Friday, August 30, 2024

भरत मिलाप

दशरथ निकले अरथी बनकर, रीते-रीते हो गये भरत
पितु को कंधा देते-देते, बीते कल में खो गये भरत
यादों में उभरे आते थे, हँसते दशरथ, पुलकित दशरथ
सोचा, कैसे दिखते होंगे, अंतिम क्षण में पीड़ित दशरथ
चेहरे पर था अपराध-बोध, कंधे पर देह पिता की थी
वेदना बसी थी नस-नस में, साँसों में आग चिता की थी
जिस क्षण लपटों में घिरे तात, तब अंतस् में पिघली पीड़ा
हो गया कण्ठ अवरुद्ध और आँखों से बह निकली पीड़ा
कंचन-सी देह हुई माटी, माटी ले गयी सरयू बहाय
दस दिन दशगात्र हुआ लेकिन, आँसू रुकते ही नहीं हाय

विषघूँट नियति के निर्णय का, सबको पीना ही पड़ता है
कितना भी शोकाकुल हो मन, लेकिन जीना ही पड़ता है
इसलिए शोक-संतप्तों को, फिर याद दिलायी राजसभा
ठहरे जीवन को गति देने, मुनि ने बुलवायी राजसभा
हर मंत्री मौन धरे बैठा, राजा का आसन सूना था
क्या-क्या खोया, यह कर विचार हर सीने का दुःख दूना था
जो बीता उसका शोक त्याग, होना होगा कर्त्तव्यनिष्ठ
अब भरत संभालें राजकाज, स्वर को दृढ़ कर बोले वशिष्ठ

दो हाथ जोड़कर उठे भरत, बोले सबको संबोधित कर
कैसे विश्वास किया तुमने, मेरे जैसे कैकयीसुत पर
मेरे जैसे कुलघाती को मत अर्पित कर देना शासन
यह राज्य राम की थाती है, उनका ही है यह सिंहासन
रघुवंश शिरोमणि राघव को, वापस लौटाने जाऊंगा
श्री राम संभालेंगे शासन, मैं स्वयं मनाने जाऊंगा
यह निर्णय करते हुए सभा के बीच खड़े हो गये भरत
आश्चर्य सुखद होकर छाया, तत्काल बड़े हो गये भरत

चल दिया भरत बन भ्रातृप्रेम, कैकयी बन पश्चाताप चला
आशीष चला बनकर वशिष्ठ, ढाँढ़स की ओर विलाप चला
उत्साह चला, आशा दौड़ी, पीड़ा के संग यूँ खेद चला
कर्त्तव्यनिष्ठ के श्रम का अभिनंदन करने ज्यूँ स्वेद चला
आश्रम दौड़े, कुटिया दौड़ी, रथ भूला राजभवन दौड़ा
जंगल से अपना मन लाने, सुध-बुध खोकर हर तन दौड़ा
हर क्षोभ धुला, हर पीर छँटी, अवसाद राह में गया छूट
कोरा भाई रघुनन्दन का पहुँचा जाता था चित्रकूट
भावुकता के रथ पर चढ़कर दल वन को बढ़ता आता था
इनके चलने से धूरिमेघ अम्बर तक चढ़ता जाता था

लक्ष्मण ने दूर खड़े देखा, क्षण भर में यह अनुमान किया
निश्चित ही कैकयी के सुत ने संग्राम राम से ठान लिया
सोचा, सब कुछ चुकता होगा, भैया ने जो-जो कष्ट सहा
क्रोधित होकर सौमित्र चले, राघव को सारा हाल कहा
देखो भैया, सेना लेकर बढ़ता है अपनी ओर भरत
श्री राम जानते थे मन में, कितना है भाव विभोर भरत
लक्ष्मण बोले, भ्रम है उसको, वह हमको मार गिरायेगा
हम दोनों के मर जाने पर निष्कंटक राज्य चलायेगा
वह भूल गया सत्ता मद में, दशरथ का ही है लाल लखन
अग्रज के हेतु समर्पित है, वैरी के हित है काल लखन
भैया, मैं आगे जाता हूँ, सौगंध तुम्हारी खाता हूँ
कैकयी के बेटे का वध कर, फिर राज्य छीन ले आता हूँ

लक्ष्मण का क्रोध अपार हुआ, तब आसन से उठ गये राम
बिन सोचे क्या कह गये अनुज, संशय को कुछ तो दो विराम
जितनी पीड़ा तुमने भोगी, उतना ही दुःख उसने भोगा
इस समय भरत पर स्वयं भरत, तुमसे बढ़कर क्रोधित होगा
माना हाथी हैं, घोड़े हैं, आगे है ध्वजा अयोध्या की
निश्चित ही भावुक राजा के पीछे है प्रजा अयोध्या की
तुम कहते हो सत्ता मद में खींचेगा भरत हमें रण में
मैं कह भर दूँ, तो सिंहासन वह तुम्हें सौंप देगा क्षण में

