नोबेल पुरस्कार विजेता रूसी लेखक एलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन का एक उपन्यास है- ‘द कैंसर वार्ड’। इस उपन्यास में एक स्थान पर कैंसर वार्ड में भर्ती एक रोगी की पीड़ा को देखकर, उसका मन बहलाने के लिए नर्स एक गाना गाती है। गीत के बोल थे- ‘आवारा हूँ, आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ।’
यह उद्धरण आज इसलिए प्रासंगिक है कि इस गीत के रचयिता शंकरदास केसरीवाल ‘शैलेन्द्र’ की आज जयंती है। 43 वर्ष के कुल जीवन में लगभग 800 गीतों से हिंदी सिनेमा को समृद्ध करनेवाले इस कवि का जीवन किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं।
बचपन में माँ की मृत्यु हो गयी। स्वास्थ्य कारणों से पिता रावलपिंडी का काम-धंधा छोड़कर मथुरा आ बसे। पिता की बीमारी ने आर्थिक स्थिति ऐसी कर दी कि भूख मारने के लिए शैलेन्द्र और उनके भाइयों को जबरन बीड़ी पिलाई जाती थी। यही ग़रीबी इलाज के अभाव में उनकी इकलौती बहन को लील गई।
रेलवे में नौकरी मिली तो लेखन और नौकरी के बीच संघर्ष छिड़ गया। खुद्दारी ऐसी कि राजकपूर को यह कहकर लौटा दिया कि मैं पैसों के लिए नहीं लिखता।
परिस्थितियाँ जब किसी सिद्धांतवादी को झुकाने कि ठान लेती हैं तो उसके परिजनों को दाँव पर लगाती हैं।
पत्नी गर्भवती थी और परिवार की आर्थिक आवश्यकताएँ बढ़ रही थीं। विपन्नता के अभिशाप से अपनों को खो चुके शैलेन्द्र ने अपने सिद्धांतों की लक्ष्मण रेखा लांघकर फ़िल्मों में गीत लिखना स्वीकार किया। ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन’ से प्रारम्भ हुआ यह सफ़र ‘जीना यहाँ मरना यहाँ’ की आखि़री संवेदना तक जारी रहा।
14 दिसंबर 1966 को जब इस रचनाकार ने दुनिया से मुँह फेरा तब इसके दिल में ‘तीसरी कसम’ की विफलता का विषाद और लिवर में ‘लिवर सिरोसिस’ का रोग तो था ही, साथ ही अपनों के द्वारा छले जाने का क्षोभ भी था। संवेदनशील व्यक्ति किसी पर बहुत आसानी से विश्वास कर लेता है। अपनी निश्छलता की लत के चलते बहुत आसानी से किसी के भी सामने अपना मन खोलकर रख देता है। वह व्यापार में भी संवेदना तलाशने की भूल करता है और शुद्ध व्यावसायिक लोग उसकी संवेदनशीलता का लाभ उठाकर उसके विश्वास की हत्या करते रहते हैं।
जो लोग यह समझते हैं कि शैलेन्द्र की मृत्यु 14 दिसंबर 1966 को हुई, वे केवल स्थूल दृष्टि से शैलेन्द्र को देख पाते हैं। संवेदनशील व्यक्ति जब छला जाता है, तो चला जाता है।
बाद में लोगों ने ‘तीसरी कसम’ को सेल्युलायड पर लिखी कविता कहा। बाद में लोगों ने शैलेन्द्र को सदी का कवि कहा। बाद में आलोचकों ने उन्हें संत रविदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण दलित कवि बताया। बाद में भारत सरकार ने शैलेन्द्र के नाम पर पूरे 5 रुपये का डाक-टिकट भी जारी किया। बाद में ‘तीसरी कसम’ मास्को अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में शामिल होकर भारत का गौरव बन गई। लेकिन बाद में हुए इस आकलन से ख़ुश होने के लिए जीवित न थे, शैलेन्द्र। व्यावसायिक छल और अपनत्व की अवसरवादिता से उत्पन्न पीड़ा से व्यथित होकर ‘मारे गए गुलफाम’।
✍️ चिराग़ जैन
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