Saturday, September 24, 2016

पिंक

पिंक इस दौर की एक बेहतरीन फ़िल्म है। लेकिन कुछ अर्थों में मुझे फ़िल्म देखकर ऐसा लगा कि एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा स्त्री-विमर्श की आड़ में छुपकर रह गया है। फ़िल्म में पुरुष मानसिकता और नारी की स्थिति से अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह उजागर होता है कि इस देश का पुलिसिया तंत्र किस तरह काम कर रहा है। थाने में एक पहुंच विहीन नागरिक के साथ क्या व्यवहार होता है। पीड़ित व्यक्ति को किस तरह पुलिसवाले डराते हैं। किस भाषा में वे नागरिकों से बात करते हैं। कैसे रसूखदार लोगों की सेवा की जाती है। कैसे बैक डेट में रिपोर्ट लिखी जाती है। कैसे चार्जशीट बनाई जाती है। और भी ढेर सारे सवाल फ़िल्म में छूट से गए हैं।

मुझे लगता है कि पुलिसिया भ्रष्टाचार और सिस्टम की नपुंसकता पर यदि चर्चा उठे तो किसी नागरिक को न्याय की गुहार के लिए न तो स्त्री बनना पड़ेगा, न पुरुष; न उसे दलित बनना होगा न सवर्ण, न उसे हिन्दू होकर न्याय मांगना होगा न मुसलमान होकर इन्साफ की गुहार लगानी होगी।

इंसाफ़ सिर्फ सही अथवा ग़लत की परिभाषा जानता है। और उस इन्साफ के रखवाले हमारे थाने किसी नेता, किसी उद्योगपति या किसी बाहुबली के इशारों की नचैया बनकर रह गए हैं। ऐसे में यदि कोई सरकार पुलिस को जनता के हित में काम करने के लिए बाध्य कर सकेगी तो किसी रसूखदार टपोरी की इतनी हिम्मत नहीं होगी कि वह कानून को जेब में रखकर विटनेस बॉक्स में खड़ा हो। 

© चिराग़ जैन

Friday, September 23, 2016

रामधारी सिंह दिनकर

भारत के ओज स्वरावतार
जनता के मन की दृढ़ पुकार
कविता के तेजस्वी सपूत
वाणी में शौर्य सुधा अकूत
ज्वाला से जब भर गए नेत्र
शब्दों में उतरा कुरुक्षेत्र
गाया करुणा की भृकुटि तान
वह रश्मिरथी का महागान
गीतों में सामधेनी धधकी
जनहित की ज्यों दामिनी दमकी
श्रृंगार रचा उर्वशी सजी
कविता के घर पाजेब बजी
ऐसा शब्दों का प्यार सधा
श्रृंगार सधा, अंगार सधा
शोध अरु इतिहास मिलाय रचे
संस्कृति के चार अध्याय रचे
शासन से आँख मिलाय जिया
नभपिण्डो से बतियाय जिया
है कौन निविड़ जो हरा नहीं
दिनकर जीवत है मरा नहीं
जब भी सत्ता बौराती है
जनता दिनकर को गाती है
जब भी अंधियारा गहरेगा
दिनकर प्राची में प्रहरेगा
रश्मियाँ नहीं लेतीं विराम
दिनकर को शत्-शत् है प्रणाम

