Tuesday, August 16, 2016

खुद से दूर

महफ़िलों की तेज़ नज़रों से छिटक कर रो पड़ा
मन हुआ भारी तो इक पल को पलट कर रो पड़ा

राम जाने एक सूने घोंसले को देख कर
इक मुसाफिर क्यों अचानक से बिलख कर रो पड़ा

प्यार से, झुँझलाहटों से हर तरह रोका उन्हें
और फिर बेसाख़्ता लाचार होकर रो पड़ा

अपने सब अपनों को खुद से दूर जाता देखकर
लौट कर आया तो पर्दों से लिपट कर रो पड़ा

© चिराग़ जैन

Sunday, August 14, 2016

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर कृतज्ञ राष्ट्र का सन्देश

श्रद्धेय राजनीतिज्ञो!
स्वाधीनता के सात दशक बीत चले हैं। इतनी लंबी अवधि किसी भी समाज में विसंगतियों और विद्रूपताओं के प्रवाह हेतु पर्याप्त है। सामान्यतया स्वाधीन हो चुके समाजों में अचानक पनपे अधिकार भाव के कारण इस प्रकार की स्थितियां सहज पनप जाती हैं। किन्तु आप दूरदर्शी लोगों ने स्वाधीन हो जाने के बावजूद महान भारतवर्ष को ऐसे पुंछल्लों में उलझाए रखा कि किसी प्रकार के विकार को पनपाने योग्य समय ही उनके पास शेष नहीं रहा।

समाज विकास की अंधी होड़ में पाश्चात्यता का दास न बन जाए; इस हेतु आप उन्नीसवीं शताब्दी में मर चुकी जातिप्रथा की सड़ी हुई लाश को अपने कंधे पर ढो कर लाए और समाज के बीच उसे पटक दिया। आज़ादी की लड़ाई के उन्माद में जो समाज इसे भूल चुका था, वह पुनः इसके गले-सड़े अंगों से खेलने में मशगूल हो गया।

अंत्योदय और पंचशील जैसे ठाली बैठे के कामों में हमारा नौजवान फँस कर न रह जाए इस हेतु आपने बेरोज़गारी के पैरों पर अपनी पगड़ी रख दी कि वह इस मुल्क़ को छोड़ कर न जाए। आपकी इस अनुनय से पिघल कर महान बेरोज़गारी ने अपना बंधा हुआ बोरिया खोला और इस देश के हर मुहल्ले में अपनी पैंठ बनाई।

परदेसियों के अधीन रहे इस समाज में शासन को शत्रु समझने का भाव घर कर गया था, इस समस्या को ध्यान में रखते हुए आपने जनहित में एक ऐसा अलिखित संविधान तैयार कर डाला जिसमें सरकारी करों के भुगतान का मार्ग अवरुद्ध हो ही न सके। लिखित संविधान के अनुसार सरकार जनता से विविध कर वसूल कर अपने कोष में एकत्र करती है और फिर उस कोष से सड़क, बिजली, जल, शिक्षा, सुरक्षा, न्याय आदि की मूलभूत सुविधाएँ जनता के लिए मुहैया कराई जाती हैं। लेकिन आपका अलिखित संविधान कर प्राप्ति और जनहित के इस अनावश्यक रूप से लंबे तरीके पर विश्वास नहीं करता।उसके अनुसार FIR लिखने और झगड़ों का निपटारा करने के एवज में दरोगा जी; सड़क पर चलने वाले करदाता से ट्रैफिक सार्जेंट और इसी प्रकार एन्य जनसेवक अपने-अपने हिस्से का कर बिना किसी रसीद के सीधे वसूल लें। इस महान प्रणाली से रसीदों में नष्ट होने वाली लुगदी की ख़ासी बचत हुई है।

