चुनावी ख़र्च की सीमा तय है। लेकिन चुनाव प्रचार के लिए सोशल मीडिया जैसे सशक्त माध्यम का प्रयोग भोले-भाले नियामक संस्थानों को समझ ही नहीं आता।
माननीय न्यायालय ने एक राजनेता को यह कहकर ज़मानत पर रिहा किया कि "आप न्यायालय के समक्ष लंबित अपने मुआमले का चुनावी रैली में प्रयोग नहीं करेंगे।" न्यायालय का सम्मान करते हुए उक्त राजनेता ने अपने पहले भाषण में अपने साथियों के legal matters का ज़िक्र किया लेकिन अपने वाले मामले का ज़िक्र नहीं किया इसलिए अदालत के आदेश की अवमानना नहीं हुई। उनके सहयोगियों ने उसी मंच से उस मैटर का ज़िक्र कर दिया जिसका ज़िक्र वे स्वयं नहीं कर सकते थे। लेकिन माननीय न्यायालय इसलिए कुछ नहीं कह सकता क्योंकि उक्त राजनेता ने न्यायालय के आदेश का शब्दशः पालन किया है।
पत्रकार किसी भी मतदाता के 'गुप्त मतदान के अधिकार' का अतिक्रमण नहीं कर सकता। लेकिन नेशनल टेलीविजन पर वोटिंग की लाइव कवरेज में पोलिंग बूथ पर मौजूद पत्रकार क्या रिपोर्ट कर रहा है, यह स्टूडियो में बैठे एंकर को साफ़ समझ आ रहा है, पैनल में बैठे प्रवक्ताओं और विश्लेषकों को साफ़ समझ आता है, दर्शकों को भी साफ़ समझ आता है लेकिन नियामकों को समझ नहीं आता क्योंकि उनकी आँखों पर नियम बंधा हुआ है।
सभी राजनैतिक दल और लगभग सभी राजनेता नियामकों की आँखों में नियम झोंककर धड़ल्ले से नियम तोड़ते हैं। और जनता नियामकों की नपुंसक पॉवर की खिल्ली उड़ाते हुए नुक्कड़ पर बैठकर चाय की चुस्की लेकर ठहाका लगाती है। बीच-बीच में इस नुक्कड़ पर व्यवस्था की चीख उठती है लेकिन वह चीख दूसरे पक्ष के ठहाके के शोर में दब जाती है।
-चिराग़ जैन
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