूझ रहा होगा।
© चिराग़ जैन
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