चुनाव के समय पूरा विश्व हमारे देश की ख़बरों पर निगाह गड़ाए रहता है। ऐसे में भुखमरी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता, अस्वच्छता, गुंडागर्दी, पुलिसिया भ्रष्टाचार और सामाजिक न्याय जैसे टुच्चे और पुरापाषाणयुगीन मुद्दों पर चुनाव हों तो इससे वैश्विक समाज में हमारी छवि का ह्रास होगा।इस समस्या के समाधान हेतु आप लोगों ने सारी बुराई अपने कन्धों पर उठाते हुए गाली-गलौज, बेतुके बयान, सूट के रेट, घोड़े की टांग, बर्थडे केक के साइज़, गौरक्षा और राममंदिर जैसे मुद्दों को आपने न केवल पैदा किया अपितु अपनी-अपनी पार्टी के कोष की गाढ़ी कमाई व्यय करके इन्हें मीडिया और प्रोपगंडा के माध्यम से हवा भी दी। कई बार तो दंगों में हज़ारों देशभक्तोंकी आहुति देकर भी अपने मूलभूत मुद्दों को सिर उठाने से रोका है।

व्यवस्था को यद्यपि जनता के हित हेतु निर्मित किया जाता है किन्तु आपने ऐसा जादू घुमा रखा है कि आरामकुर्सी पर पसरी व्यवस्था और शासन सुख भोग रहे व्यवस्थापकों के सुख में खलल डालने के उद्देश्य से चलने वाला हर फरियादी दफ्तरों, थानों, अदालतों और खिड़कियों के चक्कर काट-काट कर चप्पलों के साथ-साथ ख़ुद भी घिस गया लेकिन किसी अफ़सर या कुर्सी के कान पर जूं तक न रेंगा सका।

गली के बच्चे-बच्चे को पता होता है कि फलां घर में सेक्स रेकेट चलता है। पच्चीस रुपल्ली ख़र्च करने की औक़ात रखने वाले हर शराबी को पता होता है कि नक़ली शराब कहाँ मिलती है। चरस, गांजा, अफ़ीम, सुल्फा और ड्रग्स का किस नुक्कड़ पर खोखा है। कौन अपने यहाँ जुआ खिलवाता है, कौन क्रिकेट पे सट्टा लगवाता है, किसके यहाँ आधी रात को भी शराब मिल जाएगी -ये बातें हर ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे को पता होती है लेकिन आपने अपने कानून के लंबे हाथों को सिस्टम की आँखों के ऊपर से लपेटते हुए अपने कानों तक इस तरह से बाँध दिया है कि इन काली गलियों की अंधियारी से इस महान राष्ट्र की व्यवस्था काली न पड़ जाए।

इस देश को इस दशा तक लाने में आपने जैसा दिन-रात परिश्रम किया है वैसा तो कोई अपनों के लिए भी नहीं करता। आपकी इन सेवाओं के प्रतिफल में अब काश श्रीकृष्ण आपको इस संसार के कष्टों से मुक्त कर अपने जन्मस्थान पर विश्राम करने के लिए उचित व्यवस्था करें।

© चिराग़ जैन

Friday, August 12, 2016

दुर्बुद्धि

दुर्योधन को समझाने वाले उस युग के सर्वाधिक प्रज्ञाशील लोग थे। स्वयम् श्रीकृष्ण, महात्मा विदुर, गंगापुत्र भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य और गांधारी जैसी मेधाओं का समवेत प्रयास भी उस एक युवक को हठ त्यागने के लिए राजी न कर सके। इसी प्रकार केकैयी को समझाने वालों में महाराज दशरथ, कौशल्या, आर्यसुमंत, महर्षि वशिष्ठ, धर्म प्रतीक भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न और श्रीराम जैसी प्रखर प्रतिभाएँ थीं। रावण को सद्बुद्धि देने के लिए विभीषण, सुमाली, कैकसी, कुम्भकर्ण, मेघनाद, अंगद, मंदोदरी, सीता, सुलोचना और हनुमान जैसे विद्वानों ने हर संभव प्रयास किया किन्तु निष्फल रहे।

एक शकुनि, एक मंथरा या एक शूर्पणखा की दुर्बुद्धि, दर्जनों सद्बुद्धियों से अधिक प्रभावी सिद्ध होती है। दुर्योधन को अपनी भूल तब समझ आई जब वह मरणासन्न था। केकैयी को अपनी ग़लती का एहसास जब हुआ तब तक उल्लास के रंगों को वैधव्य के श्वेत परिधानों से ढँका जा चुका था। रावण जब तक संभला तब तक वह अपने कुल का घात करवा कर धराशायी हो चुका था। 

