(एक)
आलीशान शोरूम के
चमचमाते शोकेस में
महंगी विग सिर पर लगाये
हज़ारों रुपये के लहंगे से सजा
इतरा रहा था पुतला।
(दो)
अंग्रेजी स्टाइल के
फास्ट-फूड कॉर्नर में
जगमगा रहा था
आकर्षक-स्वादिष्ट राजकचौरी से सजा
महंगा ख़ूबसूरत काउण्टर
...मद्धम नीले प्रकाश के साथ।
बोनचाइना के महंगे प्यालों में रखे
आइसक्रीम के सैम्पल
चांदी की प्लेटों में रखी मिटाइयाँ
और काँच के बाउल में सजी
महंगी नमकीन मिक्सचर
बढ़ा रही थी
दुकान की शोभा
और पेट की भूख!
(तीन)
चर्च की दीवार की ओट में
सिमट रही थी
बीस-बाइस साल की
सस्ती-सी ज़िन्दगी।
उलझे-बिखरे भूरे बाल
नक़ली नहीं थे
भद्दा-मैला
पुराना कुचला कुरता
ढँक नहीं पा रहा था
पाँच-साढ़े पाँच फुट का
गेहुँआ बदन।
बड़ी-बड़ी भूखी आँखें
देख रही थीं
फास्ट-फूड कॉर्नर के
आलीशान काउण्टर की ओर।
आसपास देख सहम जाती थी
लाचार जवानी
कमज़ोर हाथों से छिपा रही थी
अपना ग़रीब बदन
रह-रहकर।
और हाथ में दुपट्टा उठाए
मुस्कुरा रहा था
शोकेस में खड़ा पुतला।
✍️ चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Monday, September 25, 2006
Monday, September 11, 2006
सब कुछ तेरे पास है
अपने भीतर झाँक ले, अपना हृदय टटोल
सब कुछ तेरे पास है, अपनी आँखें खोल
✍️ चिराग़ जैन
सब कुछ तेरे पास है, अपनी आँखें खोल
✍️ चिराग़ जैन
शायरी
शायरी इक शरारत भरी शाम है
हर सुख़न इक छलकता हुआ जाम है
जब ये प्याले ग़ज़ल के पिए तो लगा
मयक़दा तो बिना बात बदनाम है
✍️ चिराग़ जैन
हर सुख़न इक छलकता हुआ जाम है
जब ये प्याले ग़ज़ल के पिए तो लगा
मयक़दा तो बिना बात बदनाम है
✍️ चिराग़ जैन
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मुक्तक
Saturday, September 9, 2006
दिल में कोई कराह
बाक़ी नहीं है दिल में कोई कराह शायद
मुद्दत हुई, हुए थे, हम भी तबाह शायद
फिर से जहान वाले बदनाम कर रहे हैं
फिर से हुई है हम पर उनकी निगाह शायद
किस बात पर तू सबसे इतना ख़फ़ा-ख़फ़ा है
तुझको कचोटता है तेरा गुनाह शायद
फिर रेत पर लहू की बूंदें दिखाई दी हैं
कोई ढूंढने चला है सहरा में राह शायद
दुल्हन की आँख में क्यों नफ़रत उतर रही है
काज़ी ने पढ़ दिया है, झूठा निक़ाह शायद
चेहरे पे दर्द है और आँखों में है चमक-सी
तुम मानने लगे हो, दिल की सलाह शायद
✍️ चिराग़ जैन
मुद्दत हुई, हुए थे, हम भी तबाह शायद
फिर से जहान वाले बदनाम कर रहे हैं
फिर से हुई है हम पर उनकी निगाह शायद
किस बात पर तू सबसे इतना ख़फ़ा-ख़फ़ा है
तुझको कचोटता है तेरा गुनाह शायद
फिर रेत पर लहू की बूंदें दिखाई दी हैं
कोई ढूंढने चला है सहरा में राह शायद
दुल्हन की आँख में क्यों नफ़रत उतर रही है
काज़ी ने पढ़ दिया है, झूठा निक़ाह शायद
चेहरे पे दर्द है और आँखों में है चमक-सी
तुम मानने लगे हो, दिल की सलाह शायद
✍️ चिराग़ जैन
Sunday, September 3, 2006
ग़लतफ़हमी
एक लमहे के लिए सारी जवानी काट दी
ठीकरों की चाह में इक फ़स्ल धानी काट दी
इक न इक दिन कोई तो समझेगा हाले-दिल मिरा
इस ग़लतफ़हमी पे सारी ज़िन्दगानी काट दी
✍️ चिराग़ जैन
ठीकरों की चाह में इक फ़स्ल धानी काट दी
इक न इक दिन कोई तो समझेगा हाले-दिल मिरा
इस ग़लतफ़हमी पे सारी ज़िन्दगानी काट दी
✍️ चिराग़ जैन
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