Saturday, September 9, 2006

दिल में कोई कराह

बाक़ी नहीं है दिल में कोई कराह शायद
मुद्दत हुई, हुए थे, हम भी तबाह शायद

फिर से जहान वाले बदनाम कर रहे हैं
फिर से हुई है हम पर उनकी निगाह शायद

किस बात पर तू सबसे इतना ख़फ़ा-ख़फ़ा है
तुझको कचोटता है तेरा गुनाह शायद

फिर रेत पर लहू की बूंदें दिखाई दी हैं
कोई ढूंढने चला है सहरा में राह शायद

दुल्हन की आँख में क्यों नफ़रत उतर रही है
काज़ी ने पढ़ दिया है, झूठा निक़ाह शायद

चेहरे पे दर्द है और आँखों में है चमक-सी
तुम मानने लगे हो, दिल की सलाह शायद

© चिराग़ जैन

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