कुज्ञान कानों के मार्ग से बुद्धि में प्रवेश करता है किन्तु सद्ज्ञान को हासिल करने के लिए कई जीवन अर्पित करने पड़ते हैं।

यह भी सत्य है कि कोई शूर्पणखा, कोई केकैयी या कोई दुर्योधन यदि हठ पकड़ ले तो न केवल अपनी बल्कि अपने आभामंडल और आसपास के प्रत्येक व्यक्ति का जीवन नर्क बना देती है। 

समझ तो नहीं आता, लेकिन यह सत्य है कि साफ़ सुथरा जीवन जीने के लिए अपने इर्द-गिर्द नकारात्मक ऊर्जा से संचालित होने वाला एक भी व्यक्ति चुनौती बन सकता है।

© चिराग़ जैन

Thursday, August 11, 2016

हर ख़ुशी वनवास में है

कोई तो मंथरा रनिवास में है
अवध की हर ख़ुशी वनवास में है

अवध वालो हृदय को वज्र कर लो
कोई पत्थर छुअन की आस में है

कोई हठ पर अड़ा कोई नियम पर
मगर दशरथ गहन संत्रास में है

विवादों में तो कठिनाई बहुत है
क्या उससे भी अधिक उल्लास में है

दिलों में राम बसते हैं हमारे
मगर रावण हमारी श्वास में है

© चिराग़ जैन

थाने मत जइयो!

चुन्नू-मुन्नू थे दो भाई
प्रॉपर्टी पर हुई लड़ाई
चुन्नू बोला मैं भी लूंगा
मुन्नू बोला कभी न दूंगा

झगड़ा सुनकर जिप्सी आई
दोनों को थाने ले आई

थोड़ा तू दे चुन्नू बेटा
थोड़ा तू दे मुन्नू बेटा
थाने में फिर कभी न आना
अपना झगड़ा खुद निपटाना