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 20, 2016

डाइवर्ट

जब हम बोलते थे कि देश में ग़रीबी बहुत है, तो वे बोलते थे कि बड़े लक्ष्य रखो! देखो देश को विश्व समुदाय में सम्मान मिल रहा है। सुनकर हम ग़रीबी पर मौन हो गए।
हमने कहा कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। वे बोले, दुनिया भारत को देख रही है। ऐसी बातें करके देश का सम्मान कम मत करो। हम भ्रष्टाचार भी पचा गए।
हमने कहा कि देश में महंगाई बर्दाश्त से बाहर हो रही है। वे बोले राष्ट्रप्रेम की बातें करते हो और ज़रा-सी महंगाई नहीं झिल रही। हम अपना-सा मुंह लेकर रह गए।
हमने पूछा कि अच्छे दिन का सपना सच क्यों नहीं हो रहा? वे बोले प्रधानमंत्री पर कटाक्ष करना अशोभनीय है।
...पठानकोट हमले के बाद हमने पूछा कि कब तक सहन करें? वे बोले कि वेदेशी मुआमलात जल्दबाज़ी में नहीं सुलझाए जाते। सब्र करो।
कश्मीर के मुख्यमंत्री ने पाकिस्तान के गुण गाए। हमने आहत होकर पूछा कि ये ग़द्दारी क्यों बर्दाश्त की गई? वे बोले कश्मीर की रणनीति का हिस्सा है। समय आने पर उत्तर दिया जाएगा। अब उरी में निहत्थे सपूत मौत के घाट उतार दिए गए। देश पूछ रहा है कि अत्याचारी को कब सबक सिखाया जाएगा? वे बोले सब्र करो। युद्ध अंतिम विकल्प है।
हमने पूछा कि चुनावी रैलियों में निवर्तमान सरकार को कायर कहकर जब हमसे वोट माँगा जा रहा था तब अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सम्मुख देश की विवशता को क्यों अनदेखा किया गया था? 
वे उठे, फोन उठाया, कोई नंबर डायल किया और बोले- "स्वामी जी, देश का रक्तचाप बढ़ रहा है, कुछ ध्यान शिविर आयोजित करो, कुछ ध्यान डाइवर्ट करो।"
इससे पहले कि हम कुछ और बोलते, वे बोले शहीदों की आत्मा की शान्ति के लिए "मौन रखो।"

© चिराग़ जैन

Sunday, September 18, 2016

चलो हटो यहाँ से---

जब हम लालकिले पर भाषण देने जाते हैं तो सीमा पार आतंकवाद की बोलती बंद करने का दम्भ भरते हैं। जी-20 शिखर वार्ता में व्यापार-धंधे की बातें करने जाते हैं तो आतंक के सफाए की गुहार लगाने लगते हैं। चुनाव में प्रचार करने जाते हैं तो 56 इंच का सीना दिखाकर उस पाकिस्तान को डराने लगते हैं, जिसे वोट नहीं देना।

लेकिन पाकिस्तान डरता नहीं है। वह आता है और पठानकोट में उत्पात मचा कर चला जाता है। हमारा काफी नुक़सान होता है। हम उसे मारने की हिम्मत नहीं कर पाते। बल्कि खिसियाते हुए अपनी खिड़की में दुबककर मुर्गे की तरह गर्दन निकाल कर बोलते हैं - "अबकी बार मत आ जाइयो, वरना छोड़ेंगे नहीं।" ...वह इस धमकी को सुनता है, ज़ोरदार ठहाका मारकर हँसता है और उरी की फुलवारी तहस-नहस करके भाग जाता है।

हमारे स्वाभिमान और शौर्यबोध की स्थिति उस अंधे भिखारी जैसी हो गई है जिसे गली के शरारती बच्चे छेड़-छेड़ कर ललकारते हुए भाग जाते हैं और वह हवा में लकड़ी घुमाते हुए अपनी बेचारगी को खोखले क्रोध से ढाँपने की असफल कोशिश करता-करता रो पड़ता है। अंधा रोता रहता है, बच्चे उसकी इस दशा देखकर ज़ोर-ज़ोर से हँसते रहते हैं।

हमारे प्रधानमंत्री जी को उस भिखारी की दशा पर दया आती है। वे उसके आंसू पोंछते हैं। उसे हौसला देते हैं। उसे बताते हैं कि ये बच्चे तो बहुत छोटे हैं। तुम इतने बड़े हो। घबराओ मत। अबकी बार ये तुम्हें छेड़ें तो तुम इन्हें ऐसी पटखनी देना कि याद रखें। मेरी भुजाओं में बहुत शक्ति है। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। इन शरारती लड़कों को अपनी शेर जैसी दहाड़ से बिलों में घुसा दूँगा। तुम चिंता मत करो। अमरीका, रूस, जापान, चीन, इंग्लैण्ड सब जगह मेरी पहुँच है। तुम आराम से जियो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।

