Friday, August 30, 2024

भरत मिलाप

दशरथ निकले अरथी बनकर, रीते-रीते हो गये भरत
पितु को कंधा देते-देते, बीते कल में खो गये भरत
यादों में उभरे आते थे, हँसते दशरथ, पुलकित दशरथ
सोचा, कैसे दिखते होंगे, अंतिम क्षण में पीड़ित दशरथ
चेहरे पर था अपराध-बोध, कंधे पर देह पिता की थी
वेदना बसी थी नस-नस में, साँसों में आग चिता की थी
जिस क्षण लपटों में घिरे तात, तब अंतस् में पिघली पीड़ा
हो गया कण्ठ अवरुद्ध और आँखों से बह निकली पीड़ा
कंचन-सी देह हुई माटी, माटी ले गयी सरयू बहाय
दस दिन दशगात्र हुआ लेकिन, आँसू रुकते ही नहीं हाय

विषघूँट नियति के निर्णय का, सबको पीना ही पड़ता है
कितना भी शोकाकुल हो मन, लेकिन जीना ही पड़ता है
इसलिए शोक-संतप्तों को, फिर याद दिलायी राजसभा
ठहरे जीवन को गति देने, मुनि ने बुलवायी राजसभा
हर मंत्री मौन धरे बैठा, राजा का आसन सूना था
क्या-क्या खोया, यह कर विचार हर सीने का दुःख दूना था
जो बीता उसका शोक त्याग, होना होगा कर्त्तव्यनिष्ठ
अब भरत संभालें राजकाज, स्वर को दृढ़ कर बोले वशिष्ठ

दो हाथ जोड़कर उठे भरत, बोले सबको संबोधित कर
कैसे विश्वास किया तुमने, मेरे जैसे कैकयीसुत पर
मेरे जैसे कुलघाती को मत अर्पित कर देना शासन
यह राज्य राम की थाती है, उनका ही है यह सिंहासन
रघुवंश शिरोमणि राघव को, वापस लौटाने जाऊंगा
श्री राम संभालेंगे शासन, मैं स्वयं मनाने जाऊंगा
यह निर्णय करते हुए सभा के बीच खड़े हो गये भरत
आश्चर्य सुखद होकर छाया, तत्काल बड़े हो गये भरत

चल दिया भरत बन भ्रातृप्रेम, कैकयी बन पश्चाताप चला
आशीष चला बनकर वशिष्ठ, ढाँढ़स की ओर विलाप चला
उत्साह चला, आशा दौड़ी, पीड़ा के संग यूँ खेद चला
कर्त्तव्यनिष्ठ के श्रम का अभिनंदन करने ज्यूँ स्वेद चला
आश्रम दौड़े, कुटिया दौड़ी, रथ भूला राजभवन दौड़ा
जंगल से अपना मन लाने, सुध-बुध खोकर हर तन दौड़ा
हर क्षोभ धुला, हर पीर छँटी, अवसाद राह में गया छूट
कोरा भाई रघुनन्दन का पहुँचा जाता था चित्रकूट
भावुकता के रथ पर चढ़कर दल वन को बढ़ता आता था
इनके चलने से धूरिमेघ अम्बर तक चढ़ता जाता था

लक्ष्मण ने दूर खड़े देखा, क्षण भर में यह अनुमान किया
निश्चित ही कैकयी के सुत ने संग्राम राम से ठान लिया
सोचा, सब कुछ चुकता होगा, भैया ने जो-जो कष्ट सहा
क्रोधित होकर सौमित्र चले, राघव को सारा हाल कहा
देखो भैया, सेना लेकर बढ़ता है अपनी ओर भरत
श्री राम जानते थे मन में, कितना है भाव विभोर भरत
लक्ष्मण बोले, भ्रम है उसको, वह हमको मार गिरायेगा
हम दोनों के मर जाने पर निष्कंटक राज्य चलायेगा
वह भूल गया सत्ता मद में, दशरथ का ही है लाल लखन
अग्रज के हेतु समर्पित है, वैरी के हित है काल लखन
भैया, मैं आगे जाता हूँ, सौगंध तुम्हारी खाता हूँ
कैकयी के बेटे का वध कर, फिर राज्य छीन ले आता हूँ

