हमने सिनेमा से सीखा है कि आम जनता कीड़े-मकौड़े की तरह है, जिसकी न कोई इज़्ज़त है, न क़ीमत। इसको कोई भी, कभी भी कैसे भी लूट सकता है। फिल्मी पर्दे ने बहुत चालाकी से आम जनता को मूकदर्शक बने रहना सिखाया है।
आध्यात्मिक फ़िल्मों में आम जनता भीड़ बनकर आरती करती रही। उसकी कोई पहचान कभी नहीं रही। उसके लिए सम्वाद के नाम पर जयकारे से ज़्यादा कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं महसूस हुई। उस भीड़ से निकल कर यदि कोई सम्वाद करने लगा, तो वह आम नहीं रहा। वह या तो नायक बनकर विशेष भक्त बन गया या फिर उस भक्त से ईर्ष्या रखनेवाला नास्तिक खलनायक बन गया।
सम्वाद आपको भीड़ से अलग कर देता है। सम्वाद आपको विशेष बना देता है। इसीलिए आम जनता के लिए कभी सम्वाद लिखे ही नहीं गए।
इसके बाद दौर आया ऐतिहासिक सिनेमा का। इसमें भी आम जनता की स्थिति वही रही। बस ईश्वर का किरदार राजा के किरदार से बदल दिया गया। जनता कभी फ्रेम में आई तो या तो विदेशी आततायी की प्रताड़ना सहती दिखी या फिर अपने राजा के महल के आगे हाथ जोड़े बिलखती दिखी और अंत के एक शॉट में राजा के जयकारे लगाती दिखी।
निर्देशक जानता है कि अत्याचार के समय यदि जनता कुछ प्रतिक्रिया कर देगी तो कहानी बदल जाएगी। फिर राजा की महत्ता क्षीण हो जाएगी। इसलिए जनता को अत्याचार के समय अधिक से अधिक रोने-चीखने की अनुमति मिलती थी। क्योंकि हाथ चलानेवाला तो फुटेज खा जाएगा। फिर राजा को हीरो साबित करना असंभव होगा।
फिर देशभक्ति की फ़िल्मों का युग आया। यहाँ से जनता की भूमिका में कुछ परिवर्तन हुआ। वह सक्रिय हुई। क्रांति और शांति के आंदोलनों की ताक़त बन गई। लेकिन इस दौर में भी उसके भाग्य में संवाद नहीं लिखे गए। वह कभी गांधी, कभी नेहरू तो कभी किसी अन्य लीडर के पीछे दौड़ती दिखी। अंग्रेजों के अत्याचारों पर बिलखती जनता ने अपने लिए ईश्वर या राजा नहीं, लीडर चुन लिया।
अब लीडर नायक बन गए। जनता या तो संवादहीन होकर लॉन्गशॉट में नेता की लोकप्रियता का प्रमाण बन गई, या फिर किसी अंग्रेज सार्जेंट के हंटर की मार से रोती-बिलखती हुई खलनायक की क्रूरता का झरोखा बन गई।
फिर दौर आया रोमांटिक फीचर फ़िल्मों का। एक खूबसूरत लड़की, एक बेरोजगार लड़का, एक अमीर बाप, एक बीमार माँ, एक विधवा बहन, एक क्रूर खलनायक... इत्यादि! इस दौर में जनता के नाम पर कुछ लड़कियाँ और कुछ लड़के कभी कभी डांस नंबर में हीरो और हीरोइन के पीछे नाचते हुए उग जाते थे और गाने का बैकग्राउंड म्यूज़िक समाप्त होते ही झट से नदारद हो जाते थे। क्रूर खलनायक के गुंडे हीरो को सर-ए-आम पीटते थे, और 'आम' जन अपना सिर झुकाए देखते रहते थे। खलनायक भरे बाज़ार में हीरोइन के कपड़े फाड़ा करता था और जनता अपने चरित्र पर नपुंसकता लपेटे चुपचाप देखती रहती थी।