अंधे का आत्मविश्वास जाग जाता है। बच्चे फिर आते हैं। भिखारी के कंधे पर चिकौटी काटते हैं। अंधा ज़ोर से लकड़ी उठा कर चारों ओर घुमा देता है। बच्चे भाग जाते हैं और वह लकड़ी खुद उस अंधे के माथे पर आ लगती है। अंधा क्रोध, पीड़ा, अपमान, भय और विवशता से आहत होकर धरती पर गिर जाता है।

प्रधानमन्त्री जी उसे बचाने नहीं आते। बचाना तो दूर वे उसे उठाने तक नहीं आते। उनके मंत्रिमंडल के पास समय ही नहीं है उस धराशायी शौर्यबोध को उठाने का। वे सब बहुत व्यस्त हैं। उन्हें केजरीवाल की लंबी जीभ पर टिप्पणी करनी है। उन्हें राहुल गांधी को पप्पू कहकर इमेज डैमेज करना है। उन्हें जियो की एड फ़िल्मशूट करनी है। उन्हें सूट का नाप देने जाना है। उन्हें अपने सीने का नाप लेकर जनता को बताना है। उन्हें नियुक्तियाँ पूरी करनी हैं। उन्हें बुलेट ट्रेन लानी है। उन्हें बहुत कुछ करना है जनाब। उन्हें डिस्टर्ब मत करो।

ये अड़ोस-पड़ोस के बेमतलब मुआमलात में उनको घसीटकर उनका समय नष्ट मत करो। चलो हटो यहाँ से। साहब को प्राणायाम करने दो। 

© चिराग़ जैन 

Saturday, September 10, 2016

अनुनय

बिन मतलब का अहम् कभी जब
बिन मतलब जिद से टकराया
ऐसा भीषण गर्जन गूंजा
संबंधों का दिल घबराया
स्नेह सहमकर स्तब्ध हुआ था
प्रेम घरौंदा ध्वस्त हुआ था
छितराए सुख के सब बादल, लुप्त हुईं स्नेहिल बौछारें
विश्वासों की उर्वर भू पर, उभरीं अनगिन शुष्क दरारें

मन में उपजे एक अहम् ने परिचय की अनदेखी कर दी
जिन पर था अधिकार उन्होंने अनुनय की अनदेखी कर दी
वैरी सा व्यवहार हुआ है
हृदय विराजित भद्र जनों का
राह बनाती पतवारों से
खुद ही लड़ बैठी है नौका
क्लेश सुखों को लील चुका है
द्वेष हृदय को कील चुका है
जो सम्बन्ध नहीं डिग पाए, दुनिया भर के आघातों से
वे दो टूक हुए क्षण भर में, कुबड़ी दासी की बातों से
प्रतिशोधों के आकर्षण ने परिणय की अनदेखी कर दी
जिन पर था अधिकार उन्होंने अनुनय की अनदेखी कर दी

इतना ज़्यादा मान मिला है
पल भर में घिर आए रण को
याद नहीं कर पाया कोई
साथ बिताए मोहक क्षण को
कोई साधन काम न आया
संशय ने सिंहासन पाया
दिल का अवध उजाड़ हुआ है, अपनापन जा बैठा वन में
दशरथ श्वास नहीं ले पाए, महलों के एकाकीपन में
एक चुभन ने यादों के संग्रहालय की अनदेखी कर दी
जिन पर था अधिकार उन्होंने अनुनय की अनदेखी कर दी

© चिराग़ जैन

Monday, September 5, 2016

अहो! शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध

सारांश : शिक्षकों की ट्यूशन-लोलुपता ने भारतीय शिक्षा-व्यवस्था को नई ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं। युग-युग से योग्य शिष्य ढूंढ़ने में रत शिक्षकों ने अब ग्राहक ढूंढ़कर आत्मकल्याण की राह पकड़ ली है। शिष्य-शिक्षक परम्परा के इस महती परिवर्तन की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया की सूक्ष्म कथा है यह लेख : 