लक्ष्मण का क्रोध अपार हुआ, तब आसन से उठ गये राम
बिन सोचे क्या कह गये अनुज, संशय को कुछ तो दो विराम
जितनी पीड़ा तुमने भोगी, उतना ही दुःख उसने भोगा
इस समय भरत पर स्वयं भरत, तुमसे बढ़कर क्रोधित होगा
माना हाथी हैं, घोड़े हैं, आगे है ध्वजा अयोध्या की
निश्चित ही भावुक राजा के पीछे है प्रजा अयोध्या की
तुम कहते हो सत्ता मद में खींचेगा भरत हमें रण में
मैं कह भर दूँ, तो सिंहासन वह तुम्हें सौंप देगा क्षण में

"भैया-भैया" कहता उस क्षण आँगन तक भाई आ पहुँचा
भावुक मन अपनी काया की करता अगुआई आ पहुँचा
स्वर दौड़ा, दृष्टि अलग दौड़ी, धड़कन भागी, रुक गये भरत
अपना पूरा आचरण लिये, दो चरणों में झुक गये भरत
पैरों से जा लिपटा भाई, लगता था चुम्बक हुए राम
पीछे काया का स्पर्श हुआ, पहले आँसू ने छुए राम

फिर राम झुके, भाई के दोनों कंधे थाम लिये झुककर
धरती और शेषनाग दोनों यह दृश्य देखते थे रुककर
उच्चारण हिचकी में सिमटा, साँसों ने प्यार समेट लिया
दोनों ने चार भुजाओं में सारा संसार समेट लिया
इसका सीना धड़कन उसकी, इसका कंधा और सिर उसका
यूँ लिपटे ज्यों धमनी इसकी और उसमें बहा रुधिर उसका
दोनों ने मिलकर आँसू के जल से नहलाया आलिंगन
तीनों लोकों में उस क्षण से पावन कहलाया आलिंगन
आलिंगन में दो प्राण, परस्पर विद्यमान हो जाते हैं
आलिंगन में भरकर दो जन बिल्कुल समान हो जाते हैं

भाई से लिपटे हुए राम को दिखीं द्वार पर माताएँ
भीगी पालकों के साथ खड़ी वैधव्य धार कर माताएँ
पुंछ गया सिंदूर अयोध्या का, रघुकुल पर क्या आघात हुआ
ममता की सूनी मांग देख, सब हाल राम को ज्ञात हुआ
साकेत हुआ कितना विचलित, सरयू को कितना कष्ट हुआ
तीनों माताओं का पूरा अस्तित्व सूचनापट्ट हुआ
आनंदपाश छूटा, राघव की श्वास काँपकर सिसक गई
धक्-से दिल बैठ गया जैसे धरती नीचे से खिसक गई
मस्तक पर रेखाएँ उभरीं, नैना भीगे छोटे होकर
ममता के आँचल तक लाए, राघव अपनी काया ढोकर
मन घिरा पिता की यादों में, तन कैकयी के सन्निकट गया
जग का पालक, बालक होकर, माँ के आँचल में सिमट गया
कैकयी के मन का भार अश्रु का रूप धारकर बहता था
हे राम, अयोध्या लौट चलो, प्रायश्चित का स्वर कहता था

लक्ष्मण की शंका सच निकली, करने आया था युद्ध भरत
अन्तर केवल इतना-सा था, अंतर्मन से था शुद्ध भरत
जाने कितने ही तर्कों से भरकर निषंग ले आया था
राघव के राजतिलक का सब सामान संग ले आया था
लेकिन राघव भी राघव थे, दृढ़ता की ढाल उठाए रहे
दो वीर परस्पर जूझे; पर रघुकुल का भाल उठाए रहे
इक ओर राम की मर्यादा, इक ओर भरत की भावुकता
दोनों रघुवंशी अडिग रहे, ना ये झुकता, ना वो झुकता
हर रीति गिनी, हर नीति गिनी, शास्त्रोक्त सभी कुछ याद किया
ना राम थके, ना भरत थके, पहरों तक यूँ संवाद किया
अब से पहले इस दुनिया ने ऐसा संग्राम न देखा था
निष्ठा ने भरत न देखा था, दृढ़ता ने राम न देखा था

