सिस्टम की आपसे केवल इतनी अपेक्षा है कि आप सिस्टम से कोई अपेक्षा न करें। जब कोविड से जूझना हो तो डॉक्टर को सिस्टम का सहयोग करना चाहिए। उस समय, न उसे अपने ड्यूटी ऑवर्स की चिंता करनी चाहिए, न अपनी जान की! ऐसा करते हुए उनकी जान चली जाये तो उनका जीवन सार्थक होगा। सिस्टम की मदद करनेवालों पर फूल बरसाये जाएंगे। उनके लिए सब अपनी बालकनी में खड़े होकर ताली बजाते दिखेंगे! सभी के चेहरे पर डॉक्टर के लिए आदर का भाव उभर आएगा। लेकिन डॉक्टर को जब सिस्टम की सहायता चाहिए, तब सिस्टम अपनी शक्ल पर बड़ा-सा शून्य लटका लेगा। अपनी मांग लेकर डॉक्टर सड़कों पर उतरना चाहेंगे तो उन पर ड्यूटी से लापरवाही का आरोप लगेगा। उन्हें ग़ैर-ज़िम्मेदार बताया जाएगा। उनकी मांगों को अनसुना करते हुए उन्हें कर्त्तव्यों का पाठ पढ़ाया जाएगा। उन्होंने सत्ता के विरुद्ध कोई मोर्चा खोला तो उन्हें राष्ट्रद्रोही और ग़द्दार कहने में भी राजनीति नहीं हिचकिचाएगी।
किसी की जान जाती है तो जाए, पर सरकार की साख नहीं जानी चाहिए।
खिलाड़ी देश के लिए मैडल लायें, यह उनका कर्त्तव्य है। उन्हें अपने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को ताक पर रखकर देश के लिए खेलना चाहिए। यही राष्ट्र के प्रति उनका कर्त्तव्य है। लेकिन वही खिलाड़ी अपने खानपान, अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए; अपने संस्थान में चल रहे किसी कदाचार के लिए या अपने साथ हुए किसी दुर्व्यवहार के लिए सिस्टम और सत्ता की ओर देखे तो सत्ता पहले उस व्यक्ति का भारोत्तोलन करती है, जिस पर आरोप लगाया गया है। यदि उस पर एक्शन लेने से सरकार को कोई फर्क़ नहीं पड़ता तो सरकार उस भ्रष्टाचारी को उठाकर सिस्टम से बाहर फेंक देती है; लेकिन उस पर कार्रवाई होने से सरकार की सेहत पर फर्क़ पड़ता हो तो सरकार खिलाड़ियों को उठाकर जंतर-मंतर से बाहर फेंक देती है।
किसान देश के लिए अधिक अन्न उपजाने में दिन-रात एक कर दे तो सरकार जगह-जगह ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा पुतवा देती है, लेकिन वही किसान, सरकार की किसी नीति का विरोध करना चाहे तो सरकार उसी किसान पर उन्हीं जवानों से लाठीचार्ज करवा देती है। जिन किसानों को अन्नदाता कहकर गीत गाए जाते थे, उन्हीं को ग़द्दार, खालिस्तानी और आतंकवादी कहा जाने लगता है। जिन किसानों के रास्ते में फूल बिछाये गए थे, उन्हीं के रास्ते में काँटे बिछा दिए जाते हैं।
सैनिक देश के लिए सीमा पर मरे तो उसे शहीद कहा जाता है। उसे तिरंगा ओढ़ाकर विदा किया जाता है। लेकिन वही सैनिक अपने को मिलनेवाले खाने की शिकायत कर दे तो उसे अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है।
सरकार आपको एक नागरिक मानना ही नहीं चाहती। आप सरकार के काम आ रहे हैं तो आपको ‘महान’ माना जाएगा। आपको वॉरियर, देवदूत, भगवान, मनुष्यता का पर्याय और न जाने क्या-क्या कहा जाएगा।
अगर आप सरकार के विरुद्ध हुए तो आपको राष्ट्रद्रोही, ग़द्दार, आतंकवादी, संवेदनहीन, लालची, भ्रष्टाचारी, रैकेटियर जैसे तमगे मिलेंगे। और अगर आपका सरकार से कोई सरोकार नहीं है तब तो आप कीड़े-मकोड़े हैं ही।
यदि नागरिक मान लिया जाए तो न तो किसी को देवता सिद्ध करना पड़ेगा, न हो दानव।
डॉक्टर मरीज़ का इलाज कर रहा है, किसान फसल उगा रहा है, खिलाड़ी खेल का अभ्यास कर रहा है, लेखक लिख रहा है, लिपिक फाइल प्रबंधन कर रहा है -यह सब सामान्य है ना।
लेकिन सरकार तारीफ़ करके हमें हमारे रोज़मर्रा के काम के लिए महान सिद्ध करती है। हम प्रसन्न हो जाते हैं। सरकार हमें बताती है कि तुम विशेष हो। हम स्वयं को विशेष मानकर बाकी सबको समान्य मान लेते हैं। इसी समय बाकी सब भी हमें सामान्य मानते हुए ख़ुद को विशेष मान रहे होते हैं।
हम ख़ुद को विशेष समझकर सरकार की ओर अपेक्षा भरी नज़र उठाते हैं। सरकार अपेक्षा से चिढ़ती है। वह सिस्टम को इशारा करती है कि इस विशेष को इसकी हैसियत बताई जाए।
सिस्टम हमें हमारी औक़ात बताने लगता है। पत्थर हो चुके सत्ताधीशों की ओर अपेक्षा से देखते देखते हमारी आँखें पथरा जाती हैं। सिस्टम हमारी आँख में उंगली डालकर वह पत्थर की आँख निकालता है और हमारे सिर पर दे मारता है।
✍️ चिराग़ जैन
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