© चिराग़ जैन

Sunday, August 7, 2016

मेरी ख़ामुशी पहचानो

अब उनका इंतज़ार छोड़ भी दो शानो तुम
ख़ुदकुशी कर लो कहीं अब मिरे अरमानो तुम

जुबां से कुछ न कहूँगा कभी, ये जानो तुम
जो हो सके तो मेरी ख़ामुशी पहचानो तुम

अब अपने बीच नहीं है वो मरासिम क़ायम
कि ख़ुद को मेरी उदासी की वजह मानो तुम

कभी तो दुनिया से मतलबपरस्ती भी सीखो
सदा दीवाने ही रहोगे क्या दीवानो तुम

किसी ‘चिराग़’ को जलने नहीं देना हरगिज़
नहीं तो जान गँवा बैठोगे परवानो तुम

© चिराग़ जैन

मित्रता के संस्कार

बचपन में हमें सुनाई गई दादी-नानी की कहानियों में दोस्ती को कभी अच्छी नज़र से देखने की परम्परा नहीं रही। यदि कभी किसी कहानी ने बन्दर और मगरमच्छ में दोस्ती करवाई भी तो उसके सद्भाव को अंततः मगरमच्छ की धूर्तता के हलक़ में उतर जाना पड़ा। एकाध बार शेर और चूहे की असंभव दोस्ती की कहानियाँ सुनाई गईं तो उसको भी स्वार्थ के जाल में बांधकर भौंथरा कर दिया गया। सारस और लोमड़ी की दोस्ती हुई तो सारस की बुद्धिमत्ता का ढोल पीटने के लिए दोस्ती की खीर में नींबू निचुड़वा दिया। हंस और केकड़े की दोस्ती केकड़े की प्रवृत्तियों की भेंट चढ़ गई। कुल मिलाकर बचपन से ही हमारे अवचेतन में ‘दोस्ती-वोस्ती कुछ नहीं होती’ जैसे वाक्य रोंप दिए जाते हैं।
इसके बावजूद हमने ‘कोई जब राह न पाए, तो हरदम साथ निभाए, तेरी दोस्ती तेरा प्यार’ जैसे फ़िल्मी झाँसों में फँसकर कुछ दोस्त बना लिए और उनके साथ धरम-वीर जैसा रिश्ता भी क़ायम कर लिया। लेकिन अवचेतन में पड़े बचपन के बीजों ने जय-बीरू की दोस्ती को राजेश्वर और वीरसिंह की दुश्मनी में तब्दील करके एक-दूसरे की जान का सौदागर बना डाला।
किस्से-कहानियों और फिल्मों से विरक्त होकर धर्मग्रन्थ उठाए तो पता चला कि मनसुखा और कृष्ण जैसे निश्छल सम्बन्ध बचपन में बन जाते हैं जो ‘भाई नी है’ जैसे अजेय मन्त्रों के सहारे निस्पृहता का यज्ञ संपन्न कर लेते हैं। लेकिन किशोरावस्था आते-आते व्यक्तिगत हित इतनी वरीयता तो पा ही लेते हैं कि दाँत किटकिटाने का बहाना बनाकर दोस्त के हिस्से के चने खा जाने में लज्जा आनी बंद हो जाती है। बचपन की इन्हीं ग़लतियों के परिणामस्वरूप गृहस्थी की विपन्नता के बावजूद संपन्न मित्र से सहायता मांगने में संकोच उत्पन्न होने लगता है।
कर्ण और दुर्याेधन की दोस्ती में कुछ गहराई दिखी तो उनका रिश्ता समर्पण की इस सीमा तक चला गया कि एक-दूसरे को सत्पथ पर लाने की बजाय एक-दूसरे के निर्णय का सम्मान करते हुए विनाश के चौबारे तक चले आए। अश्वत्थामा ने अपने प्रतिशोध को दुर्याेधन की मित्रता के रथ पर चढ़ाकर शिशुघात तक का महापाप कर डाला।
मानस् के महानायक ने निषादराज, सुग्रीव, विभीषण जैसे अनेक मित्र बनाए; लेकिन कूटनीति के झरोखे से झाँकने पर ज्ञात होता है कि ये सभी मित्र बनाए हुए मित्र थे, बने हुए नहीं। यह सोद्देश्य मित्रता थी, निस्पृहता का भाव यहाँ आया भी, तो सशंक।
कुल मिलाकर, दोस्ती के नाम पर हमें जो भी रिश्ते मिलते हैं, उन सबके आधार को हमारे अवचेतन में पड़ी कहानियों, पौराणिक सन्दर्भों और सिनेमा की प्रतिच्छाया ने जर्जर किया हुआ है।

© चिराग़ जैन

मित्रता

सुदामा जैसा मित्र मुझे नहीं चाहिए
जो बचपन में मित्र के हिस्से के चने खा गया
और जवानी में मित्रता का हिस्सा मांगने आ गया

कृष्ण जैसा मित्र भी मुझे नहीं चाहिए
जो बचपन में मित्र की चालाकी पर प्रतिकार किया
और जवानी में मित्र के गिड़गिड़ाने का इंतज़ार किया

मित्रता तो दुर्योधन की बड़ी थी
जिसने कर्ण को तब अंगराज बनाया
जब उसकी प्रतिभा रंगक्षेत्र में असहाय खड़ी थी

मित्रता तो कर्ण सी होनी चाहिए
जिसने दुर्योधन का साथ देते हुए यह विचारा ही नहीं
कि उसका मित्र ग़लत है या सही

© चिराग़ जैन

दोस्त वो है

दोस्त वो नहीं जिसका आपके पास फ्रेंडशिप डे का सबसे पहला मेसेज आए। दोस्त वो जो फ्रेंडशिप डे के दिन आपसे फोन मिलाकर बोले - "साले तूने मुझे याद क्यों नहीं दिलाया कि आज फ्रेंडशिप डे है, कमीने तेरी भाभी को रात 12 बजे wish नहीं कर सका।"

और भी गहरा दोस्त वो है जो आपको बोले - "अबे मेरी एफबी से अपनी भाभी को कोई मस्त सा फ्रेंडशिप डे मेसेज भेज दे यार।"

और भी गहरा दोस्त वो है जो फ्रेंडशिप डे के दिन तुम्हें 20 बार फोन करे लेकिन उसे तुमको फ्रेंडशिप डे wish करना याद न रहे। 

...दोस्त वो है, जो तुम्हारे साथ formal होने की बात सोच भी न सके; दुनियादारी तो दुनिया निभाती है। 

