जीवन का प्रारम्भ जब होता है, तो वह नदिया की सद्यप्रवाहित धारा-सा अविरल और निष्कलंक होता है। उसकी कलकल मनमोहक होती है। उसका स्पर्श शीतल होता है। ज्यों-ज्यों धारा आगे बढ़ती है, त्यों-त्यों उसका आकार बढ़ता जाता है। गुडलने चलने के प्रयास में बचपन के घुटने मैले हो जाते हैं, लेकिन उसकी प्रवृत्ति और निष्कपटता उसे जीवंत और सर्वप्रिय बनाए रखती है। फिर एक मोड़ पर ये धारा पर्वत की सीमा लांघकर ख्याति अर्जित करने मैदान में उतरती है।
यहाँ इसका संसर्ग धर्म, उद्योग, गृहस्थी, व्यापार और अन्य सांसारिक उद्यमों के अवशेष से होता है। यहाँ इसकी गति मंथर होने लगती है। घाट, पुल और बैराज की नियमावलियाँ इसके यौवन के आह्लाद को विधानों के आघात से जर्जर कर देते हैं। मन पर भारी बोझ लिए जीवन आगे बढ़ने की कोशिश करता है कि तभी विवशता के गारे और अवसाद के कीचड़ का बड़ा सारा नाला इसको रोक लेता है। इसका कलकल करता प्रवाह ठहर जाता है। इसकी शीतलता से सड़ांध उठने लगती है। इसके वातावरण में साँस लेना दूभर हो जाता है। नाम भर की नदी घिसट-घिसटकर आगे बढ़ती है। अब तक इसके भीतर का उन्माद पूरी तरह समाप्त हो चुका होता है। स्मृतियों का ढेर सारा कचरा इसका अभिन्न अंग बन चुका होता है और बीमारियों से जर्जर होते होते इसकी देह हारकर किसी खारे श्मशान में अपने अस्तित्व को समाप्त कर डालती है।
© चिराग़ जैन
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