लोकतन्त्र नामक राज्य के आसपास घना ‘लोभारण्य’ था; जिसमें भयानक धनपशु और लाभासुर रहा करते थे। ये लाभासुर जब-तब नागरिकों का रक्त चूसते थे और और धनपशु बर्बरतापूर्वक उनका जीवन नारकीय बना देते थे। ‘नागरिकों’ ने अपनी सुरक्षा के लिए कठिन तपस्या की और व्यवस्था का निर्माण किया। नागरिकों की रक्षा के लिए यह व्यवस्था शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। अब धनपशु और लाभासुर नागरिकों को प्रताड़ित करने आते थे, तो व्यवस्था उनके प्रयासों को विफल कर देती थी। इस स्थिति का सामना करने के लिए लाभासुरों ने व्यवस्था की घेराबंदी में भ्रष्टकीट छोड़ दिए और धनपशुओं ने जगह-जगह रिश्वत का गोबर करके व्यवस्था की धरती में दीमक प्रविष्ट करवा दी। भ्रष्टकीटों ने व्यवस्था के अस्त्र-शस्त्रों को नपुंसक बना दिया और दीमकों ने व्यवस्था को भीतर से खोखला कर दिया। इस दुर्बलता का लाभ उठाते हुए लाभासुरों और धनपशुओं ने व्यवस्था के भीतर अपने प्रतिनिधियों को घुसा दिया। करत-करत अभ्यास के... ये प्रतिनिधि नियामक बन गए और इन्होंने पूरी व्यवस्था को धनपशुओं और लाभासुरों के पक्ष में नागरिकों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। अब जो नागरिक, धनपशुओं और लाभासुरों को अपना रक्त पीने से रोकता था, उसे विकास-विरोधी कहा जाने लगा। जिसने दया की गुहार की, उसे व्यवस्थाद्रोही कहा जाने लगा।
व्यवस्था ने अपने अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करके नागरिकों के हाथ-पैर बांधकर लोभारण्य में फेंक दिया और नागरिकों को यह आदेश दे दिया कि जब कोई तुम्हारा रक्त पीने आए तो प्रतिकार करके उसका अपमान न करना। बल्कि हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहना - ‘हमारा लोकतन्त्र महान!’
✍️ चिराग़ जैन
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