स्वाधीन भारत में शिक्षकों का काफी विकास हुआ है। आज़ादी से पहले हमारे देश में शिक्षकों का इतना विकास नहीं हो सका था। इसका प्रमुख कारण यह था, कि आज़ादी से पहले हम ग़ुलाम थे, अतएव शिक्षकों को अपनी बहुआयामी प्रतिभा दिखाने का अवसर नहीं मिल पाता था। शिक्षक जानते थे कि जो विद्यार्थी स्वयं तैरकर नदी पार कर रहा हो, वह गुरुजी की नैया को कैसे पार लगा पाएगा? जब तक पाठशाला पहुँचने वाले छात्रों के कपड़ों में नदी का जल विद्यमान रहा तब तक शिक्षकों की आँखों में भी जल पाया जाता था अतः वे अपने निजी स्वार्थों को विस्मृत करके, विद्यार्थियों को योग्य मनुष्य बनाने में संलग्न रहते थे। किन्तु अब शिक्षक जान गए हैं कि एक टुच्ची-सी तनख़्वाह के लालच में बेचारे विद्यार्थियों को कूट-पीटकर संस्कारवान मनुष्य बनाने का यत्न कोरा अत्याचार है। पहाड़ों और वर्णमाला जैसी जटिलताओं से हँसता-खेलता बचपन मर जाता है। किताबों के बोझ तले उनकी शरारतें दब जाती हैं। इसलिए आज़ादी के बाद शिक्षकों ने विद्यार्थियों को पढ़ाना बंद कर दिया। 

धीरे-धीरे विद्यालयों में एक ऐसा सौहार्दपूर्ण वातावरण विकसित हो गया कि विद्यालय जाने के नाम पर कतराने वाले विद्यार्थी अब बड़े चाव से विद्यालय जाने लगे हैं। शिक्षकों और शिक्षार्थियों के मध्य एक ऐसा अनकहा समझौता हो गया है कि शिक्षकों ने विद्यार्थियों से सम्मान की उम्मीद समाप्त कर दी और विद्यार्थियों ने शिक्षकों से ज्ञान की। 

शिक्षक अब जान गए हैं कि मनुष्य के सर्वांगीण विकास के ताले खोलने के लिए कुंजी की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए वे विद्यार्थियों को बताते हैं कि नन्दलाल दयाराम की कुंजी में ही सफलता के सूत्र 'छपे' हुए हैं। तुम इन कुंजियों से पढ़कर अवश्य उत्तीर्ण हो जाओगे, क्योंकि हम इन्हीं कुंजियों के मुताबिक़ सफलता की राह पर परीक्षा-पत्र के ताले जड़ेंगे। 

शिक्षक जान गए हैं कि विद्यालय के शोरगुल में अध्ययन संभव नहीं है। इसलिए वे छात्रों को शांत स्थान पर शिक्षा अध्ययन हेतु प्रेरित करते हैं। शांत स्थान अर्थात् मास्टर जी का घर। छात्र अपने अभिभावकों से गुरु-दक्षिणा की रक़म लेकर मास्टर जी के चरणों में अर्पित कर देते हैं। इस नवधा भक्ति से मास्टर जी के भीतर का दिव्य पुरुष प्रसन्न हो जाता है। वह छात्रों को बिना कुछ किए परीक्षा उत्तीर्ण करने का आशीर्वाद देते हैं। और इसके तुरंत बाद छात्र अन्तर्धान हो जाते हैं। शिक्षक जानते हैं कि छात्र घर से एकांत अध्ययन हेतु निकला है किन्तु वह पथभ्रष्ट होकर सिनेमा की ओर जा रहा है। यह सब जानते हुए भी शिक्षक मौन रहता है क्योंकि वह यह भी जानता है कि उसके घर के रसोईघर में नमक का डिब्बा उसी छात्र के द्वारा प्रदत्त गुरु-दक्षिणा की कृपा से भरा हुआ है। नमक के प्रति कृतज्ञता के भाव से भरा हुआ शिक्षक जानता है कि अपने भरतार के कृत्यों की आलोचना महापाप है। 