सब लोग भरत से सहमत थे, सब साथ भरत का देते थे
फिर भी नैया मर्यादा की, श्रीराम अकेले खेते थे
बस राम अयोध्या लौट चलें, ऐसा करके अनुमान भरत
भावुकता की प्रत्यंचा से करते थे शर-संधान भरत
उस ओर राम थे अडिग बहुत, मन को पत्थर-सा किए हुए
ज्यों कवच बनाकर पहने हों, दो वचन पिता के दिए हुए
दो धर्मनिष्ठ दुर्लभ योद्धा, इक युद्ध परस्पर लड़ते थे
निज सुख की अनदेखी कर के परहित के लिए झगड़ते थे

राघव बोले पितु आज्ञा है मुझको वन में रहना होगा
और भरत, तुम्हें राजा बनकर वह राज्यभार सहना होगा
हम दोनों साथ रहेंगे तो, पितु का बोला मिथ्या होगा
हम दोनों साथ रहेंगे तो, उन दो वचनों का क्या होगा
राघव का तर्क वृथा करके कह दिया भरत ने इक पल में
श्रीराम अयोध्या लौटेंगे, और भरत रहेगा जंगल में
हम दोनों भाई मिल जुलकर रघुकुल का वचन निभाएंगे
मैं वनवासी हो जाऊंगा, राघव राजा बन जाएंगे
इस भ्रातृनेह से बिंध करके, निरुपाय हो गए रामचंद्र
ऐसे निःस्वार्थ समर्पण से असहाय हो गए रामचंद्र

रच दिया भरत ने मोहव्यूह, एकल जिसमें घिर गए राम
ममता, अपनापन, स्नेह, भक्ति, अनुनय, आज्ञा, आदर तमाम
इक ओर नीति के रथ पर थे आज्ञा लेकर कुलगुरु वशिष्ठ
इक ओर उपस्थित थे सुमंत मंत्रणा हेतु कर्तव्यनिष्ठ
वात्सल्य बिंदु पर कौशल्या थी अपनी पीड़ा ओढ़ खड़ी
प्रायश्चित के आँसू लेकर कैकयी माँ थी कर जोड़ खड़ी
निर्लिप्त सुमित्रा माता थी, चेहरे पर कोई भाव न था
राघव ने उनका मन देखा, आशा का तनिक अभाव न था
वह समझ चुकी थी नहीं लिखा पूरा सुख उसके जीवन में
आधा मन होगा महलों में, आधा मन रहना है वन में
भावुकता ने आघात किया, दृढ़ता का वज्र हुआ पानी
राघव के मन ने भी उस दिन राघव की बात नहीं मानी
असमंजस बढ़ता जाता था, इस ओर नेह, उस ओर ज्ञान
साकेत घिरा था दुविधा में, मिथिला से आया समाधान

सज गया न्याय का सिंहासन, आ मिले कसौटी और कनक
दोनों पक्षों की बात सुनी, फिर यूँ बोले मिथिलेश जनक
पहला प्रणाम उस रघुकुल को, जिसने ऐसा परिवार दिया
निःस्वार्थ, समर्पित, धर्मनिष्ठ -इन शब्दों को साकार किया
ऐसे भी होते हैं भाई, यह देख हृदय आनंदित है
दोनों का त्याग अलौकिक है, दोनों का यत्न प्रशंसित है

था स्वयं जनक का हृदय सजल, दृढ़ दिखते मात्र प्रकट में थे
जो धर्मदण्ड लेकर बैठे, वे स्वयं धर्मसंकट में थे
आदेश पिता का बिसरा दें, तब दूर उदासी होती है
रघुकुल की रीति निभाएं तो, बेटी वनवासी होती है
अंतिम निर्णय की वेला थी, पर्वत मन पर धरकर बोले
पलकों पर बूँदें उभरी और स्वर में दृढ़ता भरकर बोले

राजा दशरथ के वचनों में, संशोधन का अधिकार नहीं
हे भरत, धर्म को इस कारण, कोई अनुनय स्वीकार नहीं
जिसके हित जो आदेश हुआ, बस वही पिता की थाती है
कर्त्तव्यों के कंटक पथ पर, भावुकता काम न आती है
दायित्व निभाते हुए चतुर्दश वर्ष काटने हैं तुमको
वनवास-राज्य बस साधन हैं, दो वचन साधने हैं तुमको
राजा होना क्या होता है, तुमको किंचित अनुमान नहीं
नृपजीवन कठिन तपस्या है, इसको समझो वरदान नहीं
और राम, नहीं संशय इसमें, तुम रघुकुल रीति निभाओगे
लेकिन यह भी संकल्प करो, साकेत लौटकर आओगे

