Sunday, June 30, 2024

स्वार्थी कायरता

हम सब बहुत तेज़ी से भीड़ में अकेले होते जा रहे हैं। एक सिंह सैंकड़ों हिरणों के बीच से एक हिरण को उठा लाता है, क्योंकि सिंह आश्वस्त होता है कि आक्रमण के समय झुण्ड का प्रत्येक हिरण एकाकी हो जाएगा। यदि झुण्ड के आठ-दस हिरण भी संगठित होकर सिंह पर धावा बोल दें तो कोई नाहर "सर-ए-आम" अनीति करने की हिम्मत नहीं कर सकता।

लेकिन सम्भव है, हिरणों की माँओं ने भी अपने बच्चों को समझाया हो कि किसी के पचड़े में मत फँसना और कहीं झगड़ा हो रहा हो तो चुपचाप भागकर अपने घर आ जाना!

समाज की इसी स्वार्थी कायरता ने अपराधियों और शिकारियों को यह विश्वास दिलाया है कि आप सर-ए-आम अनैतिकता का नंगा नाच करोगे और ये सब पढ़े-लिखे सुसभ्य लोग 'लड़ाई करना गंदी बात' कहते हुए तमाशा देखेंगे।

अपराध, राजनीति, सिस्टम और निजी कंपनियाँ इसी प्रवृत्ति का लाभ उठाकर नागरिकों की भीड़ में से किसी भी हिरण का आसानी से शिकार कर लेते हैं। 'चहल-पहल'; 'सर-ए-आम'; 'भरे बाज़ार में'; 'सबके सामने' और 'बीच सड़क पर' जैसे शब्दयुग्म भी अपराध के दुस्साहस को कम नहीं होने देते।

मध्यमवर्गीय समाज ने अपनी मम्मियों-पापाओं से 'चुप लगाने' के जो मंत्र सीखे हैं, उन्हीं की सिद्धि करते हुए वे पूरा जीवन कायरता का वरदान भोगते हुए बिता देते हैं। और जब कभी उनमें से कोई आज्ञाकारी श्रवण कुमार स्वयं किसी सिंह का शिकार बनता है तब उसे समझ आता है कि जीवन भर 'तथाकथित अच्छा बच्चा' बनने की कोशिश में वह जिस मौन को नैतिकता समझ रहा था वह वास्तव में आत्महत्या का रास्ता था।

शिकारी के आक्रमण के समय वह चीख नहीं पाता, क्योंकि मौन उसके कण्ठ की आदत बन चुका होता है। इस प्रवृत्ति को उसने स्वयं पोषित किया है इस ग्लानिबोध में उसकी कराह भी नहीं निकल पाती। जूझने का प्रयास करनेवाले हिरणों को देखकर उसने नाक-भौं चढ़ाए हैं, इस अपराध बोध में वह सिसक भी नहीं पाता।

उसकी आँखों की कोरें भीग जाती हैं। आँसू आँखों की सीमा से बाहर निकलकर उस पर ठहाका लगाते हैं कि यदि वह समय रहते अपने स्वार्थी मौन की लक्ष्मणरेखा से बाहर निकल आया होता तो आज उसके प्राण न निकल रहे होते।

✍️ चिराग़ जैन 

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