"भैया-भैया" कहता उस क्षण आँगन तक भाई आ पहुँचा
भावुक मन अपनी काया की करता अगुआई आ पहुँचा
स्वर दौड़ा, दृष्टि अलग दौड़ी, धड़कन भागी, रुक गये भरत
अपना पूरा आचरण लिये, दो चरणों में झुक गये भरत
पैरों से जा लिपटा भाई, लगता था चुम्बक हुए राम
पीछे काया का स्पर्श हुआ, पहले आँसू ने छुए राम

फिर राम झुके, भाई के दोनों कंधे थाम लिये झुककर
धरती और शेषनाग दोनों यह दृश्य देखते थे रुककर
उच्चारण हिचकी में सिमटा, साँसों ने प्यार समेट लिया
दोनों ने चार भुजाओं में सारा संसार समेट लिया
इसका सीना धड़कन उसकी, इसका कंधा और सिर उसका
यूँ लिपटे ज्यों धमनी इसकी और उसमें बहा रुधिर उसका
दोनों ने मिलकर आँसू के जल से नहलाया आलिंगन
तीनों लोकों में उस क्षण से पावन कहलाया आलिंगन
आलिंगन में दो प्राण, परस्पर विद्यमान हो जाते हैं
आलिंगन में भरकर दो जन बिल्कुल समान हो जाते हैं

भाई से लिपटे हुए राम को दिखीं द्वार पर माताएँ
भीगी पालकों के साथ खड़ी वैधव्य धार कर माताएँ
पुंछ गया सिंदूर अयोध्या का, रघुकुल पर क्या आघात हुआ
ममता की सूनी मांग देख, सब हाल राम को ज्ञात हुआ
साकेत हुआ कितना विचलित, सरयू को कितना कष्ट हुआ
तीनों माताओं का पूरा अस्तित्व सूचनापट्ट हुआ
आनंदपाश छूटा, राघव की श्वास काँपकर सिसक गई
धक्-से दिल बैठ गया जैसे धरती नीचे से खिसक गई
मस्तक पर रेखाएँ उभरीं, नैना भीगे छोटे होकर
ममता के आँचल तक लाए, राघव अपनी काया ढोकर
मन घिरा पिता की यादों में, तन कैकयी के सन्निकट गया
जग का पालक, बालक होकर, माँ के आँचल में सिमट गया
कैकयी के मन का भार अश्रु का रूप धारकर बहता था
हे राम, अयोध्या लौट चलो, प्रायश्चित का स्वर कहता था

लक्ष्मण की शंका सच निकली, करने आया था युद्ध भरत
अन्तर केवल इतना-सा था, अंतर्मन से था शुद्ध भरत
जाने कितने ही तर्कों से भरकर निषंग ले आया था
राघव के राजतिलक का सब सामान संग ले आया था
लेकिन राघव भी राघव थे, दृढ़ता की ढाल उठाए रहे
दो वीर परस्पर जूझे; पर रघुकुल का भाल उठाए रहे
इक ओर राम की मर्यादा, इक ओर भरत की भावुकता
दोनों रघुवंशी अडिग रहे, ना ये झुकता, ना वो झुकता
हर रीति गिनी, हर नीति गिनी, शास्त्रोक्त सभी कुछ याद किया
ना राम थके, ना भरत थके, पहरों तक यूँ संवाद किया
अब से पहले इस दुनिया ने ऐसा संग्राम न देखा था
निष्ठा ने भरत न देखा था, दृढ़ता ने राम न देखा था

सब लोग भरत से सहमत थे, सब साथ भरत का देते थे
फिर भी नैया मर्यादा की, श्रीराम अकेले खेते थे
बस राम अयोध्या लौट चलें, ऐसा करके अनुमान भरत
भावुकता की प्रत्यंचा से करते थे शर-संधान भरत
उस ओर राम थे अडिग बहुत, मन को पत्थर-सा किए हुए
ज्यों कवच बनाकर पहने हों, दो वचन पिता के दिए हुए
दो धर्मनिष्ठ दुर्लभ योद्धा, इक युद्ध परस्पर लड़ते थे
निज सुख की अनदेखी कर के परहित के लिए झगड़ते थे