© चिराग़ जैन

Wednesday, August 3, 2016

बुलंदशहर बलात्कार कांड

फट गया कलेजा धरती का
आकाश हिला दिग्गज डोले
ममता की कोरें बिलख उठीं
पत्थर पिघले, पर्वत बोले
फिर क्यों ऐसा कुछ नहीं हुआ
जो हवस की तंद्रा तोड़ सके
ऐसी आंधी क्यों नहीं उठी
जो वहशत को झखझोर सके
मजबूर पिता की चीखों से
अम्बर तक चोट हुई होगी
लाचार बिलखती बेटी जब
बर्बर ने हाय छुई होगी
उस क्षण रस्सी खुल जाती तो
भीषण हुंकार हुआ होता
उस क्षण रस्सी खुल जाती तो
कैसा संहार हुआ होता
उस क्षण रस्सी खुल जाती तो
वहशत की लाश पड़ी होती
उस क्षण रस्सी खुल जाती तो
ताण्डव की एक घड़ी होती
वह क्रुद्ध पिता उस इक पल में
उन सबकी बलि चढ़ा देता
वह क्रुद्ध पिता उस इक क्षण में
सारा ब्रह्माण्ड हिला देता
उसने अरदास लगाई थी
पर हाय विधाता सोता था
और वो रस्सी से बंधा हुआ
बस फूट फूट कर रोता था
उसकी पत्नी, उसकी बेटी
वहशत से रौंदी जाती थी
उसकी रग-रग में ज्वाला की
बिजली सी कौंधी आती थी
उस माँ की पीड़ा कौन कहे
जो ख़ुद वहशत की ज़द में थी
और उसकी छोटी सी बेटी
बर्बरता की सरहद में थी
उसकी पीड़ा लिखना चाहूँ
तो शब्द गौण हो जाते हैं
भाषा हिचकी भर रोती है
व्याकरण मौन हो जाते हैं
यह वह क्षण था जिसको सहना
मानव के वश का रोग नहीं
यह वह क्षण था जिसका जग की
सारी पीड़ा से जोग नहीं
यह वह क्षण था जिसको लखकर
खुद काल आत्महत्या करता
यह वह क्षण था जिसको सुनकर
ईश्वर भी लज्जा से मरता
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ
धरती अब तक जस की तस है
अख़बार टीस से रंगे मगर
मजबूरी अब तक बेबस है
इस घटना से ज़्यादा बर्बर
इस पर हो रही सियासत है
इस घटना से ज़्यादा बर्बर
सब सह लेने की आदत है
जिनने मानवता जर्जर की
वे तो समाज की व्याधि हैं
लेकिन जो अब ख़ामोश रहे
वे भी समान अपराधी हैं
इतनी दहशत आवश्यक है
वहशत इज़्ज़त से दूर रहे
बेटी-बहनें घर से निकलें
तो हिम्मत से भरपूर रहें
वहशी ने आँख उठाई तो
गर्दनें छाँट दी जाएंगी
इज़्ज़त को हाथ लगाया तो
बोटियाँ काट दी जाएंगी

© चिराग़ जैन

ओके साहब।

साहब जी, बिहार में चुनाव होने वाला है, क्या करें?
गाय का मुद्दा खड़ा करो।
ओके साहब। 

साहब जी, दिल्ली में चुनाव होने वाला है, क्या करें?
फ्री वाई-फाई बांटने का प्रचार करो।
ओके साहब। 

साहब जी, पंजाब में चुनाव होने वाला है, क्या करें?
ड्रग्स की समस्या को भड़का दो।
ओके साहब। 

साहब जी, यूपी में चुनाव होने वाला है, क्या करें?
दलितों के शोषण की घटनाओं को हवा दो।
ओके साहब। 

सारे चुनाव हो गए साहब, अब क्या करें।
अब आराम से सो जाओ।
लेकिन साहब जनता की सेवा कब करेंगे?
नींद पूरी होने के बाद।
ओके साहब। 

साहब वो बिहार वाली गाय रंभा रही है, नींद में खलल पड़ रहा है।
उसे वाई फाई की आदत डाल दो, इंटरनेट पर व्यस्त हो जाएगी।
लेकिन साहब वाई फाई तो मिला ही नहीं। 
तो उसे ड्रग्स की लत लगा दो।
लेकिन साहब ड्रग्स तो हमने चुनाव में बाँट दी।
तो उसे दलितों के यहाँ बाँध आओ, लेकिन मुझे सोने दो।
ओके साहब।

© चिराग़ जैन

Tuesday, August 2, 2016

रे बुलंदशहर!

