Tuesday, December 26, 2017

ओ विकलता!

ओ विकलता
दो घड़ी मन को अकेला छोड़ दे तू

नींद का तुझसे पुराना वैर है री
श्वास ने लय खोई तेरे साथ चलकर
धड़कनों की ताल द्रुत होती अचानक
रह गई है शांति अपने हाथ मलकर
मान भी जा
एक क्षण भीषण प्रतिज्ञा तोड़ दे तू
दो घड़ी मन को अकेला छोड़ दे तू

अनवरत मस्तिष्क में हलचल मची है
मौन के क्षण को कभी सम्मान तो दे
तू समूची बुद्धि से मन तक बसी है
धैर्य टिक पाए कहीं पर स्थान तो दे
या चली जा
या हृदय को इक दफा झखझोर दे तू
दो घड़ी मन को अकेला छोड़ दे तू

दृष्टि को भीतर उतरने की गरज है
भंगिमा को सरल होने का समय दे
मुस्कुराहट खिल उठे व्याकुल अधर पर
त्यौरियों को तरल होने का समय दे
घूम-फिर आ
भृकुटियों को सहजता से जोड़ दे तू
दो घड़ी मन को अकेला छोड़ दे तू

© चिराग़ जैन

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