फिर क्रांतिकारी फ़िल्मों का दौर आया। एक लालची पूंजीपति के अत्याचारों से त्रस्त मजदूर अपनी झुग्गी बस्ती के उजाड़े जाने का तमाशा देखती हुई बिलखती रहती है। फिर उन्हीं मजदूरों की भीड़ में से एक टफ लुक का नौजवान प्रकट होता है। उसकी एंट्री पर पार्श्व में अलग ढिंचक टाइप का संगीत बजता है। उसका आकार शेष मजदूरों से थोड़ा ऊँचा होता है। कभी उसके हाथ पर किसी विशेष नंबर का बिल्ला होता है तो कभी उसके गले में गमछा या रूमाल बांधकर उसे भीड़ से अलग दिखाया जाता है। उसके आते ही फाइट सीन शुरू होता है। वह अकेला झुग्गी उजाड़ने वाले दस्ते की छुट्टी कर देता है और चारों ओर गोला बनाकर खड़ी भीड़ तालियां बजाकर अपनी नपुंसकता का जश्न मनाते हुए उसे हीरो स्वीकार कर लेती है।
इसके बाद जब भी खलनायक कोई चाल चलता है तो यह जनता प्रतिकार करने की बजाय उस हीरो का इंतज़ार करने लगती है और वह हीरो आते ही गुंडों के चंगुल से उस मूकदर्शक भीड़ को बचा लेता है।
इन सब फ़िल्मों ने हमारे समाज के मन में यह बात ठीक से बैठा दी है कि किसी भी स्थिति में हमें अपना विवेक प्रयोग नहीं करना है। हमें केवल अपने लिए एक मसीहा ढूंढना है, जिसके पीछे हमें आँख मूंद कर चलना होगा।
चूँकि हम सिनेमा के आदर्श विद्यार्थी हैं, इसलिए हमने रियल लाइफ में भी विवेकहीन आचरण करना ठीक से सीख लिया है। जिसने ख़ुद को हमारा मसीहा कहा, हम उसके पीछे चलने लगे। हमने उसे अपना भगवान कहना शुरू कर दिया।
सोशल मीडिया का दौर आया तो हम जनता नहीं रहे बल्कि अलग-अलग किस्म के स्वयंभू मसीहाओं के ट्रोलर बन गए। गाली-गलौज और गीदड़ भभकी जैसे परमाणु अस्त्रों से हम चरित्र हत्या करनेवाले रोबोट बन गए हैं या फिर किसी आईटी सेल के मेसेज को कॉपी-पेस्ट करके हवा बनाने वाले टूलबॉक्स।
हमारा 'यूज़' करके मसीहा अपनी राजनीति चला रहे हैं। मसीहा जानते हैं कि ये जनता किताबें पलटने की कोशिश नहीं करेगी, इसीलिए मसीहा अपने-अपने स्टाइल में धड़ल्ले से झूठ की बरसात कर रहे हैं। मसीहा अपने अपने डायरेक्टरों के हिसाब से आइटम सॉन्ग पर नाच रहे हैं। और जनता उनके पीछे भीड़ बनकर ठुमक रही है। मसीहा अपने अपने स्क्रिप्ट राइटर के लिखे डायलॉग अपने स्टाइल में बोल रहे हैं और हम डायलॉग की मिमिक्री करके ख़ुश हैं।
जिस दिन इस जनता ने विवेक का इस्तेमाल कर लिया उस दिन डायरेक्टरों के लिए बताना मुश्किल हो जाएगा कि जंगल में नायक-नायिका के लिए म्यूज़िक कैसे बजने लगता है; धुंआधार गोलियाँ चलाकर सैंकड़ों गुंडों को मार देनेवाले नायक को पुलिस क्यों नहीं पकड़ती; अदालतों में चीख-चीख कर दलील कहाँ दी जाती है; बिना वीजा के पाकिस्तान जानेवाले का इन्डिया में वापस एंट्री करते वक़्त इमिग्रेशन चैक क्यों नहीं होता... वगैरह... वगैरह!
बहरहाल, हम सिनेमा के दिखाए पथ पर चल रहे हैं। हर मसीहा अपने लिए हीरो की स्क्रिप्ट लिखवाकर पर्दे पर उतर रहा है। हीरोइज्म की लत से त्रस्त हमारा लोकतन्त्र बार-बार कान लगाकर अपनी दर्शक दीर्घा की साँसों में विवेक का सुर पकड़ने का प्रयास करता है लेकिन नपुंसकता का खटराग उस प्रयास से एक हताश उच्छ्वास से अधिक कुछ नहीं पनपने देता!
~चिराग़ जैन
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