कर जोड़ भरत फिर बोल उठे, मैं चौदह वर्ष बिता लूंगा
पर इससे अधिक वियोग हुआ, तो जिवित चिता सजा लूंगा
राजा तो राघव ही होंगे, मैं बस दायित्व निभाऊंगा
अग्रज का प्रतिनिधि बनकर मैं, राघव का राज्य चलाऊंगा
भैया, अपने इस सेवक पर, उपकार अभी इतना कर दो
चरणों में राज न रख पाओ, तो चरण सिंहासन पर धर दो
रुंध गया राम का कण्ठ, हृदय फूला ऐसा भाई लखकर
जब भरत अयोध्या लौट चले, पाँवरी राम की सिर रखकर
पदत्राण शीश पर धारे थे, क्या अनुपम दृश्य बनाया था
जो रामचन्द्र को ला न सका, वह रामराज ले आया था

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, August 24, 2024

हमारा लोकतन्त्र महान!

लोकतन्त्र नामक राज्य के आसपास घना ‘लोभारण्य’ था; जिसमें भयानक धनपशु और लाभासुर रहा करते थे। ये लाभासुर जब-तब नागरिकों का रक्त चूसते थे और और धनपशु बर्बरतापूर्वक उनका जीवन नारकीय बना देते थे। ‘नागरिकों’ ने अपनी सुरक्षा के लिए कठिन तपस्या की और व्यवस्था का निर्माण किया। नागरिकों की रक्षा के लिए यह व्यवस्था शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। अब धनपशु और लाभासुर नागरिकों को प्रताड़ित करने आते थे, तो व्यवस्था उनके प्रयासों को विफल कर देती थी। इस स्थिति का सामना करने के लिए लाभासुरों ने व्यवस्था की घेराबंदी में भ्रष्टकीट छोड़ दिए और धनपशुओं ने जगह-जगह रिश्वत का गोबर करके व्यवस्था की धरती में दीमक प्रविष्ट करवा दी। भ्रष्टकीटों ने व्यवस्था के अस्त्र-शस्त्रों को नपुंसक बना दिया और दीमकों ने व्यवस्था को भीतर से खोखला कर दिया। इस दुर्बलता का लाभ उठाते हुए लाभासुरों और धनपशुओं ने व्यवस्था के भीतर अपने प्रतिनिधियों को घुसा दिया। करत-करत अभ्यास के... ये प्रतिनिधि नियामक बन गए और इन्होंने पूरी व्यवस्था को धनपशुओं और लाभासुरों के पक्ष में नागरिकों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। अब जो नागरिक, धनपशुओं और लाभासुरों को अपना रक्त पीने से रोकता था, उसे विकास-विरोधी कहा जाने लगा। जिसने दया की गुहार की, उसे व्यवस्थाद्रोही कहा जाने लगा।
व्यवस्था ने अपने अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करके नागरिकों के हाथ-पैर बांधकर लोभारण्य में फेंक दिया और नागरिकों को यह आदेश दे दिया कि जब कोई तुम्हारा रक्त पीने आए तो प्रतिकार करके उसका अपमान न करना। बल्कि हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहना - ‘हमारा लोकतन्त्र महान!’