शिक्षक बच्चों को प्रताड़ित करने में नष्ट होने वाले समय को अब स्टाफ रूम में बैठकर देश और समाज की समस्याओं पर चिंतन करने में उपयोग करने लगे हैं। सरकार द्वारा मिलने वाला बोनस कितना बनेगा; इसकी पाई-पाई कैलकुलेशन गणित के अध्यापक कर देते हैं। सभी शिक्षक काग़ज़ पर गणित के अध्यापक द्वारा लिखी गई आंकड़ों की इबारत पढ़कर धन्य हो जाते हैं। अर्थशास्त्र के अध्यापक बता देते हैं कि बाज़ार में कौन से शेयर का भाव बढ़ने वाला है। इस ज्ञान को प्राप्त करते ही सभी शिक्षकों के अंतर्मन से साधु-साधु की दिव्य ध्वनि निकलने लगती है। 

सामान्य ज्ञान के अध्यापक बताते हैं कि अमुक कक्षा में अमुक बिल्डर का बेटा शिक्षाध्ययन कर रहा है। उसे प्रसन्न रखने से टू बीएचके फ़्लैट कम मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता है। सभी शिक्षकों के हृदय में उस छात्र के प्रति प्रेम और आदर घुमड़ने लगता है। यकायक उमड़े इस स्नेह को देखकर छात्र डर जाता है। वह अपने बिल्डर पिता से शिक्षकों के इस विचित्र रवैये की शिक़ायत करता है। चिंतित पिता अपने मित्र अर्थात् विद्यालय के सामान्य ज्ञान के अध्यापक को फोन मिलाते हैं। मित्र समस्या को गंभीरतापूर्वक सुनता है और चिंतित स्वर में बिल्डर को मास्टरों की मंशा बता देता है। बिल्डर, मित्र की सहायता से बेटे का दाख़िला किसी अन्य विद्यालय में करवा देता है और मित्र की सहृदयता से प्रसन्न होकर उसे एक थ्री बीएचके फ़्लैट का उपहार दे देता है। सभी शिक्षकों का हृदय अचानक सामान्य ज्ञान के अध्यापक के प्रति घृणा से भर उठता है। 

विद्यार्थी, जी तोड़कर परिश्रम करते हैं। शिक्षक भी जी तोड़कर मेहनत करते हैं। किन्तु किसी एक वर्ग का परिश्रम किसी भी स्थिति में दूसरे वर्ग के परिश्रम का मार्ग अवरुद्ध नहीं करता। शिक्षक महोदय परिश्रम करते-करते एक दिन विद्यालय छोड़ देते हैं। छात्रों का परिश्रम एक दिन उनसे विद्यालय छुड़वा देता है। दोनों अचानक एक दिन सब्ज़ी मंडी में लौकी के ठेले पर मिलते हैं। छात्र अभिभूत होकर मास्टर साहब के पैर छू लेता है। मास्टर जी गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर लौकी छाँटने में छात्र की सहायता करते हैं। छात्र गुरुकृपा से अनुग्रहीत होकर दाम चुकाने में मास्टर साहब की सहायता करता है। 

फिर दोनों अपना-अपना झोला लटकाए जूतियां चटखाते हुए अपनी-अपनी राह पर चल देते हैं। दोनों की आँखें नम हो जाती हैं। दोनों के हृदय में एक जुमला गूंजने लगता है, 'अहो! शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध।' 