राघव बोले पितु आज्ञा है मुझको वन में रहना होगा
और भरत, तुम्हें राजा बनकर वह राज्यभार सहना होगा
हम दोनों साथ रहेंगे तो, पितु का बोला मिथ्या होगा
हम दोनों साथ रहेंगे तो, उन दो वचनों का क्या होगा
राघव का तर्क वृथा करके कह दिया भरत ने इक पल में
श्रीराम अयोध्या लौटेंगे, और भरत रहेगा जंगल में
हम दोनों भाई मिल जुलकर रघुकुल का वचन निभाएंगे
मैं वनवासी हो जाऊंगा, राघव राजा बन जाएंगे
इस भ्रातृनेह से बिंध करके, निरुपाय हो गए रामचंद्र
ऐसे निःस्वार्थ समर्पण से असहाय हो गए रामचंद्र

रच दिया भरत ने मोहव्यूह, एकल जिसमें घिर गए राम
ममता, अपनापन, स्नेह, भक्ति, अनुनय, आज्ञा, आदर तमाम
इक ओर नीति के रथ पर थे आज्ञा लेकर कुलगुरु वशिष्ठ
इक ओर उपस्थित थे सुमंत मंत्रणा हेतु कर्तव्यनिष्ठ
वात्सल्य बिंदु पर कौशल्या थी अपनी पीड़ा ओढ़ खड़ी
प्रायश्चित के आँसू लेकर कैकयी माँ थी कर जोड़ खड़ी
निर्लिप्त सुमित्रा माता थी, चेहरे पर कोई भाव न था
राघव ने उनका मन देखा, आशा का तनिक अभाव न था
वह समझ चुकी थी नहीं लिखा पूरा सुख उसके जीवन में
आधा मन होगा महलों में, आधा मन रहना है वन में
भावुकता ने आघात किया, दृढ़ता का वज्र हुआ पानी
राघव के मन ने भी उस दिन राघव की बात नहीं मानी
असमंजस बढ़ता जाता था, इस ओर नेह, उस ओर ज्ञान
साकेत घिरा था दुविधा में, मिथिला से आया समाधान

सज गया न्याय का सिंहासन, आ मिले कसौटी और कनक
दोनों पक्षों की बात सुनी, फिर यूँ बोले मिथिलेश जनक
पहला प्रणाम उस रघुकुल को, जिसने ऐसा परिवार दिया
निःस्वार्थ, समर्पित, धर्मनिष्ठ -इन शब्दों को साकार किया
ऐसे भी होते हैं भाई, यह देख हृदय आनंदित है
दोनों का त्याग अलौकिक है, दोनों का यत्न प्रशंसित है

था स्वयं जनक का हृदय सजल, दृढ़ दिखते मात्र प्रकट में थे
जो धर्मदण्ड लेकर बैठे, वे स्वयं धर्मसंकट में थे
आदेश पिता का बिसरा दें, तब दूर उदासी होती है
रघुकुल की रीति निभाएं तो, बेटी वनवासी होती है
अंतिम निर्णय की वेला थी, पर्वत मन पर धरकर बोले
पलकों पर बूँदें उभरी और स्वर में दृढ़ता भरकर बोले

राजा दशरथ के वचनों में, संशोधन का अधिकार नहीं
हे भरत, धर्म को इस कारण, कोई अनुनय स्वीकार नहीं
जिसके हित जो आदेश हुआ, बस वही पिता की थाती है
कर्त्तव्यों के कंटक पथ पर, भावुकता काम न आती है
दायित्व निभाते हुए चतुर्दश वर्ष काटने हैं तुमको
वनवास-राज्य बस साधन हैं, दो वचन साधने हैं तुमको
राजा होना क्या होता है, तुमको किंचित अनुमान नहीं
नृपजीवन कठिन तपस्या है, इसको समझो वरदान नहीं
और राम, नहीं संशय इसमें, तुम रघुकुल रीति निभाओगे
लेकिन यह भी संकल्प करो, साकेत लौटकर आओगे

कर जोड़ भरत फिर बोल उठे, मैं चौदह वर्ष बिता लूंगा
पर इससे अधिक वियोग हुआ, तो जिवित चिता सजा लूंगा
राजा तो राघव ही होंगे, मैं बस दायित्व निभाऊंगा
अग्रज का प्रतिनिधि बनकर मैं, राघव का राज्य चलाऊंगा
भैया, अपने इस सेवक पर, उपकार अभी इतना कर दो
चरणों में राज न रख पाओ, तो चरण सिंहासन पर धर दो
रुंध गया राम का कण्ठ, हृदय फूला ऐसा भाई लखकर
जब भरत अयोध्या लौट चले, पाँवरी राम की सिर रखकर
पदत्राण शीश पर धारे थे, क्या अनुपम दृश्य बनाया था
जो रामचन्द्र को ला न सका, वह रामराज ले आया था

✍️ चिराग़ जैन

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