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, August 17, 2024

सिस्टम और हम

सिस्टम की आपसे केवल इतनी अपेक्षा है कि आप सिस्टम से कोई अपेक्षा न करें। जब कोविड से जूझना हो तो डॉक्टर को सिस्टम का सहयोग करना चाहिए। उस समय, न उसे अपने ड्यूटी ऑवर्स की चिंता करनी चाहिए, न अपनी जान की! ऐसा करते हुए उनकी जान चली जाये तो उनका जीवन सार्थक होगा। सिस्टम की मदद करनेवालों पर फूल बरसाये जाएंगे। उनके लिए सब अपनी बालकनी में खड़े होकर ताली बजाते दिखेंगे! सभी के चेहरे पर डॉक्टर के लिए आदर का भाव उभर आएगा। लेकिन डॉक्टर को जब सिस्टम की सहायता चाहिए, तब सिस्टम अपनी शक्ल पर बड़ा-सा शून्य लटका लेगा। अपनी मांग लेकर डॉक्टर सड़कों पर उतरना चाहेंगे तो उन पर ड्यूटी से लापरवाही का आरोप लगेगा। उन्हें ग़ैर-ज़िम्मेदार बताया जाएगा। उनकी मांगों को अनसुना करते हुए उन्हें कर्त्तव्यों का पाठ पढ़ाया जाएगा। उन्होंने सत्ता के विरुद्ध कोई मोर्चा खोला तो उन्हें राष्ट्रद्रोही और ग़द्दार कहने में भी राजनीति नहीं हिचकिचाएगी।
किसी की जान जाती है तो जाए, पर सरकार की साख नहीं जानी चाहिए।
खिलाड़ी देश के लिए मैडल लायें, यह उनका कर्त्तव्य है। उन्हें अपने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को ताक पर रखकर देश के लिए खेलना चाहिए। यही राष्ट्र के प्रति उनका कर्त्तव्य है। लेकिन वही खिलाड़ी अपने खानपान, अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए; अपने संस्थान में चल रहे किसी कदाचार के लिए या अपने साथ हुए किसी दुर्व्यवहार के लिए सिस्टम और सत्ता की ओर देखे तो सत्ता पहले उस व्यक्ति का भारोत्तोलन करती है, जिस पर आरोप लगाया गया है। यदि उस पर एक्शन लेने से सरकार को कोई फर्क़ नहीं पड़ता तो सरकार उस भ्रष्टाचारी को उठाकर सिस्टम से बाहर फेंक देती है; लेकिन उस पर कार्रवाई होने से सरकार की सेहत पर फर्क़ पड़ता हो तो सरकार खिलाड़ियों को उठाकर जंतर-मंतर से बाहर फेंक देती है।
किसान देश के लिए अधिक अन्न उपजाने में दिन-रात एक कर दे तो सरकार जगह-जगह ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा पुतवा देती है, लेकिन वही किसान, सरकार की किसी नीति का विरोध करना चाहे तो सरकार उसी किसान पर उन्हीं जवानों से लाठीचार्ज करवा देती है। जिन किसानों को अन्नदाता कहकर गीत गाए जाते थे, उन्हीं को ग़द्दार, खालिस्तानी और आतंकवादी कहा जाने लगता है। जिन किसानों के रास्ते में फूल बिछाये गए थे, उन्हीं के रास्ते में काँटे बिछा दिए जाते हैं।
सैनिक देश के लिए सीमा पर मरे तो उसे शहीद कहा जाता है। उसे तिरंगा ओढ़ाकर विदा किया जाता है। लेकिन वही सैनिक अपने को मिलनेवाले खाने की शिकायत कर दे तो उसे अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है।
सरकार आपको एक नागरिक मानना ही नहीं चाहती। आप सरकार के काम आ रहे हैं तो आपको ‘महान’ माना जाएगा। आपको वॉरियर, देवदूत, भगवान, मनुष्यता का पर्याय और न जाने क्या-क्या कहा जाएगा।
अगर आप सरकार के विरुद्ध हुए तो आपको राष्ट्रद्रोही, ग़द्दार, आतंकवादी, संवेदनहीन, लालची, भ्रष्टाचारी, रैकेटियर जैसे तमगे मिलेंगे। और अगर आपका सरकार से कोई सरोकार नहीं है तब तो आप कीड़े-मकोड़े हैं ही।
यदि नागरिक मान लिया जाए तो न तो किसी को देवता सिद्ध करना पड़ेगा, न हो दानव।
डॉक्टर मरीज़ का इलाज कर रहा है, किसान फसल उगा रहा है, खिलाड़ी खेल का अभ्यास कर रहा है, लेखक लिख रहा है, लिपिक फाइल प्रबंधन कर रहा है -यह सब सामान्य है ना।
लेकिन सरकार तारीफ़ करके हमें हमारे रोज़मर्रा के काम के लिए महान सिद्ध करती है। हम प्रसन्न हो जाते हैं। सरकार हमें बताती है कि तुम विशेष हो। हम स्वयं को विशेष मानकर बाकी सबको समान्य मान लेते हैं। इसी समय बाकी सब भी हमें सामान्य मानते हुए ख़ुद को विशेष मान रहे होते हैं।
हम ख़ुद को विशेष समझकर सरकार की ओर अपेक्षा भरी नज़र उठाते हैं। सरकार अपेक्षा से चिढ़ती है। वह सिस्टम को इशारा करती है कि इस विशेष को इसकी हैसियत बताई जाए।
सिस्टम हमें हमारी औक़ात बताने लगता है। पत्थर हो चुके सत्ताधीशों की ओर अपेक्षा से देखते देखते हमारी आँखें पथरा जाती हैं। सिस्टम हमारी आँख में उंगली डालकर वह पत्थर की आँख निकालता है और हमारे सिर पर दे मारता है।


✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, August 14, 2024

विवेक को सोने दो

चेतावनी: यह पोस्ट आपको विवेकशील बना सकती है। और विवेकशील होना आपके राजनैतिक भविष्य के लिए घातक है।


हम भयंकर संवेदनहीन लोगों से घिर चुके हैं।
‘अपराधी’; ‘विवश’; ‘दरिन्दा’ और ‘बेचारा’ जैसे उपनाम हमारी राजनैतिक प्रतिबद्धता को देखकर तय किए जाते हैं।
भाजपाई होने के लिए मुसलमानों से घृणा न्यूनतम अर्हता है, और कांग्रेसी होने के लिए संघ से नफ़रत ज़रूरी है।
कांग्रेसी होकर कांग्रेस की चूक पर बोलना पाप है। भाजपाई होकर भाजपा सरकार की किसी भी नीति का विरोध महापाप है।
मोदी जी की मिमिक्री करने पर किसी को प्रताड़ित किया जाएगा तो कांग्रेसी और आपिये भाजपा को हास्यबोध विहीन घोषित कर देंगे। लेकिन किसी ने राहुल गांधी या केजरीवाल पर कोई परिहास कर दिया तो यही कांग्रेसी और आपिये उससे परहेज करने लगेंगे।
निष्पक्ष होना कदाचार कहलाने लगा है। विवेकशील लोग राजनीति के लिए ख़तरनाक़ हैं। असहमति जतानेवाला एक दिन ग़लत को ग़लत कह देगा, इसलिए किसी को सदस्य चाहियें ही नहीं। सबको अंधभक्त चाहियें।
अपना विपक्ष किसी को भी बर्दाश्त नहीं है। हर दल वहाँ लोकतन्त्र लाना चाहता है, जहाँ वह सत्ता में नहीं है। सत्ता में आते ही सब तानाशाही के पक्ष में तर्क जुटाने लगते हैं।
विपक्ष में रहकर जो मशालें उठाई जाती हैं, सत्ता में पहुँचते ही उन मशालों को आरती का थाल बनाकर चमचों के हाथ में थमा दिया जाता है।
बलात्कार यदि कांग्रेस शासित राज्य में हुआ है तो कांग्रेस का समर्थक, वहाँ शासन की कार्रवाई से संतुष्ट होगा। ज़्यादा गहरा समर्थक हुआ तो पीड़िता की ग़लतियाँ भी ढूंढ सकता है। छोटा-मोटा समर्थक हुआ तो भी कम से कम चुप लगाने जितनी निष्ठा तो निभाएगा ही। लेकिन यही दुष्कर्म यदि भाजपा शासित राज्य में होगा तो कांग्रेस का कार्यकर्ता सबसे पहले सरकार को अमानवीय घोषित करेगा, फिर मनुष्यता का झंडा उठाएगा, बेटियों के पक्ष में संवेदनात्मक पोस्ट्स लिखेगा।
मणिपुर में महिला को नंगा घुमाया जाएगा तो भाजपावाले उस वीडियो से दहल नहीं जाएंगे। वे उसके वायरल होने के पीछे सरकार को बदनाम करने की मंशा तलाश लेंगे। मणिपुर में होनेवाली विदेशी फंडिंग की काल्पनिक रसीदें दिखाकर मणिपुर के लोगों को राष्ट्रद्रोही साबित करेंगे।
लोकतंत्र और नैतिकता, नंगे बदन, सिर झुकाए, सड़क पर पत्थर खाएगी और राजनीति उसके अंगोपांग को मसलकर अपने बलशाली होने का जश्न मनाती रहेगी।
जनता का विवेक कुंभकर्ण की नींद सो रहा है। राजनैतिक रावण मनुष्यता की लक्ष्मण रेखा लाँघकर भी जन-संवेदना की सीता को अपनी अशोक वाटिका में कैद रखना चाहते हैं।
अपने विवेक को आँखें मत खोलने देना, क्योंकि आँखें खोलते ही उसे अपने राजनैतिक आका के चेहरे पर लगे घिनौने धब्बे साफ़-साफ़ दिखने लगेंगे।

✍️ चिराग़ जैन