रे बुलंदशहर!
इतनी बुलंदी तैने कहाँ से पाई कि अपनी बेटी के बलात्कार को अपनी आँखों से देखने वाले बाप की चीत्कार से तेरा कलेजा नहीं काँपा। उस माँ की चीख तुझे सुनाई नहीं दी जिसे समझ नहीं आ रहा था कि अपनी देह पर लिपटे दरिंदों की आँखें पहले फोडूं या अपनी 13 साल की बेटी के जिस्म पर टूटते दुःशासनों की छाती पहले फाडूँ।

इस घटना को पढ़ने के बाद सिहर कर अपनी बिटिया को गले लगा लेने वाले हर पिता को सड़क पर उतर कर व्यवस्था से प्रश्न करना चाहिए कि सिर्फ स्वार्थी राजनीति की रोटियां सेंकने वाले इस तंत्र ने हमें क्या दिया है। हर माँ को व्यवस्था की गिरेबान पकड़ कर पूछना चाहिए कि जनता को सिर्फ वोट समझने वाले इस सिस्टम ने हमारी मेहनत की कमाई किन अय्याशियों पर खर्च की है? हर बेटी को मंत्रियो के कुर्ते खींच कर पूछना चाहिए कि अंकल बलात्कार किसे कहते हैं?

थाने में जाते हुए हम डरते हैं, अदालत के नाम से हमारी रूह कांपती है। ये कौन सा लोकतंत्र है भाई? ये किस व्यवस्था की जकड ने हमें नपुंसक बना दिया है। ऐसे तंत्र के खिलाफ सड़क पर उतरना यदि अराजकता है तो एक बार इस मुल्क की जनता को अराजक होकर भी देख लेना चाहिए।

ये अराजक लोग, कम से कम उस 13 साल की बच्ची से आँख तो मिला सकेंगे जिसे रौंदकर हवस मिटाने वाले लोग हमारी ही टेक्स की दौलत से चल रहे सिस्टम से डरना भूल गए हैं। 

© चिराग़ जैन

जीवन नदिया

जीवन का प्रारम्भ जब होता है, तो वह नदिया की सद्यप्रवाहित धारा-सा अविरल और निष्कलंक होता है। उसकी कलकल मनमोहक होती है। उसका स्पर्श शीतल होता है। ज्यों-ज्यों धारा आगे बढ़ती है, त्यों-त्यों उसका आकार बढ़ता जाता है। गुडलने चलने के प्रयास में बचपन के घुटने मैले हो जाते हैं, लेकिन उसकी प्रवृत्ति और निष्कपटता उसे जीवंत और सर्वप्रिय बनाए रखती है। फिर एक मोड़ पर ये धारा पर्वत की सीमा लांघकर ख्याति अर्जित करने मैदान में उतरती है।
यहाँ इसका संसर्ग धर्म, उद्योग, गृहस्थी, व्यापार और अन्य सांसारिक उद्यमों के अवशेष से होता है। यहाँ इसकी गति मंथर होने लगती है। घाट, पुल और बैराज की नियमावलियाँ इसके यौवन के आह्लाद को विधानों के आघात से जर्जर कर देते हैं। मन पर भारी बोझ लिए जीवन आगे बढ़ने की कोशिश करता है कि तभी विवशता के गारे और अवसाद के कीचड़ का बड़ा सारा नाला इसको रोक लेता है। इसका कलकल करता प्रवाह ठहर जाता है। इसकी शीतलता से सड़ांध उठने लगती है। इसके वातावरण में साँस लेना दूभर हो जाता है। नाम भर की नदी घिसट-घिसटकर आगे बढ़ती है। अब तक इसके भीतर का उन्माद पूरी तरह समाप्त हो चुका होता है। स्मृतियों का ढेर सारा कचरा इसका अभिन्न अंग बन चुका होता है और बीमारियों से जर्जर होते होते इसकी देह हारकर किसी खारे श्मशान में अपने अस्तित्व को समाप्त कर डालती है।

© चिराग़ जैन