© चिराग़ जैन

Saturday, September 3, 2016

दिगम्बरत्व

प्रश्न उठा है जैन धर्म के संत नग्न क्यों रहते हैं
प्रश्न उठा है जग में रहकर आत्ममग्न क्यों रहते हैं
प्रश्न उठा है जैन धर्म में बिल्कुल ढील नहीं है क्या
सभ्य जगत् में नग्न विचरना; ये अश्लील नहीं है क्या
सच समझे बिन बकबक करना, थोथा मान तुम्हारा है
त्याग वेश पर नाक चढ़ाना ये अज्ञान तुम्हारा है
काम अगर सर चढ़ जाए तो जीव व्यथित हो जाता है
मन भीतर से निश्छल हो तो त्याग घटित हो जाता है
वस्त्र त्यागना क्या कोई करतब फ़िल्मी हीरो का है
काम विजित कर नग्न विचरना; ये टेवा वीरों का है
शुद्ध आचरण की बातें, अभिमानी नहीं सुनी तुमने
संतों का बस बाना देखा, बानी नहीं सुनी तुमने
चखने वाले ने जूठे बेरों में मीठा प्रेम चखा
जिसके मन में जो मूरत थी उसने वैसा रूप लखा
सच बतलाओ, बचपन में जब नंगे डोला करते थे
तब भी क्या तुम ऐसी ओछी भाषा बोला करते थे
बचपन में हर नारी तुमको क्या केवल तन लगती थी
माँ का दूध पिया तब भी क्या कामवासना जगती थी
कह सकते हो तब तुमको इन बातों का आभास न था
कह सकते हो तब अन्तस् में कोई कामविलास न था
मन का पाप उजागर ना हो इस हित साधन जोड़ लिए
जब मन में कालिख आई तो उजले कपडे ओढ़ लिए
तुमको भय है काम भावना पर तुम पार न पाओगे
मन में पाप उठेगा तो तुम उसे मार ना पाओगे
लेकिन नग्न विचरने वाले संतों को ये फ़िक्र नहीं
धर्मध्यान से सिक्त ह्रदय में, काम-पाप का ज़िक्र नहीं
आत्मसाधना में बाधक अभिशाप भस्म हो जाएगा
तप की ज्वाला में जलकर हर पाप भस्म हो जाएगा
तुम क्या जानो जैन धर्म का क्या इतिहास सुनहरा है
तुम क्या समझो पंचेद्रियों पर धर्मध्यान का पहरा है
केशलोच पर वो बोले जो खुद को नोच नहीं सकते
कितनी कठिन तपश्चर्या है, तुम ये सोच नहीं सकते
हम वो नहीं जिन्होंने केवल धन वैभव ही जोड़ा है
हम उनके वंशज हैं जिनने जीत-जीत कर छोड़ा है
तोरण पर पशुकष्ट देखकर हममें करुणा जागी है
हमने चक्रवर्ती की सब संपत्ति जीत कर त्यागी है
जैन धर्म का साधक केवल क्षमा सुधा ही पीता है
हमने कमठ सरीखा दानव आचरणों से जीता है
हमको अपने मुनिराजों से क्षमाधर्म का ज्ञान मिला
हमें कठिन उपसर्ग समय में संयम का वरदान मिला
हम हिंसक हो जाते तो तुम इतना बोल नहीं पाते
हम बदला लेने लगते तो मुंह तक खोल नहीं पाते
हम भी तुमको गाली दें तो तुम जैसे हो जाएंगे
हम तुम जैसे होकर अपने कुल को नहीं लजायेंगे
तुम इक बार विचारो फिर से अहंकार ही चूका है
उसका चेहरा घृणित हो गया, जिसने नभ पर थूका है
हाथी निकला, श्वान बौराये; कहो लफंगा कौन हुआ
दर्पण में जाकर तो देखो सचमुच नंगा कौन हुआ

© चिराग़ जैन

संदीप कुमार की सीडी

हाईकमान : संदीप कुमार जी, आपने जिस तरह की सेल्फ़ी ली हैं, उनसे आपको डर नहीं लगा?
संदीप कुमार : प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, जो डरते हैं वो प्यार करते नहीं।
हाईकमान : तुम्हें कुछ करना था तो चुपचाप कर लेते, इसका ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रूरत थी?
संदीप कुमार : प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप आहें भरना क्या। 
© चिराग़ जैन 


संदीप कुमार की सीडी पर इतना हंगामा करना बेमानी है।
उसने तो केवल विशाल डडलानी को यह बताया है कि नग्न होने और नंगा होने में क्या अंतर है। 
© चिराग़ जैन 


इस बीच संदीप कुमार ने अरविन्द केजरीवाल को फोन करके बोला - "अब तो यक़ीन आगया कि मैंने वो फोटुएं राशन कार्ड पर चिपकाने के लिए खींची थी!" 
©चिराग़ जैन