Saturday, December 30, 2017

अस्तित्व का मापदंड

फेसबुक को अपने अस्तित्व का मापदंड माननेवाले लोगों का रक्तचाप मापने के लिए प्रति पोस्ट लाइक को प्रति पोस्ट शेयर से गुणा किया जाना चाहिए। इस डिजिटल संचार माध्यम ने एक ऐसी भ्रामक सृष्टि की सर्जना कर दी है कि किसी की चार दिन की निष्क्रियता उसके डिजिटल परिवार को ‘चिंतित महसूस कर रहा है’ वाली स्माइली चिपकाने पर विवश कर देती है।
इस गंभीर स्थिति में आधार कार्ड को फेसबुक से लिंक करने की बातें हो रही हैं। यह फ़रमान फेसबुकियों के लिए ऐसा वरदान सिद्ध हुआ कि मानो नास्तिकों की बस्ती में बने मंदिर के पुजारी को भगवान की माला के फूल मिल गए हों। सरकार की इस गंभीरता को देखते हुए फेसबुकजीवियों ने लॉगिन करते हुए और अधिक गंभीर होने का निर्णय किया है।
जो लोग अपनी पोस्ट पर टिप्पणियों की संख्या बढ़ाने के लिए इनबॉक्स तक दौड़-भाग करते थे, वे अब पोस्ट करने के उपरान्त 5000 लोगों को फोन मिलाने की सोचने लगे हैं। किसी के नकारात्मक कमेंट पढ़कर जिनकी भृकुटियाँ तन जाती थीं वे अब सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखकर एकाउंट लॉगिन करने लगे हैं।
फेसबुक पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आए स्वयंभू साहित्यकारों में भी खासी हलचल है। मैं ऐसे कई कवियों को जानता हूँ जो ‘आत्मनिर्भरता ही सफलता की कुंजी है’ की सूक्ति को आत्मसात करते हुए पचास-साठ नक़ली फेसबुक खातों की बुनियाद पर अपनी प्रशंसाओं का विशाल भवन खड़ा कर रहे थे। एक पोस्ट करने के बाद बाक़ायदा पचास लॉगिन-लॉगआउट करना, फिर उन पचास खातों की आपसी लड़ाई करवाना और उस लड़ाई को सुलझाना... इतनी मेहनत-मशक्कत से अपने दम पर ज़िंदा ये मसिजीवी आधार लिंक करने के इस तुग़लकी फरमान से अचानक बेरोज़गार हो गए हैं। 
नक़ली मुद्रा के बंद होने पर जो लोग सरकार की प्रशंसा में जुट गए थे, वे ही नक़ली खाते बन्द होने पर सरकार को कोस रहे हैं। महिला कोटे में बने खातों से लड़कियों से चुहलबाज़ चैटिंग करनेवाले संस्कारी युवा आधार लिंक करने के इस बेग़ैरत फैसले से सदमे में हैं। 
सभ्यता का आधार कार्ड दिखाकर संस्कृति की दुहाई देनेवाले लोग मौब में तब्दील होते ही अशिष्ट हो जाते हैं। यदि पहचाने जाने का संकट न हो तो हम वे सब हरक़तें करेंगे जिनका हम आधार लिंक वाले खाते से विरोध करते हैं। सामाजिक नियमों की भौंडी सभ्यता की चुनरी कुण्ठाओं की सूरत पर एक आवरण डाल देती है। 
फेसबुक के फेक एकाउंट्स बंद करवाने से पूर्व समाज को उन खातों से संचालित गतिविधियों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिए। इन खातों में समाज का वह चेहरा उजागर होगा, जिसे सामने लाने के मार्ग में नियमों और नैतिकता के छद्म पहाड़ों का अवरोध सदैव दिखाई दिया है। इन नक़ली खातों के डिजिटल अखाड़े की अध्यक्षता में नियमों की पुनर्स्थापना की जानी चाहिए ताकि वर्जनाओं के टैबू से त्रस्त समाज राहत की साँस ले सके।

© चिराग़ जैन

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